तेल की धार और मौन सरकार : पी चिदंबरम

Update: 2016-01-10 02:57 GMT

मध्यावधि आर्थिक सर्वे में दर्ज कई बातें बहुत लुभावनी हैं। मसलन, पैराग्राफ 1.4 कहता है कि, ′बजट के अनुमान की तुलना में सकल घरेलू विकास दर (जीडीपी) की रफ्तार में मामूली गिरावट वित्तीय घाटे को 3.9 फीसदी रखने के लक्ष्य को हासिल करने में चुनौती पेश करेगी, जो कि 0.2 फीसदी कम रह सकता है।′ इसके बावजूद पैराग्राफ 1.5 में जोर देकर कहा गया है कि ′वित्त वर्ष 2015 की तरह इस वर्ष भी सरकार वित्तीय घाटे को लेकर की गई अपनी घोषणा को लेकर अडिग है...यदि राजस्व संग्रह और खर्च पर गौर करें तो पहली छमाही के नतीजे शानदार तरीके से इस वर्ष के तय लक्ष्य के अनुरूप हैं।′
यह आशावाद स्वागतयोग्य है। इसने क्षणिक संदेह को खारिज कर दिया है। लेकिन मैं यह सोचकर हैरत में था कि आखिर संदेह हुआ क्यों। हालांकि मैं इस दावे के भोलेपन को लेकर भी हैरत में था कि सरकार वार्षिक लक्ष्य हासिल कर लेगी।
अप्रत्याशित लाभ की स्वीकारोक्ति क्यों नहीं?
सरकार यह स्वीकार करने में क्यों हिचक रही है कि उसे तेल के दाम में हुई गिरावट से अप्रत्याशित लाभ हुआ है? मई, 2014 में ब्रेंट कच्चे तेल का दाम प्रति बैरल 109.5 अमेरिकी डॉलर था। सितंबर, 2014 में यह प्रति बैरल 97.5 डॉलर हो गया और फिर इसके दाम में लगातार गिरावट शुरू हो गई। भारत में कच्चे तेल के दाम में इसका असर किस तरह हुआ, इसे इस तरह देख सकते हैंः सितंबर, 2014- 97 डॉलर, अक्तूबर, 2014- 85.7 डॉलर, नवंबर, 2014-77.1 डॉलर, दिसंबर, 2014-61.1 डॉलर, जनवरी, 2015-46.9 डॉलर।
जनवरी, 2015 में दाम में क्रमिक गिरावट हुई और हाल के हफ्तों में गिरावट और तेज हो गई। दो दिन पहले कच्चे तेल का दाम प्रति बैरल 34 डॉलर हो गया!
मैंने दिसंबर, 2014 से नवंबर, 2015 के दौरान कच्चे तेल के आयात में पिछले वर्ष इसी अवधि (दिसंबर, 2013 से नवंबर 2014) की तुलना में आई गिरावट का आकलन कर यह गणना करने की कोशिश की कि इससे कितनी ′बचत′ हुई। इन दो बारह महीनों के दौरान कच्चे तेल की कीमत औसतन क्रमशः 53.6 डॉलर और 101.3 डॉलर प्रति बैरल थी, यानी प्रति बैरल 47.7 डॉलर की बचत!
कुल बचत देखें तो यह करीब 40 अरब डॉलर ( 93.47 अरब डॉलर- 52.74 अरब डॉलर) के बराबर होती है। उस वक्त की विनिमय दर को ध्यान में रखें तो भारतीय रुपये में इस दौरान 2,33,000 करोड़ ( 5,70,000 करोड़ रुपये-3,37,000 करोड़ रुपये) की अनुमानित बचत हुई। बेशक, वित्त वर्ष की गणना अप्रैल 2015 से मार्च 2016 के बीच होगी, लिहाजा 2,33,000 करोड़ रुपये की अनुमानित बचत सही न हो। मेरा तो यह मानना है कि यह और अधिक हो सकती है, क्योंकि नवंबर, 2015 के बाद से तो कच्चे तेल के दाम में और गिरावट आई है।
सरकार को क्या लाभ हुआ?
बचत या लाभ का संबंध पूरी अर्थव्यवस्था से है और इसमें सरकार, कॉरपोरेट और आमजन सबका हिस्सा होगा। अगले चरण में हम यह अनुमान लगाते हैं कि इस लाभ का कितना हिस्सा सरकार के पास गया। सरकार को तीन तरीके से लाभ हुआ ः पहला, बजट के बाद पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों पर अतिरिक्त कर लगाया गया। दूसरा, उर्वरक, एलपीजी और केरोसिन का सब्सिडी खर्च कम हुआ। तीसरा, सरकारी विभागों विशेष रूप से रेलवे और रक्षा विभागों द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों की खपत पर होने वाला खर्च कम हुआ।
मैं आपको गणितीय उलझन में डालकर बोर नहीं करना चाहता। मेरा अनुमान है कि तेल के दाम में गिरावट से हुई कुल बचत 2,33,000 करोड़ रुपये में से सरकार का हिस्सा 60 फीसदी यानी करीब 1,40,000 करोड़ रुपये होगा। इससे भी कहीं दिलचस्प सवाल यह है कि सरकार ने इस लाभ का कैसे उपयोग किया या करेगी?
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने नवंबर, 2015 तक के राजस्व और खर्च के आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। प्राप्तियों को देखें, तो शुद्ध कर राजस्व, गैर कर राजस्व और ऋण से प्राप्त राजस्व का प्रदर्शन पिछले पांच वर्ष की तुलना में बेहतर हो रहा है और पांच वर्ष का औसत बढ़ रहा है। केवल पूंजीगत प्राप्ति कम है, क्योंकि विनिवेश योजना व्यवस्थित नहीं है। खर्च की ओर देखें, तो बजट अनुमान के अनुसार नवंबर तक कुल खर्च का 64.3 फीसदी हो चुका था, जो कि पिछले वर्ष 59.8 फीसदी था और पिछले पांच वर्ष का औसत 60.4 फीसदी है। यानी अब तक सरकार की कुल वास्तविक प्राप्तियों और खर्च में कुछ भी असाधारण नहीं है। किसी भी विभाग से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि उसने बजट से अधिक खर्च किया है। किसी भी विभाग को अतिरिक्त फंड का आवंटन नहीं किया गया है। किसी भी उद्देश्य के लिए फंड के लिए कोई अप्रत्याशित वादा भी नहीं किया गया है। इस बात के भी कोई संकेत नहीं हैं कि सरकार ने किसी कर्ज के एवज में पूर्व भुगतान किया हो या बांड का भुगतान समय से पहले किया हो, ताकि कर्ज कम किया जा सके। ऐसा लगता है कि सब कुछ बजट के अनुसार ही हो रहा है।
तो फिर लाभ गया कहां?
इस वित्त वर्ष के अंत में अहम सवाल यही होगा कि आखिर कच्चे तेल के दाम में आई गिरावट से हुआ लाभ गया कहां? मुझे संदेह है कि सरकार का यह जवाब इस तरह हो सकता है ः
1. ′हम विनिवेश का लक्ष्य हासिल नहीं कर सके।′ मगर, किसी ऐसी सरकार के लिए यह अच्छी बात नहीं जो कि सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों के निजीकरण की वकालत करती है!
2. ′हम कर राजस्व का लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहे।′ यदि बजट से पहले अतिरिक्त कर थोपने के बावजूद ऐसा होता है, तब तो इसका मतलब है कि राजस्व विभाग ठीक से काम नहीं कर रहा है!
3. ′उच्च वित्तीय घाटे के कारण जीडीपी में मामूली बढ़त हुई।′ यदि चेतावनियों के बावजूद सरकार यह अनुमान नहीं लगा सकी कि विकास दर में मामूली बढ़त ही हो सकती है (और उसके पास कोई प्लान बी भी नहीं था) तब तो यह उस सरकार (और पार्टी) के लिए अच्छी बात नहीं है, जो यह दावा करती है कि उसके पास अर्थव्यवस्था की हर चुनौती का जवाब है!
लाभ का उपयोग इस अंतर को पाटने के लिए किया जा रहा है। कल्पना कीजिए कि यदि 1,40,000 करोड़ रुपये सार्वजनिक निवेश को मिलते, तो अर्थव्यवस्था को कितना लाभ हो सकता था। कल्पना कीजिए कि यदि महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के मद में बजट में कटौती नहीं की जाती, तो कल्याणकारी कार्यक्रमों को कितना लाभ होता!
पी चिदंबरम
पूर्व केंद्रीय मंत्री
मैं आपको गणितीय उलझन में डालकर बोर नहीं करना चाहता। मेरा अनुमान है कि तेल के दाम में गिरावट से हुई कुल बचत 2,33,000 करोड़ रुपये में से सरकार का हिस्सा 60 फीसदी यानी करीब 1,40,000 करोड़ रुपये होगा। सवाल यह है कि सरकार ने इस लाभ का कैसे उपयोग किया या करेगी?
अर्थनीति

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