'भोजपुरी बिरोध का मिनी स्कर्ट' आज कल किसने पहना है ?

Update: 2017-07-26 15:31 GMT

आधुनिक हिंदी के साहित्यकारों द्वारा भोजपुरी को दबाने का प्रयास वैसे तो बहुत पुराना है, पर पाठकों का टोटा झेल रहे वर्तमान साहित्यारों द्वारा भोजपुरी का मुखर विरोध आज कल जबरदस्त फैशन बन चूका है। पिछले कुछ दिनों से 'भोजपुरी बिरोध का मिनी स्कर्ट' बारी बारी से अनेक साहित्यकार पहन चुके, अभी यह प्रभात रंजन जी के पास है। प्रभात रंजन जी ने हिन्दी में क्या लिखा है, और उनको कितने लोगों ने पढ़ा है यह तो मुझे नहीं पता, पर लोगों ने कहा कि वे साहित्यकार हैं तो हम भी मान लेते हैं कि वे साहित्यकार ही होंगे।

प्रभात जी पिछले कुछ समय से जबरदस्त फॉर्म में हैं। भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में न डाला जाय, इसके लिए वे असंख्य तर्क गढ़ चुके हैं। तर्क गढ़ना उनका अधिकार है, सो मुझे उनके तर्कों से कोई परेशानी नहीं। भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किया ही जाय, इसके लिए भी मेरे अंदर कोई जिद्द नहीं है, क्योंकि मुझे नहीं लगता कि बारह देशों में बोली जाने वाली पच्चीस करोड़ लोगों की भाषा किसी अनुसूची वगैरह की मोहताज है। सो प्रभात जी अगर भोजपुरी के संवैधानिक दर्जे का बिरोध करते हैं, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं। मेरी पीड़ा किसी और कारण से ही है।
भोजपुरी विरोध के नशे में प्रभात जी इतने आगे बढ़ जाते हैं, कि कह देते हैं- मैं भोजपुरी में सिर्फ गाली देता हूँ। उनके अनुसार भोजपुरी भाषा नहीं, गालियों का भंडार मात्र है।
मैं सोच रहा हूँ, पच्चीस करोड़ लोगों की भाषा को गाली कहने वाले व्यक्ति का कितना मानसिक पतन हो चूका है। वे कहते हैं कि भोजपुरी भाषा नहीं बोली है। मैं उनकी बात से आगे बढ़ कर भोजपुरी को बोली नहीं उपबोली भी मान लूँ, तो क्या खुद को साहित्यकार कहने वाले व्यक्ति को यह अधिकार मिल जाता है कि वह उस उपबोली को गाली दे सके?
मैंने प्रभात जी की भोजपुरी विरोध से इतर की गयी आखिरी पोस्ट पढ़ी, वे लिखते हैं- "हर साल कांवरिये आते हैं। हर साल हम उनको गरियाते हैं।..." मैं उनकी पोस्ट की शुरूआती पंक्तियों में ही देख रहा हूँ, हर पंक्ति में कम से कम एक शब्द ऐसा है, जो हिंदी में भोजपुरी से आया है। यह उनकी भाषाई सामर्थ्य है, कि भोजपुरी का मुखर विरोध करने के दौर में भी वे बिना भोजपुरी के एक पंक्ति तक नहीं लिख पाते। अब वे जिस भोजपुरी को गाली कह कर नकार रहे हैं, अपने लेखन में उसी भोजपुरी का शब्द प्रयोग करें तो उनके अनुसार क्या उनका समूचा लेखन ही गाली सिद्ध नहीं होता? मैं सोच रहा हूँ कि अपने लेखन को ही गाली सिद्ध करने का प्रयास करने वाला व्यक्ति स्वयं को साहित्यकार कैसे मान लेता है।
मुझे यह मानने में तनिक भी शंका नहीं कि भोजपुरी को गाली प्रभात जी नहीं बल्कि उनकी कुंठा कह रही है। और मुझे उनकी कुंठा अजीब भी नहीं लगती। साहित्यिक गलियारे में अपनी पहचान खरीद चूका व्यक्ति यदि अपना समूचा सामर्थ्य झोंक देने के बाद सिर्फ पचास से सौ पाठक बटोर पाता है, तो उसके अंदर कुंठा का जन्म होगा ही, इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। पर लाइक बटोरने के लिए भोजपुरी विरोध का जो नकारात्मक तरीका वे अपना रहे हैं, वह साहित्यिक तरीका तो बिलकुल भी नहीं है। नकारात्मकता के बल पर प्रसिद्धि पाने का हथकंडा हनी सिंह और खेसारी लाल यादव जैसे फूहड़ गायक अपनाएं तो बात समझ में आती है, पर कोई साहित्यकार ऐसा करे तो बात बिलकुल भी समझ में नहीं आती। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि प्रभात जी "साहित्य का खेसारीलाल" क्यों बनना चाह रहे हैं।
प्रभात जी को अगर लाइक की भूख है तो उन्हें अपने से आधी उम्र के असित कुमार मिश्र और सौरभ चतुर्वेदी जैसे लड़कों से सीखना चाहिए, जो अपनी कलम के दम पर कुछ ही दिनों में इतने पाठक बना चुके हैं कि उनकी सामान्य पोस्ट को भी कई हजार लोग लाइक कर जाते हैं। इन लड़कों ने कभी कोई नकारात्मक तरीका नहीं अपनाया, बल्कि अपने लेखन के दम पर बेताज बादशाह बने हुए हैं।
प्रभात भाई! भोजपुरी विरोध का तमाशा छोड़िये, क्योंकि भोजपुरी सिर्फ एक भाषा नहीं, एक जीवित संस्कृति है। आप जैसे सैकड़ों मिल कर भी भोजपुरी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
आप हमारी मातृभाषा के विरोधी ही सही, पर यकीन मानिए हम आपसे बहुत "पेयार" करते हैं। लोगों का पेयार पाने के लिए आपको "भोजपुरी विरोध का मिनी स्कर्ट" पहनने की कोई आवश्यकता नहीं।

आपका मित्र
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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