भारत में प्रवासियों का सामाजिक और मानसिक द्वंद - डॉ. मनीष पाण्डेय

Update: 2016-01-09 07:14 GMT


प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश के चर्चित नाटक अषाढ़ का एक दिन में महाकवि कालिदास को उनकी प्रेयसी मल्लिका उज्जयिनी चले जाने का सुझाव देकर कहती है, कि वहाँ तुम्हें राष्ट्रीय पहचान मिलेगी| कालिदास असमंजस में हैं, कि एक तरफ उसका सुंदर, शांत और प्रेम से भरा जीवन है तो दूसरी तरफ महान होने का अवसर| फिर भी वह मल्लिका से संदेह व्यक्त करता है कि जिस भूमि को तुम उर्वरा समझती हो, वह मेरे लिए मरु भी तो हो सकती है! खैर कालिदास को उज्जयिनी में पहचान मिलती है,जो शिक्षा और साहित्य का तत्कालीन केंद्र है, लेकिन उदाहरण देकर लोग कहते हैं, कबीर कहीं गए थे क्या? पूरा भारतीय जनमानस अन्तर्मन के इसी द्वंद से जूझता रहता है, लेकिन अंतत: क्योंकि वह जब समाज में उतरता है,तो मन के हिसाब से नहीं चला जा सकता| सामाजिक और आर्थिक संरचना व्यक्ति की दिशा तय करती है और उसी अनुरूप उसका मस्तिष्क प्रेरित होता है| जनसंख्या और सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से प्रवास (माइग्रेशन) एक महत्वपूर्ण घटना है| यह सीधे-सीधे दो भागों आंतरिक और बाह्य यानी अंतरराष्ट्रीय माइग्रेशन के रूप में जानी जाती है| अभी हाल में ही उत्तर प्रदेश की सरकार ने आगरा में प्रवासी सम्मेलन सम्मेलन का आयोजन किया| ऐसी ही एक पहल के तहत भारत सरकार भी प्रत्येक साल जनवरी के दूसरे हफ्ते में प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन करता है, जिसमें भारत से बाहर स्थायी रूप से निवास कर रहे और ढंग से स्थापित लोगों को जोड़ने का प्रयास किया जाता है| इसके अतिरिक्त भारत में आंतरिक प्रव्रजन की तस्वीर बड़ी व्यापक और सरकारों के लिए ज़िम्मेदारी का विषय बन जाती है| भारत में लगभग 30 प्रतिशत लोग प्रवासी के रूप में अपने जन्मस्थान से पृथक निवास करते हैं| आंतरिक प्रव्रजन की मुख्यतः चार धाराएँ- गाँव से गाँव, गाँव से शहर, शहर से गाँव, शहर से शहर सक्रिय रही हैं| सामाजिक परिवर्तन और प्रभाव की दृष्टि से गाँव से शहर की ओर होने वाला गमन सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है| वैसे भारतीय जनसंख्या में गतिशीलता की प्रवृत्ति का अभाव माना जाता है| वह परिवार, स्थानीयता और नातेदारी से कहीं गहराई से बंधा होता है और उनसे दूर होकर सामंजस्यता की कठिनाइयों को महसूस करता है|
जनांकविद एवेरेट ली बहुत सीधे अर्थों में प्रवास को पुश और पुल फैक्टर में विभाजित करते हैं,जहां शहरों के कुछ कारक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं तो मूल निवास स्थान के कुछ कारक और परिस्थितियाँ उन्हे वह स्थान छोड़ने का दबाव डालती हैं| हालांकि जनसंख्यात्मक आंकड़े के हिसाब से भारत में प्रवासियों की संख्या बड़ी है लेकिन उसमें अधिकांश हिस्सेदारी महिलाओं की है, जो विवाह जैसे परंपरागत वजह से एक स्थान से दूसरे स्थान में निवास करने चली जाती हैं| यद्यपि आकड़ों के नजरिए से इस प्रकार के प्रवास का कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन महत्वपूर्ण नहीं माना जाता लेकिन नए पारिवारिक और नातेदारी सम्बन्धों से अनुकूलता बनाए रखने में उनकी परेशानी कहीं अधिक मानसिक होती है,जिसका प्रभाव भी परिवार और समाज के बदलाओं में दिख रहा है क्योंकि आज परिवार और समाज में महिला की भूमिका कई अर्थों में निर्णायक हो रही है| कहीं न कहीं इसी कारण से महिला का विवाह के पश्चात नई परिस्थितियों से सामंजस्य ना बैठा पाने से पृथक स्थान पर एकाकी परिवारों में निवास की प्रवृत्ति बढ़ी है| इसलिए, प्रवास में महत्वपूर्ण माने जाने वाली इस परंपरा का भी ढंग से अध्ययन होना चाहिए| अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों के प्रोत्साहन में सरकारें बड़ी जागरूक हैं क्योंकि तमाम वजहों के साथ पूंजी निवेश बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है| लेकिन यही सरकारें आंतरिक प्रवास की समस्याओं और उसके नियोजन पर गंभीर नहीं हैं|
भारत के सर्वाधिक आंतरिक प्रवासी अपना निवास स्थान रोजगार और शिक्षा के लिए छोड़ते हैं, इनमें भी ज़्यादातर ऐसे होते हैं जो विषम परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं| मेरे स्वयं के द्वारा पूर्वी उत्तर प्रदेश में किए एक अध्ययन में रोज़गार के अभाव, शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता, कृषि से हो रहे मोहभंग, उन्नति के अवसरों का अभाव, पारिवारिक कलह, अभावग्रस्तता,सामाजिक कुरीति, जोतों की घटती संख्या, सामाजिक तनाव, जातिगत विभेद, नगरीय सुविधाएं, नगरों में नियमित रोज़गार, गाँव में अपेक्षाकृत कम मज़दूरी और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आदि के कारण प्रमुख रूप से अपना निवास स्थान छोड़कर नगरों की ओर चले जाते हैं| बहुत स्पष्ट है कि व्यक्ति के प्रवासी बनने में विविध कारक प्रभावी है लेकिन आज भी रोज़गार का अभाव ही सबसे बड़ा कारक है| यहाँ प्रव्रजन के पुश (विकर्षण) कारक ज़्यादा प्रभावी है और अधिकांश विकासशील देशों की समस्या है| यहाँ प्रवासी बनकर अवसरों का अधिकाधिक लाभ उठाने के बजाय किसी तरह जीवन यापन करना अधिकांश लोगों की नियति है| यह व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर बड़ी समस्या खड़ी करती है| मुंबई और तमिलनाडु जैसी जगहों पर अक्सर प्रवासी लोगो के साथ असामाजिक और अभद्र व्यवहार वहाँ के लोगों द्वारा किया जाता है, जिसके सबसे बडा शिकार अपेक्षाकृत गरीब और मजदूर व्यक्ति होता है जो गाँव के खुले वातावरण से अचानक किसी झुग्गी तक सीमित हो जाता है| और सम्पन्न तबका भी थोड़ी स्वछंदता के पश्चात भी एकाकीपन का शिकार हो जाता है| वालीवुड की एक फिल्म पीपली लाइव का सरकारी व्यवस्था, गरीबी और पारिवारिक अपेक्षा, जातीय पूर्वाग्रह और मीडिया से परेशान होकर गायब हुए नत्था का फिल्म के अंत में मुक्त भाव और निर्लिप्तता से भरा चेहरा सामने आता है, जो निश्चित ही स्थान परिवर्तन का परिणाम है| फिर भी, हकीकत की दुनिया में उसके पत्नी, बच्चों और परिवार पर उसकी निश्चिंतता भारी पड़ती है| नत्था जैसे प्रवासियों की वेदना उनके चेहरे से ज़्यादा उनके भीतर छिपी होती है क्योंकि आज भी भारतीय समाज परिवार और नातेदारी से बड़ी गहराई से सामाजिक और मानसिक रूप बंधा होता है और प्रव्रजन की घटना में समाजशास्त्रीय और जनांकिक के साथ मनोवैज्ञानिक तत्व भी पाये जाते हैं| प्रवास के नफे-नुकसान को एक तराजू से तौलने के बजाय बड़ी गंभीरता से आर्थिक और मानसिक आधार पर विभाजित कर देखना होगा|

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