गांवों में कोरेना संक्रमण रोकने के लिए भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं का पुनर्पालन जरूरी – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

Update: 2020-04-25 10:34 GMT


कोरेना महामारी से इस समय पूरा विश्व आक्रांत है। इसका कोई कारगर इलाज और वैक्सीन न होने की वजह से इस समय पश्चिमी देशों सहित भारत भी शोध कर रहा है। किन्तु अभी तक सफलता नहीं मिली है। मानव के रुधिर में लाल रक्त कणिकाएँ, श्वेत रक्त कणिकाएँ, प्लेटलेट्स और प्लाज्मा पाये जाते हैं, कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि प्लाज्मा इस महामारी में कारगर साबित हो सकता है। जिस पर अभी शोध हो रहा है। नगरों में रहने वाले लोग तो इसके प्रति जागरूक हैं। शिक्षित होने और विशेष प्रकार के आचरण के कारण यहाँ पर जरूरी ऐतिहात का पालन भी हो रहा है। लेकिन एक आशंका जताई जा रही है कि अगर यह महामारी गावों में फ़ैल गई, तो इसे रोकना मुश्किल हो जाएगा। भारत की एक बड़ी आबादी काल के गाल में समा जाएगी। ये आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं। भारत में पहले भी महामारी आती रही, उस महामारी में बड़ी संख्या में ग्रामीण समाज के लोग हताहत भी होते रहे। कहीं-कहीं तो पूरी की पूरी बस्ती ही तत्कालीन महामारियों की शिकार हो जाती थी। लेकिन फिर भी अगर हम सभी हैं, तो इससे साफ जाहीर है कि इन महामारियों से बचने के लिए तत्कालीन समाज के पास ऐसा जरूर कुछ था, जिसे अपना कर उसने इन महामारियों से पूरी अवाम को बचाया ।

उन बिन्दुओं पर विचार करने के पूर्व कोरेना – 19 के बारे में संक्षिप्त रूप से विचार कर लेते हैं। यह कोविड -19 से फैलने वाली बीमारी है। जिसकी शुरुआत चीन से हुई। जहां बहुत संख्या में चमगादड़ पाये जाते हैं और यहाँ के लोग मासभक्षी हैं। और अन्य जहरीले जानवरों की तरह चमगादड़ को भी भोजन के रूप में अक्सर इस्तेमाल करते हैं। यह वायरस संक्रमित मनुष्य के संपर्क में आने होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास जो आकडे हैं, उसके अनुसार अभी जो संक्रमित लोग मिले, उसमें से 88 फीसदी को बुखार, 68 फीसदी को खांसी और कफ, 38 फीसदी को थकान, 18 फीसदी को सांस लेने में तकलीफ, 14 फीसदी को शरीर और सिर में दर्द, 11 फीसदी को ठंड लगना और 4 फीसदी में डायरिया के लक्षण मिले हैं।

इस वायरस का संबंध वायरस के ऐसे परिवार से है, जिसके संक्रमण से जुकाम की अवस्था में सांस लेने में तकलीफ होती है। नई बीमारी होने के कारण अभी तक इस वायरस को फैलने से रोकने वाला कोई टीका नहीं बना है । इसके लक्षण फ्लू से मिलते-जुलते हैं । संक्रमण के कारण बुखार, जुकाम, सांस लेने में तकलीफ, नाक बहना और गले में खराश जैसी समस्या उत्पन्न होती हैं । यह वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है । विश्व स्वा स्य् ह संगठन द्वारा दिये गए निर्देशों के अनुसार कम से कम 20 सेकंड तक हाथों को साबुन से धोना चाहिए । खांसते और छीकते समय नाक और मुंह रूमाल या टिश्यूव पेपर रखना चाहिए। संक्रमित व्यक्तियों से दूरी बना कर रखना चाहिए । अंडे और मांस का सेवन न करें। जंगली जानवरों से दूर रहना चाहिए । अगर किसी व्यक्ति को सुखी खांसी के साथ 100 डिग्री फ़ारेनहाइट या उससे अधिक बुखार हो, 5 दिनों के अंदर व्यक्ति को सांस लेने में समस्या हो जाये, तो वह कोरेना वायरस से संक्रमित हो सकता है।

कोरेना की महामारी से बचने के लिए गावों में लॉक डाउन का पालन नहीं हो रहा है। ऐसी तमाम सूचनाएँ प्राप्त हो रही हैं कि गावों में लोग पहले की ही तरह अपना व्यवहार जारी रखे हुए हैं। किसी पेड़ या किसी के द्वार पर एक जगह बैठना, बातें करना आम बात है। जैसे वे पुलिस को देखते हैं, तितर-बितर हो जाते हैं। जैसे ही पुलिस चली जाती है, फिर से सामान्य रूप से व्यवहार करने लगते हैं। दरअसल भारतीय गावों की जो संस्कृति और परम्पराएँ हैं, वह समूहिक और साहचर्य को अधिक महत्त्व देती हैं। लेकिन गाँव का आदमी सतर्क भी बहुत रहता है। इसलिए उसे फिर से उसे अपनी पुरानी परम्पराओं को अपनाना पड़ेगा । पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव और शहरी लोगों की नकल करने के कारण वह अपनी लाभदायक परम्पराओं और आदतों को छोड़ चुका है, लेकिन भूला नहीं है। कोरेना महामारी से बचने के लिए एक बार फिर उसे उन्हीं परम्पराओं को अपनाना होगा।

अब हम हम उन भारतीय परंपराओ और आदतों पर विचार कर लेते हैं, जो ग्रामीण लोगों के जीवन में उनकी आदत बन चुकी थी। गाँव का कोई व्यक्ति जब घर से बाहर जाता था, लौटने के बाद घर में प्रवेश करने के पहले वह मिट्टी, राख या साबुन से अपना हाथ और पैर जरूर ढोता था, फिर जब पैर सूख जाता था, तब अपने ही घर में प्रवेश करता था। जब तक वह अपने हाथ – पैर धो नहीं लेता था, अपने परिवार के बच्चों को भी अपने पास नहीं आने देता था। इसके अलावा जब कोई मेहमान या अजनवी व्यक्ति भी किसी के घर आता था, तो सबसे पहले उसे हाथ – पैर धोने के लिए पानी दिया जाता था। हाथ-पैर धोने के बाद फिर उसे घर के बाहर बरामदे में बैठने के लिए चारपाई दी जाती थी। जिस चारपाई पर वह बैठता था, उस पर नई दरी या चादर बिछाई जाती थी। और उस चारपाई पर कोई भी घर का व्यक्ति नहीं बैठता था। बल्कि परिवार के दूसरे लोग दूसरी चारपाई पर बैठ कर ही उससे बात और व्यवहार किया करते थे। खाना खिलाने के बाद उस जगह को फिर से एक विशेष प्रकार की मिट्टी से उस जगह की पुताई कर दी जाती थी। घर की रसोई में कोई भी कोई भी व्यक्ति बिना हाथ-पैर धोये प्रवेश नहीं कर सकता था। घर वालों के भी खाने की जगह अलग हुआ करती थी। जो सबके खा लेने के बाद उसकी भी लिपाई कर दी जाती थी। इसके अलावा जब – जब जरा सी भी धूल उठने लगती थी। तब-तब गाय के गोबर से घर, आँगन और बाहर तक लिपाई की जाती थी।

पहले प्लेग, चेचक जैसी महामारी फैलती थी। जिसके घर भी चेचक निकल जाती थी। पीड़ित व्यक्ति को ऐसे जगह सुलाया जाता था, जहां रोशनी कम और ठंडक ज्यादा हुआ करती थी। जिस स्थान पर उसे रखा जाता था, उसकी सुबह-दोपहर-शाम तालाब की साफ मिट्टी से उसकी पुताई की जाती थी। घर का कोई भी सदस्य जूते-चप्पल पहन कर वहाँ नहीं जा सकता था। अमूमन परिवार के सभी लोग पीड़ित व्यक्ति से दूर ही रहते थे। गाँव या बाहर का कोई भी व्यक्ति दरवाजे पर भी नहीं आता था। जिस रास्ते से ही वह गुजातता था। वहीं से हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लिया करता था। पूरा का पूरा घर व्वरंटीन हो जाता था। पीड़ित की देखभाल करने वाली औरत भी खुद की साफ-सफाई का विशेष ध्यान देती थी। सुबह-शाम अपने कपड़े बदलती थी। और उस कपड़े को साफ पानी से धुलने के बाद कड़ी धूप में सुखाया जाता था। और थोड़े ही दिनों में वह बीमारी ठीक हो जाती थी। चेचक को महामारी न मान कर गाँव के लोग उसे देवी का प्रसाद कहते थे और इसी कारण बड़े ही विनम्र और आत्मबल से उसकी सेवा करते थे। सिर्फ कुछ दिन ऐतिहात बरतने से ही बिना दवा के ही वह महामारी ठीक हो जाती थी।

आज जब पूरा विश्व कोरेना वायरस के संक्रमण से आतंकित है। उसकी कोई दवा नही है, बड़ी तेजी से वह फ़ैल रहा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में लॉक डाउन घोषित कर रखा है। लॉक डाउन घोषित हुए भी एक महीने से अधिक हो गए हैं। तमाम लोगों द्वारा कोरेना संक्रमण के गावों में फैलने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। ऐसे में गाँव वालों को लॉक डाउन की अवधि में ग्रामीण संस्कृति, सभ्यता और परंपरा के अनुसार उसका सामना करना चाहिए । गाँव वालों को अगर कोरेना महामारी से बचना है, तो उन्हें फिर से अपनी पुरानी परम्पराओं को पुनर्जीवित करना होगा। महामारी काल में एक-दूसरे के घर आना-जान बंद करना होगा। साफ-सफाई का विशेष ध्यान देना होगा। जो भी आए, सबसे पहले उसे साबुन और पानी देना होगा। जब वह ठीक से हाथ-पैर धो ले, तो उसके बाद उसे अलग चारपाई पर नई दरी या चादर बिछा कर बिठाना चाहिए। जब वह चला जाए, तो फिर से उसकी अच्छे से ढुलाई करके उसे अच्छी तरह धूप में सुखा कर रख देना चाहिए। जैसा कि पहले प्रचलन था कि मेहमानों या बाहरी लोगों के लिए एक अलग चारपाई ही हुआ करती थी। उस परंपरा को फिर से पुनर्जीवित करना होगा । अभिवादन की अपनी पुरानी शैली को फिर से अपनाना होगा। शहर वालों के संपर्क में आकर उसने जो हाथ मिलना शुरू कर दिया है। उसका त्याग करना होगा। पहले की तरह ही फिर से हाथ जोड़ कर विनम्रता प्रदर्शित करने के लिए सर झुका कर प्रणाम करना होगा। घर के अंदर नहीं, बाहर चारपाई बिछा कर उसे बिठाना होगा और उसके पहले पानी और साबुन देकर अच्छी तरह से उन्हें हाथ – पैर धोने के लिए कहना होगा। इस परंपरा का पालन सिर्फ बाहरी या मेहमानों के आने पर ही लागू नहीं करना होगा। बल्कि घर वालों की आदतों में भी इसे शुमार करना होगा। अगर गाँव के लोग भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं का पालन करने लग जाएँ, तो कोरेना का संक्रमण गावों में फैलने को कौन कहे, गाँव वालों को छू भी नही सकेगा। इसलिए सभी गाँव वालों को अपनी वैज्ञानिक परम्पराओं को फिर से पुनर्जीवित करना होगा, तभी हम कोरेना को शिकस्त दे सकेंगे ।

प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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