मुंबई स्थित बाम्बे हाईकोर्ट ने अपने एक हालिया निर्णय में किराए की कोख लेकर (सेरोगेसी) माँ बनने वाली महिलाओं को भी छह महीने का मातृत्व अवकाश लेने का हकदार बताया| कोर्ट के मुताबिक सेरोगेसी करने वाली महिला भी शिशु के लालन-पोषण की ज़िम्मेदारी किसी और को नहीं दे सकती| यह निर्णय इस दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसे मामलों की संख्या लगातार बढ़ेगी| भारतीय समाज बदलाव के बड़े निर्णायक और अनियमित दौर से गुजर रहा है, जहां तमाम पुरानी संस्थाएं और रीति रिवाज अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं या फिर उन्हे समाज नए से परिभाषित और स्वीकार कर रहा है| महाभारतकालीन नियोग और गर्भ प्रत्यारोपण प्रथा आज फिर से प्रासंगिक हो रही है,जिसे हाल तक का सभ्य समाज वर्जित मानता था| कोई भी सामाजिक प्रतिमान या मूल्य समय और समाज के सापेक्ष होता है और उसके बदलाव के साथ संबन्धित विचार प्रासंगिक अथवा गैर प्रासंगिक हो जाते हैं| भारतीय समाज भी इसका अपवाद नहीं है| सेरोगेसी ऐसा ही एक मुद्दा है, जिसे समाज में लगातार स्वीकृति मिल रही है| यह स्वीकृति अनायास नहीं बल्कि जैविकीय समस्याओं के दबाव का परिणाम है| उदाहरण भी मौजूद है कि जब महाभारतकालीन कुरु साम्राज्य पर वंशविहीन होने का संकट खड़ा होता है, तब आज़ के विक्की डोनर की तरह महर्षि वेदव्यास से राजपरिवार की बहुएँ सहायता लेती हैं|आज़ पुनः यह परिघटना कानून और धीरे-धीरे समाज द्वारा मान्यता पा रही है| सोरोगेट टूरिज़्म की नई अवधारणा सामने आ गई है| कारण बहुत स्पष्ट है, दुनिया भर में परिवार नियोजन पर बहुत ध्यान दिया जाता है, लेकिन बंध्यापन का समाधान बहुत कम है| आज़ दुखद वैज्ञानिक सच्चाई है कि अनेकों उत्कट तनाव एवं पर्यावरण प्रदूषण के बीच जीने वाले बहुत से युवा जोड़े सफल सहवास क्षमता के बावजूद संतान उत्पादन में असमर्थ होते जा रहे हैं| लिहाज़ा उनकी कामना पूर्ति के लिए असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्निक नाम की तकनीकी से लैस फ़र्टिलिटी क्लीनिकों का इन दिनों भारत समेत दुनिया भर में विस्तार हो चला है|
तकनीकी उन्नति से अस्तित्व में आई इस नई प्रथा से कई समस्याओं और रिश्तों की जटिलता भी सामने आ रही है क्योंकि बहुत स्पष्ट तथ्य है, कि रिश्ते सामाजिक होते हैं जैविकीय नहीं| किराए की माँ का तात्पर्य किराए पर लिए जाने वाले गर्भाशय से है, गर्भ से नहीं| गर्भ किराए पर नहीं मिलता| यदि पति-पत्नी दोनों सक्षम हैं तो पुरुष का शुक्राणु(स्पर्म) और स्त्री बीज(ओवम) को किराए के गर्भाशय में स्थापित कर दिया जाता है| यह प्रविधि धीरे-धीरे विकृत हो रही है| बात अब किराए के कोख से आगे बढ़ रही है, जो तमाम समस्याओं को जन्म देने वाली है| मुनाफ़े के खेल ने बाजार में सारे विकल्प खोल रखे हैं| गर्भाशय में विकृति के साथ अगर ओवरी में स्त्री बीज भी नहीं है तो ओवेम भी किराए की कोख वाली महिला(सोरोगेट) का ही ले लिया जाता है, जिसे पति के शुक्राणु से फर्टिलाइज कर दिया जाएगा| इसके लिए सोरोगेट महिला के पति की स्वीकृति भी जरूरी हो जाएगी क्योंकि अब एक प्रकार से महिला गर्भ भी किराए पर दे रही है| इस प्रकार वह सेरोगेट माँ की जगह सेरोगेट पत्नी की भूमिका में आ गई| यह स्थिति तब भी हो सकती है जब पति अक्षम है, तो किराए की कोख में पत्नी के अनुबंध से उसके स्त्री बीज को किसी अन्य के स्पर्म से फर्टिलाइज़ किया जाय| अर्थात, एक प्रकार से महाभारतकालीन नियोग प्रथा क्योंकि वहाँ भी उल्लेख शारीरिक सम्बंध का नहीं सिर्फ दृष्टि का आया था|
यह तब भी कुलीन वर्गों का खेल था, आज़ भी अमीरों की शुरुवात है| भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग के 2012 में जारी एक अध्ययन के मुताबिक लगभग 3000 प्रजनन क्लीनिक हैं, लेकिन इनमें 39 ही आइ.सी.एम.आर. से पंजीकृत हैं| देशभर में आईवीएफ क्लीनिकों की बाढ़ आ गई है, जहां टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा किए जाते हैं| ये क्लीनिक पाँच सितरा सुविधाएं और अनुबंध संबंधी पूरी ज़िम्मेदारी उठाते हैं| इस संबंध में कानून भी बहुत स्पष्ट नहीं है| सेरोगेसी लाज इंडिया के प्रमुख व वकील अनुराग चावला के मुताबिक कई आईवीएफ़ क्लीनिक अपने क़ायदे कानून बनाते हैं और वहाँ मौजूदा दिशा निर्देशों का मखौल उड़ाया जाता है| आज न सिर्फ़ भारत बल्कि अमेरिका, इस्रायल, आस्ट्रेलिया और जापान के जोड़े भी भारत और नेपाल की तरफ सेरोगेसी के लिए रुख कर रहे हैं| शाहरुख और उनकी पत्नी गौरी का तीसरा बेटा, आमिर और किरण राव का बेटा, आस्कर विजेता अभिनेत्री निकोल किड़मैन की फेद नामक बेटी और सुहेल खान सीमा सचदेव के बेटे इसी सेरोगेसी प्रणाली के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं| किराए की कोख का मामला तो लगभग सामाजिक स्वीकृति पा चुका है लेकिन स्त्री बीज या पुरुष शुक्राणु को भी दान लेकर सेरोगेसी कराना गोपनीयता का ही विषय है| गोपनीयता और लालची डाक्टरों के वजह से ही कई घटनाएँ सामने आ रही हैं, जब बच्चे का डीएनए न मिलने पर उसे स्वीकार नहीं किया जाता| मुंबई के झोपड़पट्टी में रहने वाली सुषमा नामक एक नाबालिक लड़की का केस सामने आया था, जिसके माता –पिता पैसे की लालच में उसका ओवेम बेंच रहे थे| कमाई के लालच और डॉक्टर की लापरवाही से हुए संक्रमण से उसकी मौत हो जाती है|
किराए की कोख देने वाली महिला अक्सर गरीब होती है और क्लीनिक वाले उसका जमकर शोषण करते हैं| एक ख़तरा और संभावित हो सकता है, जब सक्षम महिलाएं भी प्रसव के समय और पीड़ा से बचने के लिए सेरोगेसी का दुरुपयोग करना शुरू कर देंगी| इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं ही होंगी जो पहले से भी दो-तीन बार प्रजनन कर चुकी होंगी और आर्थिक मजबूरियों से इसका शिकार बनेंगी| ये घटनाएँ आगामी दशक तक बड़ी तेजी से बढ़ने वाली हैं| ऐसी स्थिति में रिश्तों का नया स्वरूप उभरेगा जिसमें तमाम अंतर्विरोध होंगे| इन सबके बीच सेरोगेट महिला की मनः स्थिति का भी ध्यान देना होगा, जिसके मातृत्व को निहित स्वार्थों में पेशेवर बनाने का प्रयास हो रहा है| इस दौरान होने वाली लापरवाही भी चिंता का विषय है, क्योंकि डाक्टरों का सारा ध्यान बच्चे पर ही होता जिसे सुरक्षित करने में महिला को सिजेरियन तक ले जाया जाता है| इसका एक विकल्प हो सकता है, कि जिस प्रकार माँ को सेरोगेट बनने का अधिकार है, उसी प्रकार उसे अनुबंध के तहत बच्चा दान देने का अधिकार भी हो| इससे अनचाहे गर्भ की हत्या के अपराधबोध से बचा जा सकता और उसे किसी अनाथालय में छोड़ने की घटनाएँ भी कम हो सकती हैं, लेकिन शायद जैविकीय पूर्वाग्रह के कारण अभी यह संभव नहीं है|