बुद्ध और शंकर - भारतीय परंपरा के ये दो विपरीत ध्रुव हैं, लेकिन उनकी धुरी एक ही है!
बुद्ध "प्रच्छन्न वेदान्ती" थे.
शंकर "प्रच्छन्न बौद्ध"!
और इनकी धुरी की थाह पाने की कुंजी है सनातन मेधा का सगरमाथा : "मंडूक्योपनिषद्"!
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"मंडूक्योपनिषद्" सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है. मात्र 12 श्लोकों का. यह "अथर्ववेद" का हिस्सा है और इसमें चेतना की तीन अवस्थाओं पर जो चिंतन किया गया है, वह अन्यत्र "छांदोग्योपनिषद्" में भी वर्णित है.
"मंडूक्योपनिषद्" की अद्भुत स्थापना यह है कि चेतना की तीन अवस्थाएं "जाग्रति", "स्वप्न" और "सुषुप्ति" (स्वप्नहीन निद्रा) होती हैं और जो चौथी अवस्था है, वह कहलाती है "तूरीय". यह चौथी अवस्था पूर्ण है, लेकिन इसका स्वरूप संज्ञेय नहीं है. इतना ही कि वह उपरोक्त तीनों का समुच्चय है.
सबसे छोटा होने के बावजूद सबसे महत्वपूर्ण उपनिषदों में से एक. कुल 108 उपनिषदों में से 10 सर्वप्रमुख उपनिषदों की सूची में यह सम्मिलित. शंकर ने जिन 11 उपनिषदों पर भाष्य किए, उनमें भी यह अग्रणी.
अब मज़ा देखिये!
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शंकर के परमगुरु आचार्य "गौड़पाद" हुए. उन्होंने "मंडूक्योपनिषद्" पर एक बड़ी लब्धप्रतिष्ठ कारिका लिखी, जिसका प्रथम परिवर्त "आगमशास्त्र" कहलाया है.
हम जानते हैं कि शंकर का अभियान बौद्धों को भारत से खदेड़ने और "सनातन" की धर्मध्वजा पुन: फहराने की रणनीतिक मुहिम थी. अकेले शंकर ने ना केवल बौद्धों और विशेषकर "महायानियों" से संघर्ष कर सनातन को पुनःप्रतिष्ठित किया, बल्कि मीमान्सकों और द्वैतवादियों से भी संघर्ष कर सनातन के दार्शनिक प्रवर्तन को परिशुद्ध किया.
लेकिन शंकर के परमगुरु गौड़पाद अपनी "मंडूक्योपनिषद्" की कारिका में क्या करते हैं?
19वीं कारिका में वे गौतम बुद्ध का नाम लेते हैं!
90वीं कारिका में अग्रयान (महायान) का उल्लेख करते हैं!
98वीं और 99वीं कारिका में फिर बुद्ध का नाम लेकर कहते हैं : "सभी वस्तुएं स्वभावत: शुद्ध और अनावृत्त हैं, इसे "बुद्ध" और मुक्त जानते हैं!"
किंतु कालांतर में शंकर जब स्वयं "मंडूक्य" के साथ गौड़पाद की कारिका का भी भाष्य करते हैं तो वे उसमें अत्यंत सचेत रूप से बुद्ध दर्शन के ऋण की उपेक्षा कर देते हैं!
कारण?
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गौड़पाद ने अगर अपनी कारिका में बारम्बार बुद्ध को प्रणाम किया तो यह अकारण नहीं था.
"मंडूक्योपनिषद्" की तर्कणा बहुत कुछ बौद्ध दर्शन के शून्यवादी आग्रहों पर ही आधारित है, जबकि सनातन पिंडवादी है.
बौद्ध दर्शन की आधारभूमि "अ"नात्म", "अ-नित्य", "अ"नत्ता" "अ-विद्या" आदि है. "मंडूक्योपनिषद्" में भी आत्म तत्व के लिए "अ-दृष्ट", "अ-व्यवहार्य", "अ-ग्राह्य", "अ-लक्षण" और "अ-चिन्त्य" जैसे विशेषणों का उपयोग किया गया है, जो नागार्जुन के "माध्यमिक" दर्शन के अनुरूप है.
"अ" तत्व की केंद्रीयता पर चलने वाले यह तो हो गए शून्यवादी और वेदान्ती. लेकिन शंकर की बात करें तो वे भी "अ-ज्ञान", "अ-विद्या", "अ-द्वैत" : यही बात करते हैं!
विद्वानों ने यह भी लक्ष्य किया है कि "मज्झिम निकाय" का "अजातिवाद" और शंकर का "अजातिवाद" भी एक ही है!
फिर "नेति-नेति" "औपनिषदिक" चेतना का भी मंत्र है और "माध्यमिक" चेतना का भी!
तो भेद कहां है? बुद्ध, गौड़पाद और शंकर - तीनों ही एक ही धारा में तो खड़े नज़र आते हैं!
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भेद निष्पत्तियों में है, आग्रहों और दिशाओं में है. दर्शन में नहीं. और स्मरण रहे कि दर्शन में व्याख्या, भावना, आग्रह का अंशमात्र भेद भी दो पूर्ण भिन्न दिशाओं की सर्जना करता है. यहां, गौड़पाद और उनकी कारिका वह अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है, जो बुद्ध और शंकर के "अचिन्त्य भेदाभेद" को आलोकित करके हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है!
बुद्ध और शंकर - ये दो ध्रुव हैं, लेकिन उनकी धुरी एक ही है!
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ऐसा ही एक द्वैत बुद्ध और महावीर का भी बनता है. दोनों ही पूर्वी भारत के राजपुत्र थे, दोनों तपी-संयमी, दोनों वेद-विरुद्ध, दोनों अनीश्वरवादी, दोनों ने संस्कृत के बजाय लोकभाषा में उपदेश दिए -- बुद्ध ने पालि में, महावीर ने प्राकृत में. दोनों समकालीन थे, पर एक दूसरे पर मौन साधे रहे. "दीघनिकाय" के "ब्रह्मजालसुत्त" में बुद्ध महावीर के दर्शन पर संवाद करते हैं तो उन्हें उनके प्रचलित नाम तक से नहीं पुकारते, केवल "निगंठ नाथपुत्त" कहकर अभिहित कर देते हैं.
बताया जाता है, एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध और महावीर एक ही सराय में ठहरे थे, किंतु आपस में मिले नहीं.
बहुधा लगता है कि बुद्ध और महावीर एक ही चेतना के दो बिम्ब, दो रूप थे. एक ही आत्मा के दो मनोरथ. वे भला कैसे मिल सकते थे!
किंतु वह यहां क्षेपक होगा, एक अवांतर प्रसंग, अतैव अपनी वाणी को यहीं विराम देता हूँ.
इति नमस्कारान्ते!
सुशोभित सक्तावत