श्रीराम. हर बार, हर जगह उनका वैसा ही स्वागत होता है जैसा आज , टेलिविज़न पर हो रहा
प्रभु श्रीराम चौदह वर्ष के वनवास एवं वनवास अवधि के दौरान अपने कर्तव्यों के निर्वहन, अनेक चुनौतियों का मर्यादित तरीकों से सामना करके सकुशल अयोध्या लौट आये. उन्हें लौटना ही था, यदि टेलिविज़न पर पच्चीस वर्ष पूर्व लौटे थे तो इस बार क्यों नहीं लौटते?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ रामानन्द सागर के रामायण में ही लौटे! प्रत्येक वर्ष हर गांव, कस्बे, शहर की रामलीला में भी इसी सम्मान एवं मर्यादा के साथ लौटते हैं श्रीराम. हर बार, हर जगह उनका वैसा ही स्वागत होता है जैसा आज , टेलिविज़न पर हो रहा है. लाखों रामलीलाओं के भरत मिलाप के दृश्य में आज भी करोड़ों लोगों की आंखें नम होतीं हैं.
बावजूद इसके देश-दुनिया के लोग रामानन्द सागर के ऋणी हैं जिन्होंने रामायण महाकाव्य को टेलिविज़न पर्दे पर जीवित किया. एक साथ पूरे देश की निगाहें टेलिविज़न पर छोटे स्क्रीन पर टिका दी. हांलाकि पच्चीस वर्ष पूर्व और आज की परिस्थिति में एक बड़ा फर्क है तथापि पच्चीस वर्ष पूर्व जैसी तकनीक उपलब्ध थी एवं जैसी उनकी आर्थिक क्षमता थी उस लिहाज़ से उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ समर्पित किया.
मेरे लिये रामायण इसलिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि श्रीराम ने चौदह वर्ष वनवास काटा या लंका नरेश को युद्ध में पराजित किया. आम जीवन में ऐसी बहुत सी कहानियाँ हैं जिसमें जीवनपर्यन्त संघर्ष, युद्ध एवं विजय की गाथाएँ हैं किन्तु वो गाथाएँ न तो रमायण बन पायेंगी और न ही उसके संघर्ष योद्धा 'श्रीराम'
प्रभु श्रीराम अपने ऊंचे आदर्शों से पूजे जाते हैं. रामायण में सम्बन्धो के बीच जो मर्यादा स्थापित की गई वो उच्चता की पराकाष्ठा है. पुत्र एवं पिता के बीच, भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी, प्रजा- राजा के बीच जो उनके मर्यादा के प्रतिमान हैं वो पर्वत जैसे विशाल एवं आकाश जैसे अनन्त हैं. परिवार और समाज के बीच हमारा कैसा आचरण हो, भाई के प्रति कैसा त्याग हो यह सब रामायण से अनुकरणीय है लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमें वो नहीं दिखता जो हमें दिखाया या सिखाया जा रहा है क्योंकि हमें उसका अनुकरण ही नहीं करना जो वास्तव में अनुकरणीय हैं.
हमें तो वो ढूंढ कर निकालना है जो हमारी कुंठा को तृप्त करता हो. जैसे रावण की लंका जलाने वाले डायलॉग मारने वाले बहुत हैं लेकिन सिंहासन पर श्रीराम का खड़ाऊँ रखकर चौदह वर्ष एक सन्यासी की तरह राज चलाने का संकल्प उठाने वाले भरत की तरह त्याग करने की बात कोई नहीं करेगा. पिता की संपत्ति में बंटवारे के समय जरीब और फीते से एक एक इंच का हिसाब करने वाले बहुत दिखेंगे लेकिन पिता की आज्ञा पर सर्वस्व त्याग करने वाले रामभक्त ढूंढ़े से भी नहीं मिलेंगे.
कुछ लोग रावण में 'ब्राह्मण' खोज लेते हैं तो ऐसे भी लोग हैं जो श्रीराम में 'क्षत्रिय! यह दोनों खतरनाक हैं. आपको यदि पूजना हो तो आप उन्हें प्रभु श्रीराम की तरह ही पूजें, क्षत्रिय श्रीराम बनाकर नहीं. क्योंकि श्रीराम इसलिए पूज्यनीय नहीं हैं कि वो क्षत्रिय हैं बल्कि पूज्यनीय है उनका कर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए किया गया उनके द्वारा त्याग. तथा रावण अपने कर्म एवं अभिमान के कारण निंदनीय हैं..
आज यदि बहुत मोटी- मोटी किताब पढ़ने और चौपाई रटने के बाद भी हम इस संकीर्णता को नहीं छोड़ पा रहें हैं तो यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि रामायण की जो शिक्षा है इसको पढ़ने के लिए भले ही बहुत मेहनत करनी पड़े लेकिन समझने के लिए कोई मेहनत नहीं करनी. रामायण की शिक्षा एवं जीवन आदर्श समझने के दृष्टिकोण से बहुत ही सरल है किन्तु जीवन में उतारने के दृष्टिकोण से यह बहुत की कठिन तप है. आसान है.. पूंछ में आग लगाकर किसी की लंका फूंकने का स्वप्न देखना, रावण के ज्ञान की बात न करके उसके अभिमान का अनुकरण करना, कैकेयी बनना.. नामकरण भले न विभीषण रखना लेकिन जीवन पर्यन्त विभीषण की तरह ही काम करना.
जानते हैं रामायण में कठिन क्या है?
रामायण देखते समय जिन दृश्यों को देखकर आपकी आँखें नम होतीं हैं या जितनी बार आप रो देते हैं...वास्तव में जीवन में उसी को उतारना कठिन है. क्योंकि आपकी आंखे वहीं भीग जातीं हैं जहाँ त्याग और समर्पण होता है तथा वही सबसे कठिन है तथा उसी का अनुपालन सबसे कठिन है. धनुष बाण चलाना या गदा भांजना उतना कठिन नहीं जितना अपने सिर पर खड़ाऊँ रखकर चलना.
प्रभु श्रीराम फिर लौट आये..उनका लौटना इस लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं कि वो चौदह वर्ष बाद सकुशल लौटे आये. महत्वपूर्ण यह है कि समस्त मर्यादाओं का अनुपालन करके लौट आये अपने अयोध्या नगरी! किन्तु हम सब उनके साथ नहीं लौट पाये.. हम अभी भी उसी कलयुगी जंगल में विचरण कर रहें हैं.
रिवेश प्रताप सिंह