आत्महत्या को व्यापक सामाजिक-आर्थिक नजरिए से देखने की जरूरत -डॉ. मनीष पाण्डेय
हैदराबाद विश्वविद्यालय में अध्ययनरत एक शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने देश की शिक्षा व्यवस्था की असफलता को सामने ला दिया है| इसी बहाने आत्महत्या पर चर्चा ने इस मायने में ज़ोर पकड़ लिया है कि कुछ वैचारिक एवं राजनीतिक समूह ने खास इस घटना के लिए व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हुए एक हत्या करार दिया है| थ्री ईडियट फिल्म में इंजीनियरिंग छात्र की आत्महत्या पर रैंचो कहता है, यह आत्महत्या नहीं हत्या है क्योंकि प्रेशर गले पर नहीं दिमाग पर था| यह प्रेशर किसी अन्तः चेतना नहीं बल्कि आज की सामाजिक-आर्थिक संरचना ने पैदा किया है| वास्तव में कोई भी आत्महत्या शून्य में नहीं होती, उसके पीछे हमेशा से सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारकों की भूमिका रही है| आत्महत्या एक विचलनकारी घटना है जिसे मनोवैज्ञानिक साँचे में देखा जाता है| संभवतः पहली बार फ्रांसीसी समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम ने आत्महत्या के सिद्धान्त में इसके लिए समाज को उत्तरदायी माना और बृहद आंकड़ों के आधार पर विभिन्न समूहों ,धर्मों और क्षेत्रों आदि में आत्महत्या की विशिष्ट प्रवृत्तियों का उल्लेख किया| इसमें उन्होने कहा कि मनोविज्ञान से आत्महत्या की व्याख्या संभव नही क्योंकि मानव व्यवहार असल में समाज द्वारा गढ़ा होता है| इसमें आत्महत्या के सामाजिक कारणों का विधिवत वर्णन किया ताकि सरकारें आत्महत्या की दर को कम कर सकें| इस सिद्धान्त में आत्महत्या के चार प्रकार परार्थवादी, अहंवादी, एनोमिक और फटालिस्टिक की चर्चा की, जो सामाजिक या नैतिक विनियमन और सामाजिक एकीकरण की मात्रा के आधार पर परिगणित है और इनमें लगातार एनोमिक प्रकार की आत्महत्या बढ़ रही है|
भारत में आत्महत्या के आंकड़ें भयावह हैं| यहाँ प्रत्येक घंटे 15 लोग आत्महत्या करते हैं और इस आधार पर 2014 में ही लगभग 1.31 लाख लोगों ने अपने जीवन को समाप्त कर लिया| इस मामले में महाराष्ट्र राज्यों और चेन्नई नगरों में शीर्ष पर है| नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2014 मे आत्महत्या करने वाले 69.7 प्रतिशत की वार्षिक आय एक लाख से कम थी और 6 में से एक घरेलू महिला है| आत्महत्या के बहुत सारे कारण हैं इनमें पारिवारिक समस्या, बीमारी, वैवाहिक मुद्दे, मानसिक बीमारी, प्रेम में असफलता, ड्रूग, बेरोजगारी,गरीबी, संपत्ति बटवारे, ऋणग्रस्तता, परीक्षा में असफलता, दहेज आदि क्रमश: सरकारी आंकड़ों में महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सामाजिक प्रतिष्ठा के क्षरण, प्रिय की मृत्यु, रिश्तों में अविश्वास, नपुंसकता, तलाक, अंतरवैवाहिक संबंध व अन्य अन्य कारक भी अपनी संख्या में वृद्धि कर रहे है| बात यहीं तक सीमित नहीं है, बहुत सारे और भी कारक हैं, जैसे अभी कोटा में प्रतियोगी परीक्षार्थियों की आत्महत्या भी चिंता का सबब बनी हुई है| यहाँ जून 2015 तक 11 और 2014 में 14 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं| किसानों की हत्या के अलग आंकड़े है, जहां 1995 से 2011 के बीच 6 लाख 50 हजार 860 आत्महत्या हो चुकी है|
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ये आत्महत्याएं समाज और राज्य दोनों को असफलता का आईना दिखा रही हैं| अकाल मौत के कारणों में आत्महत्या ऐसी घटना है,जिसे सरकारें नियंत्रित कर सकती हैं,परंतु वैश्वीकरण के अंधानुकरण में फंसी नव-उदारीकृत अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक एवं पारिवारिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है,जिसे संभालने में व्यक्ति और संस्थाएं दोनों असफल हैं| आंकड़ों के मकड़जाल से इसे बाहर निकालकर देखना होगा|ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ मानसिक कमजोरी या आर्थिक वजहों से कर रहे हैं| दरअसल आज का व्यक्ति अपेक्षाओं और सापेक्षिक अभावग्रस्तता की मन:स्थिति के बोझ तले दबकर अकेला हो गया है| इसे दुर्खीम की अतिशय वैयक्तिकता में देखा जा सकता है, जहां व्यक्ति समाज से कट जाता है| मार्क्स की भाषा में आर्थिक शोषण के दौरान होने वाले अलगाव(एलिनेशन) में भी इसे देखा जा सकता है| ऐसा अलगावीकृत और अतिशय वैयक्तिक हो चुका व्यक्ति अपना जीवन निरर्थक समझने लगता है| इन सिद्धांतों की बाते तब की हैं जब औद्योगीकरण के कारण सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संरचना में उथल-पुथल की शुरुवात हुई थी| नई सामाजिक समस्याएँ खड़ी हो रही थी,उन्हे नए ढंग से परिभाषित किया जा रहा था| तभी समाजशास्त्र का भी एक विषय के रूप में जन्म हुआ| आज बदलाव अपने चरम पर है| उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों ने ऐसा आर्थिक माहौल पैदा कर दिया है जिसने मानव जीवन और संस्थाओं को हिलाकर रख दिया है, जिसे समझने से पहले ही नए परिवर्तन सामने खड़े हो जाते हैं| आज लोग खुद का वैश्विक जुड़ाव महसूस कर सकते हैं लेकिन हकीकत में अकेले हैं| परिवार, मित्र, विवाह, संगी-साथी, स्कूल आदि ताकतवर संस्थाएं तक आत्महत्या रोकने में असफल हो रही हैं| युवा, विद्यार्थी, नवविवाहित, किसान, कारपोरेट में काम करते युवा समेत बच्चे तक में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ी है और दुखद है कि ये सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा भी नहीं बन पा रहीं| हमारा समाज आज भी आत्महत्या को व्यक्तिगत और मनोवृत्तिगत कमजोरी ही समझता है|
कभी भारतीय समाज में बड़ा मजबूत रहा नातेदारी और परिवार का ताना बाना आज जीवन जीने के धैर्य और अदम्य साहस को कायम रखने में असफल हो रहा है, जबकि विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहने और संयम का हुनर भारतीयों के स्वभाव में है और इसी वजह से यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता सदियों से कायम रही है| 1990 के बाद से इस देश में नई आर्थिक नीतियों और संचार के साये में हुए तीव्र और ताकतवर बदलाव ने पूरे भारतीय समाज की संस्थाओं और व्यवस्था को झकझोर दिया है, जिससे समायोजन कर पाना मुश्किल दिखता है|
आत्महत्या विशुद्ध समाजशास्त्रीय प्रघटना है| इस हिसाब से आत्महत्या के लिए व्यक्ति को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते| इसके सामाजिक-आर्थिक कारणों की पड़ताल करना होगा, जो व्यक्ति के मनोविज्ञान को आत्महत्या के लिए प्ररित करता है| हालांकि रोहित की आत्महत्या को सामाजिक और आर्थिक नजरिए से देखने का प्रयास किया गया जिसमें उच्च शिक्षा की खामियों, आवंटित फंड की कमी और अनिश्चित भविष्य पर चर्चा हुई, लेकिन मामला राजनीतिक शिकार जाने से दलित और पिछड़े के बीच ब्राह्मणवाद को गाली देने तक सीमित होता नजर आ रहा है| फिर भी, मामला ज्ञान के केंद्र में होने और राजनीतिक हितों की वजह से गंभीर माना गया जिसमें उन शब्दों की भी भूमिका रही जो रोहित वेमुला ने अपने अंतिम पत्र में पिरोया था, लेकिन पूर्वी उत्तर-प्रदेश के बस्ती जिले की गरीबी से तंग आ अपनी तीन बेटियों समेत जाल मरने वाली उस महिला जैसे हजारों का क्या जो हाशिये पर पड़े हैं और अभिव्यक्ति लायक भाषा से भी वचित रह गए| उनकी हत्या का जिम्मेदार कौन?