महात्मा गाँधी का जन्म गुजरात के पोरबंदर में हुआ था जहाँ के दीवान (अर्थात् प्रधान मन्त्री) महात्मा गाँधी के पिता करमचन्द गान्धी थे, गाँधी जी की माँ पुतली बाई करमचन्द गाँधी की चौथी पत्नी थी, उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के वक़्त गुजर गयीं थीं, पुतलीबाई वैश्य समुदाय से पूजा पाठ करने वाली महिला थी, उनके देख रेख में गाँधी जी का लालन पालन हुआ, जैन बहुल छेत्र होने के कारण अहिंसा का प्रभाव गाँधी जी पर बचपन से ही पड़ा, साढे 13 साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा माखनजी से कर दिया गया, 15 वर्ष के उम्र में इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही, इसी साल उनके पिता करमचन्द गाँधी का भी देहांत हो गया, बाद में मोहनदास और कस्तूरबा गाँधी से चार सन्ताने हुईं जो सभी पुत्र थे। गाँधी अपने आयु के 19वें बर्ष में 4 सितम्बर 1888 को लन्दन में कानून की पढाई करने के लिये इंग्लैंड चले गये, इंग्लैण्ड में गाँधी जी को कई नये अनुभव हुए, पढाई कर वे फिर भारत लौट आये और मुंबई में वकालत की शुरुवात की लेकिन उसमे वे असफल रहे, एक बार हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को अपना स्थायी मुकाम बना लिया,
फिर उन्होंने सन् 1893 में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया और अफ्रीका आ गयें । दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बिरोध में दो अंग्रेज अधिकारियों को जुलू जनजातियों द्वारा मार डाला गया, बदले में अंग्रेजों ने “जूलू” के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया । गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया । उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए । हालाँकि अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर दिया था, इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते हैं, और इस कोर की बागडोर गांधी ने खुद थामी ।
1915 में, गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आएं और फिर कांग्रेस से जुड़े, धार्मिक खिलाफत आन्दोलन के साथ जब उन्होंने अपने असहयोग आन्दोलन को मिला दिया तब उनकी खूब आलोचना हुई तब उन्होंने कहा की मैं खिलाफत आन्दोलन में साथ देकर मुसलमानी छुरी से हिन्दू गायों को बचाने का प्रबंध किया हूँ, 1938 में गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषचन्द्र बोस को चुना मगर उन्हें सुभाष बाबु की कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी । द्वितीय विश्व युद्ध में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया, सुभाष बाबु चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये, उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे, बढ़ते मतभेदों के बिच गांघी जी सुभाष बाबु को अब अध्यक्ष के रूप में नहीं देखना चाहते थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गाँधी जी को खत लिखकर सुभाष बाबु को ही अध्यक्ष बनाये रखने की विनती की, प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष बाबु को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे, लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी, कोई समझौता न हो पाने पर पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ, सब को लगता था की चुकी गाँधी जी ने सीतारमैय्या का साथ दिया हैं इसलिये वे आसानी से जीत जायेंगे । लेकिन चुनाव में सुभाष बाबु को 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले, गाँधी जी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 मतों जीत गये। मगर बात खत्म यही नहीं हुई गाँधी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताया, परिणामस्वरूप कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया, अकेले शरदबाबू नेताजी के साथ रहे । नेताजी ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गान्धीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न सुनी । परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष बाबु कुछ काम ही न कर पाये, आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, बाद में उन्ही सुभाष बाबु ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गान्धी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया, आज़ादी मिलने के बाद जब भावी प्रधानमंत्री के लिये कांग्रेस में मतदान हुआ तो सरदार पटेल को सर्वाधिक मत मिले। उसके बाद आचार्य कृपलानी को मत मिले, किन्तु गांधीजी के कहने पर सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया और जवाहर लाल नेहरू को देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया ।
गाँधी जी के चार पुत्र थे हरीलाल गाँधी, मणिलाल गाँधी, रामदास गाँधी और देवदास गांधी, जिसमे उनके पहले पुत्र हरिलाल से उनके सम्बन्ध हमेशा ही ख़राब रहे ,एक वक्त तो गाँधी जी के बिरोध स्वरुप हरिलाल ने इस्लाम धर्म अपना लिया परन्तु कुछ समय पश्चात् पुनः हिन्दू धर्म में वापस लौट आये, हरिलाल अपने पिता के अंतिम संस्कार में बहुत ही ख़राब हालत में, संभवतया नशे में चूर होकर पहुंचे। अपनी ज़िन्दगी के आखरी वक्त के दौरान वे प्रायः नशे में ही चूर रहे, गाँधी जी के बाकि पुत्रो के बारे में कम ही जानकारियाँ सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है,
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