जेएनयू के हालिया घटनाक्रम ने छात्रों-नौजवानों के संघर्ष क्षमता और आंदोलनकारी रवैये से आज़ाद भारत के प्रखर मौलिक चिंतक लोहिया की याद दिला दी।आज जब लोहिया जयंती पर उनके विचार और व्यक्तित्व की याद की जा रही है।ऐसे में उनके युवाओं के प्रति दृष्टिकोण को जानना और समझना बेहद प्रासंगिक और सामयिक जान पड़ता है।
साठ का दशक भारतीय राजनीति के दैदप्यमान नक्षत्र नेहरू के आभामंडल का दौर था।उनको किसी भी क्षेत्र में चुनौती देने वाले व्यक्तित्व की कल्पना करना भी सहज नही लगता था।ऐसे में लोहिया ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों-नौजवानों के बल बूते नेहरू के माथे पर बल ला दिया। यूँ तो प्रयाग नेहरू का गृहक्षेत्र था, लेकिन लोहिया ने अपनी नेतृत्व क्षमता से लगातार इलाहाबाद यूनिवर्सिटी यूनियन को पूरे दशक छात्र संघ अध्यक्ष दिया। उन्होंने लोहिया और युवजन के माध्यम से पूरे देश के नौजवानों के सवालों को सत्ता केंद्र के विमर्श में ला दिया।1964 में तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष बृजभूषण तिवारी के अध्यक्ष पद के उदघाटन भाषण में लोकतंत्र में युवाओं के अधिकार और कर्तव्य की लंबी मीमांसा प्रस्तुत किया।इतना ही नही 21 जनवरी 1965 को बृजभूषण तिवारी को विद्यार्थी और राजनीति शीर्षक से संबोधित पत्र के माध्यम से समूचे देश की बदहाली और चुनौतियों को दूर करने के लिए छात्रों का आहवाहन भी किया।जिसका असर 1966 के संसद घेराव मार्च में दिखाई दिया।जिसमें राष्ट्रीय स्तर के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों के छात्रों एवं युवा नेतृत्व ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।
थोड़ा अतीत में जाने पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लोहिया ने आज़ाद रेडियो के माध्यम से जो अलख जगाई,उसने उनको नौजवानों के बीच रातों-रात हीरो बना दिया।देश की स्वतंत्रता के बाद व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाजवादी आंदोलन को लंबे समय तक उनके विचारों से प्रभाव में आये नेतृत्व ने और भी मजबूत किया। देश-समाज के सभी मसलों पर जैसी समझ और दूरदर्शिता उनमें थी वैसी अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। डॉ लोहिया का पक्का विश्वास था कि भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व राजनीति की यात्रा एक करवट से नही की जा सकती।नया नेतृत्व और नए लोगों को इसमें शामिल होना पड़ेगा।तभी समता और सम्पन्नता का सपना पूरा हो सकता है।
इस समय पूरे देश में विश्वविद्यालय कई वजहों से चर्चा के केंद्र में हैं।हैदराबाद में फेलोशिप और उत्पीड़न की वजह से एक छात्र की आत्महत्या, जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने का प्रसंग सहित यूजीसी और मौलाना आज़ाद फेलोशिप के कम एवं बंद करने जैसे प्रसंग के बीच छात्र संघो की अनिवार्यता के साथ उनके औचित्य पर सार्थक बहस का कार्य नही हो पा रहा है।जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आज़ादी पर ओपन लेक्चर का आयोजन हो रहा है,लेकिन उस पर एक खास विचारधारा के पर्याप्त दखल की वजह से सभी पक्ष की बात खुल कर नही आ पा रही है।ऐसे में लोहिया के विद्यार्थी और राजनीति सहित 1966 का विद्यार्थी मार्च जिसका विषय छात्र मार्च: लज्जा,भय किन्तु आत्मविश्वास भी जैसे लेख पढ़ने और वितरित करने चाहिये।
लोहिया की जो समझ विकसित हुयी थी,उसका एक बड़ा हिस्सा पूरे देश सहित वैश्विक दुनिया की यात्राओं एवं आम जनता से हुए विमर्श का प्रतिफल था।उन्होंने भाषा नीति, अर्थ नीति, पूर्वोत्तर -कश्मीर,चीन, भारत-पाक महासंघ,जाति, धर्म,साहित्य,ललित कला जैसे समाज के लिए जरुरी लगभग सभी विषयों पर बेबाकी और स्पष्टता के साथ लिखा है।लेकिन अफ़सोस लोहिया पर जितनी अकादमिक बहस होनी चाहिए थी।उसका आभाव निरंतर बना हुआ है।हालांकि पिछले वर्ष के अंत में मध्यप्रदेश के ग्वालियर में एक प्राइवेट विश्वविद्यालय में लोहिया के विचारों से जुड़े देश दुनिया के प्रमुख महानुभावों को एक जगह बुलाने और सार्थक संवाद कराने का सफल प्रयास हुआ था।उक्त आयोजन में देश के अकादमिक जगत के शीर्षस्थ एवं लोहिया के दौर में ही सिविल सेवा अधिकारी,वर्तमान में भारत गणराज्य के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने लोहिया को समझने एवं उनके व्यक्तित्व को राजनीति से इतर समझने के जो शुरुआती बिंदु का विमर्श दिया।उसकी समाज को अधिक जरुरत है।
देश बीमार होता दिख रहा है, जो लोग सत्ता पर भ्रामक सपनों के बलबूते काबिज हुए हैं।वो लगातार अपने हल्के प्रतीकों को मजबूत करने और भारतीय जन मानस में रचे बसे प्रतीक सहित प्रतीक पुरुषों को लेकर भ्रम एवं अगम्भीर बर्ताव कर रहे हैं।साम्प्रदायिकता,आरक्षण जैसे मसलों पर झूठे शिगूफे से देश में एक टूटन पैदा करने की भी कोशिशे जारी है।
देश को समाजवादी धारा के लोगों की बड़ी जरुरत है।बीते कई दशकों से तमाम असहमतियों के बाद भी विकट परिस्थितियों में समाजवादी विचार परंपरा के लोगों ने ही मजबूती से संभाला है।आने वाले दिनों में कई प्रमुख और बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने तय है।फासीवादी ताकतें यहाँ के अमन चैन बिगाड़ने का कुत्सित प्रयास करती भी दिख रही है।भारतीय समाज बहुलतावादी है।यही हमारी खूबी है।गंगा जमुनी तहज़ीब को बचाने और संवारने की जिम्मेदारी सभी की है।दरअसल लोहिया को याद करने और उनके विषय में बात करने से यही सब बिंदु विचार पटल पर आते रहेंगे।इस प्रयास को मजबूत करने में युवा नेतृत्व की जरुरत अधिक होगी।ऐसे में देश के सबसे बड़े सूबे और लोहिया की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश को केंद्र में लाते हुए राष्ट्रीय बहस की धार को तेज करना होगा।
उत्तर प्रदेश में बीते दशक में युवा नेतृत्व के संकट को दूर करने में वर्तमान मुखिया अखिलेश यादव सफल होते दिख रहे है।उनकी सत्ताधारी पार्टी समाजवादी पार्टी ने लोहिया के नाम और छवि को पार्टी फोरम सहित सभी संभव मंचो पर मजबूत करने का जो प्रयास किया उसकी सराहना होनी चाहिए।राजनीति बदली है,काजल की कोठरी वाले इस घर में बेदाग़ बने रहना अखिलेश यादव पर कहीं न कहीं लोहिया के असर को ही दिखलाता है।हालिया विधान परिषद् सहित स्थानीय पंचायत चुनावों में एक मजबूत युवा नेतृत्व को उभारने का काम यूपी के मुखिया ने किया है।यह लोहिया और युवजन को प्रासंगिक और सशक्त करने की दिशा में प्रभावी कदम जान पड़ता है।
लेकिन लोहिया को सम्पूर्णता में जानने और उनके बताये रास्ते पर चलते हुए आचरण-व्यवहार में समाजवादी परम्परा एवं मर्यादा के निर्वहन की कमी सामाजिक और राजनैतिक जीवन में बखूबी दिखाई पड़ रही है।पूँजी के अतिरिक्त दबाव ने राजनीतिक संस्कार को दूषित किया है।अवसरवाद,सिद्धांतहीनता,वैचारिकता का अभाव जैसे संकट बरकरार हैं।लोहिया की परम्परा की अनुगामी राजनैतिक दलों को इस आसन्न संकट को कम करने की दिशा में ठोस काम करते रहना चाहिए।युवाओं को वैचारिक रूप से मजबूत करते हुए समाजवादी सोच के साथ काम करने से ही वर्तमान नेतृत्व लोहिया को उनके समाज के प्रति किये गए कार्यो के लिए ही सच्ची श्रधांजलि होगी।
मणेन्द्र मिश्रा 'मशाल'
साठ का दशक भारतीय राजनीति के दैदप्यमान नक्षत्र नेहरू के आभामंडल का दौर था।उनको किसी भी क्षेत्र में चुनौती देने वाले व्यक्तित्व की कल्पना करना भी सहज नही लगता था।ऐसे में लोहिया ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों-नौजवानों के बल बूते नेहरू के माथे पर बल ला दिया। यूँ तो प्रयाग नेहरू का गृहक्षेत्र था, लेकिन लोहिया ने अपनी नेतृत्व क्षमता से लगातार इलाहाबाद यूनिवर्सिटी यूनियन को पूरे दशक छात्र संघ अध्यक्ष दिया। उन्होंने लोहिया और युवजन के माध्यम से पूरे देश के नौजवानों के सवालों को सत्ता केंद्र के विमर्श में ला दिया।1964 में तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष बृजभूषण तिवारी के अध्यक्ष पद के उदघाटन भाषण में लोकतंत्र में युवाओं के अधिकार और कर्तव्य की लंबी मीमांसा प्रस्तुत किया।इतना ही नही 21 जनवरी 1965 को बृजभूषण तिवारी को विद्यार्थी और राजनीति शीर्षक से संबोधित पत्र के माध्यम से समूचे देश की बदहाली और चुनौतियों को दूर करने के लिए छात्रों का आहवाहन भी किया।जिसका असर 1966 के संसद घेराव मार्च में दिखाई दिया।जिसमें राष्ट्रीय स्तर के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों के छात्रों एवं युवा नेतृत्व ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।
थोड़ा अतीत में जाने पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लोहिया ने आज़ाद रेडियो के माध्यम से जो अलख जगाई,उसने उनको नौजवानों के बीच रातों-रात हीरो बना दिया।देश की स्वतंत्रता के बाद व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाजवादी आंदोलन को लंबे समय तक उनके विचारों से प्रभाव में आये नेतृत्व ने और भी मजबूत किया। देश-समाज के सभी मसलों पर जैसी समझ और दूरदर्शिता उनमें थी वैसी अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। डॉ लोहिया का पक्का विश्वास था कि भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व राजनीति की यात्रा एक करवट से नही की जा सकती।नया नेतृत्व और नए लोगों को इसमें शामिल होना पड़ेगा।तभी समता और सम्पन्नता का सपना पूरा हो सकता है।
इस समय पूरे देश में विश्वविद्यालय कई वजहों से चर्चा के केंद्र में हैं।हैदराबाद में फेलोशिप और उत्पीड़न की वजह से एक छात्र की आत्महत्या, जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने का प्रसंग सहित यूजीसी और मौलाना आज़ाद फेलोशिप के कम एवं बंद करने जैसे प्रसंग के बीच छात्र संघो की अनिवार्यता के साथ उनके औचित्य पर सार्थक बहस का कार्य नही हो पा रहा है।जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आज़ादी पर ओपन लेक्चर का आयोजन हो रहा है,लेकिन उस पर एक खास विचारधारा के पर्याप्त दखल की वजह से सभी पक्ष की बात खुल कर नही आ पा रही है।ऐसे में लोहिया के विद्यार्थी और राजनीति सहित 1966 का विद्यार्थी मार्च जिसका विषय छात्र मार्च: लज्जा,भय किन्तु आत्मविश्वास भी जैसे लेख पढ़ने और वितरित करने चाहिये।
लोहिया की जो समझ विकसित हुयी थी,उसका एक बड़ा हिस्सा पूरे देश सहित वैश्विक दुनिया की यात्राओं एवं आम जनता से हुए विमर्श का प्रतिफल था।उन्होंने भाषा नीति, अर्थ नीति, पूर्वोत्तर -कश्मीर,चीन, भारत-पाक महासंघ,जाति, धर्म,साहित्य,ललित कला जैसे समाज के लिए जरुरी लगभग सभी विषयों पर बेबाकी और स्पष्टता के साथ लिखा है।लेकिन अफ़सोस लोहिया पर जितनी अकादमिक बहस होनी चाहिए थी।उसका आभाव निरंतर बना हुआ है।हालांकि पिछले वर्ष के अंत में मध्यप्रदेश के ग्वालियर में एक प्राइवेट विश्वविद्यालय में लोहिया के विचारों से जुड़े देश दुनिया के प्रमुख महानुभावों को एक जगह बुलाने और सार्थक संवाद कराने का सफल प्रयास हुआ था।उक्त आयोजन में देश के अकादमिक जगत के शीर्षस्थ एवं लोहिया के दौर में ही सिविल सेवा अधिकारी,वर्तमान में भारत गणराज्य के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने लोहिया को समझने एवं उनके व्यक्तित्व को राजनीति से इतर समझने के जो शुरुआती बिंदु का विमर्श दिया।उसकी समाज को अधिक जरुरत है।
देश बीमार होता दिख रहा है, जो लोग सत्ता पर भ्रामक सपनों के बलबूते काबिज हुए हैं।वो लगातार अपने हल्के प्रतीकों को मजबूत करने और भारतीय जन मानस में रचे बसे प्रतीक सहित प्रतीक पुरुषों को लेकर भ्रम एवं अगम्भीर बर्ताव कर रहे हैं।साम्प्रदायिकता,आरक्षण जैसे मसलों पर झूठे शिगूफे से देश में एक टूटन पैदा करने की भी कोशिशे जारी है।
देश को समाजवादी धारा के लोगों की बड़ी जरुरत है।बीते कई दशकों से तमाम असहमतियों के बाद भी विकट परिस्थितियों में समाजवादी विचार परंपरा के लोगों ने ही मजबूती से संभाला है।आने वाले दिनों में कई प्रमुख और बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने तय है।फासीवादी ताकतें यहाँ के अमन चैन बिगाड़ने का कुत्सित प्रयास करती भी दिख रही है।भारतीय समाज बहुलतावादी है।यही हमारी खूबी है।गंगा जमुनी तहज़ीब को बचाने और संवारने की जिम्मेदारी सभी की है।दरअसल लोहिया को याद करने और उनके विषय में बात करने से यही सब बिंदु विचार पटल पर आते रहेंगे।इस प्रयास को मजबूत करने में युवा नेतृत्व की जरुरत अधिक होगी।ऐसे में देश के सबसे बड़े सूबे और लोहिया की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश को केंद्र में लाते हुए राष्ट्रीय बहस की धार को तेज करना होगा।
उत्तर प्रदेश में बीते दशक में युवा नेतृत्व के संकट को दूर करने में वर्तमान मुखिया अखिलेश यादव सफल होते दिख रहे है।उनकी सत्ताधारी पार्टी समाजवादी पार्टी ने लोहिया के नाम और छवि को पार्टी फोरम सहित सभी संभव मंचो पर मजबूत करने का जो प्रयास किया उसकी सराहना होनी चाहिए।राजनीति बदली है,काजल की कोठरी वाले इस घर में बेदाग़ बने रहना अखिलेश यादव पर कहीं न कहीं लोहिया के असर को ही दिखलाता है।हालिया विधान परिषद् सहित स्थानीय पंचायत चुनावों में एक मजबूत युवा नेतृत्व को उभारने का काम यूपी के मुखिया ने किया है।यह लोहिया और युवजन को प्रासंगिक और सशक्त करने की दिशा में प्रभावी कदम जान पड़ता है।
लेकिन लोहिया को सम्पूर्णता में जानने और उनके बताये रास्ते पर चलते हुए आचरण-व्यवहार में समाजवादी परम्परा एवं मर्यादा के निर्वहन की कमी सामाजिक और राजनैतिक जीवन में बखूबी दिखाई पड़ रही है।पूँजी के अतिरिक्त दबाव ने राजनीतिक संस्कार को दूषित किया है।अवसरवाद,सिद्धांतहीनता,वैचारिकता का अभाव जैसे संकट बरकरार हैं।लोहिया की परम्परा की अनुगामी राजनैतिक दलों को इस आसन्न संकट को कम करने की दिशा में ठोस काम करते रहना चाहिए।युवाओं को वैचारिक रूप से मजबूत करते हुए समाजवादी सोच के साथ काम करने से ही वर्तमान नेतृत्व लोहिया को उनके समाज के प्रति किये गए कार्यो के लिए ही सच्ची श्रधांजलि होगी।
मणेन्द्र मिश्रा 'मशाल'