नोट बंदी: वैश्वीकरण से पीछे हटने की दिशा में

Update: 2016-11-24 11:29 GMT

भारतीय समाज की पुरानी ख़ासियत मितव्ययिता की रही है। यहाँ योग की प्रवृत्ति रही है। कबीर दास कह गए कि " साईं इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय,  मैं भी भूखा ना रहूँ साधू भूखा जाए। बर्बादी करने पर पलक से नमक उठाने तक का प्रावधान मिथकों में गहराई से जुड़ा हुआ है। महात्मा गाँधी इसी विचार पर रामराज्य प्रस्तावित करते हैं। डॉ. लोहिया खर्च की सीमा तय करने की बात करते हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी में हर दस साल में मुद्रा बदलने का सुझाव देते हैं। चार्ल्स मेटकॉफ जैसे कई अंग्रेज मानवशास्त्री भारतीय गाँवो को स्वायत्त मानते थे, अर्थात गाँव अपनी जरूरतें आपस में विनिमय से पूरा कर लेते थे। हालाँकि देश में सामाजिक-आर्थिक सम्बद्धता हमेशा से थी लेकिन आर्थिक व्यवहार सामान्यतया आस पड़ोस के क्षेत्र तक ही सीमित था। यह प्रवृत्ति सदियों तक कमोवेश हावी रही। इसमें बड़ा बदलाव आया जब नए तरीके का पूंजीवाद पनपा और दुनियाभर की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से जुड़ने लगी। भारत में भी यह वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जिसके परिणामस्वरूप यहाँ भी बड़ी तेजी से उभोक्तावाद का उभार हुआ। बाजार ने अपने हथकंडों से समाज के मनोविज्ञान प्रभावित कर दिया। बड़े मुश्किलों के बाद तो भारतीय समाज ने अपनी सोंच बदली और बँधी हुई गठरी खोली थी।

    पूँजीवाद की विशेषता है, वह नियत समय बाद मंदी का शिकार हो जाता है। वैश्वीकरण के साथ भी ऐसा ही हुआ है। इसके पुरोधा देश ही इसे नियंत्रित कर मुक्त अर्थव्यवस्था पर पुनर्विचार करने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में दुनियाभर की राजनीति भी बदल रही है और अमेरिका, रूस, भारत, फ्रांस, ब्रिटेन, बेल्जियम से लेकर लगभग दूनियाँ के सभी भूभाग में दक्षिणपंथ  और राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है। यह राष्ट्रवाद बुनियादपरस्ती और धार्मिक कट्टरता तक पहुँच रहा है।लोकतंत्र के अभाव वाले देशों में तो बड़े पैमाने पर मारकाट मची हुई है। ऐसी स्थिति में सभी देश व्यापार आदि में स्वायत्तता की और बढ़ रहे हैं। भारत का इस वित्तीय वर्ष का बजट इसी दिशा में था,जो बचत और आधारभूत संरचना को बढ़ाने पर जोर देती है। कालाधन पैदा होने से रोकने की दिशा में लगातार हो रहे प्रयास और नोट बंदी ने इसे

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