भारत सरकार द्वारा बनाई गई शिक्षा नीति के संबंध में इस समय हर शिक्षा मनीषी लेख लिख कर उसकी प्रशंसा कर रहा है । बड़े बड़े शिक्षा मनीषियों द्वारा लिखे लेखों को पढ़ कर मेरा मन भी नई शिक्षा नीति का सांगोपांग अध्ययन करने को हुआ। कोरोना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा पर होने के कारण केंद्र सरकार द्वारा जारी की गई शिक्षा नीति को पढ़ने, उस पर चिंतन मनन करने में पांच दिन लग गए । इसके बाद इस पर आज लेख लिखने को मन हुआ ।
भारत सरकार द्वारा जारी नई शिक्षा नीति शिक्षा के आदर्शवादी पहलू को ज्यादा समेटे है । इस नई शिक्षा नीति का अध्ययन करते समय कई बार मुझे ऐसा प्रतीत होता कि मैं किसी सरस्वती स्कूल की दीवारों पर लिखा सदवाक्य पढ़ रहा हूँ । जिससे चित्त तो प्रफुल्लित हो रहा है । मन को अच्छा भी लग रहा है। एक संतोष का भाव भी उत्पन्न हो रहा है। ऐसा भी प्रतीत हो रहा था कि काश ऐसा होता, तो भारत एक बार फिर जगतगुरु की स्थिति प्राप्त कर लेता। शिक्षा ग्रहण करने वाले भारत के प्रत्येक छात्र महाविद्यालय या विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने के बाद या तो नौकरी प्राप्त कर लेते या किसी रोजगार में नियोजित हो जाएंगे। ऐसा विचार मुझे ही नही, किसी भी व्यक्ति को सुकून देगा ।
लेकिन जब इस नई शिक्षा नीति को सामाजिक, आर्थिक रूप से विविधता पूर्ण समाज को देखता हूं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे यह शिक्षा नीति भारत के अंतिम व्यक्ति के लिए नही बनाई गई है। नई शिक्षा नीति तो बहुत अच्छी है, काया कल्प भी कर सकती है। लेकिन उसके पहले इस देश के अंतिम व्यक्ति को शिक्षा का अवसर तो मिले। अगर हम आज कोरोना काल और उसके प्रभाव से देश की जनता को बचाने के लिए जो प्रयास किए जा रहे है। आइए उसी आधार का मूल्यांकन करते हुए नई शिक्षा नीति पर चर्चा करते हैं । कोरोना संक्रमण काल मे लागू लॉक डाउन से जो देश की अर्थव्यवस्था ठप हो गई, काम धंधे बंद हो गए है। इसकी वजह से करीब देश के करीब 82 करोड़ लोगों को प्रति यूनिट 5 किलोग्राम गेहूं या चावल और एक किलोग्राम चना देकर लोगों को भूख से प्रभावित से बचाने के लिए वितरित किया जा रहा है । यानी एक सौ तीस करोड़ जनता में करीब 90 करोड़ जनता की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि अगर केंद्र सरकार उन्हें खाद्यान्न उपलब्घ न कराती, तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो जाती । शेष 40 करोड़ में से 30 करोड़ मध्य वर्ग के हैं, जो उच्च मध्य वर्ग में जाने के लिए बैंकों या अपने परिचितों से लोन लेकर होड़ में लगे रहते हैं । माना कि उनकी आर्थिक स्थिति निम्न वर्ग की स्थिति से बेहतर होती है । लेकिन यह वर्ग हमेशा परेशान रहता है। इतना जरूर है कि इतनी जल्दी इस पर कोरोना संकट का असर भी नही पड़ने वाला है। लेकिन इसके पास भी साल दो साल तक ही खाने और अपनी जीवन शैली के अनुरूप जीने की क्षमता होती है। इसी वर्ग के लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने का प्रयास किया जाता है । इसलिए नई शिक्षा नीति का सबसे अधिक लाभ इसी वर्ग को मिलेगा। क्योंकि इसी वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त करने के लिए जद्दोजहद करते हुए देखे जा सकते हैं ।
भारत के शेष दस करोड़ लोग जो बचते हैं उनके पास अकूत सम्पति है। वे अपने बच्चों को पढ़ाते जरूर हैं, लेकिन उनका उद्देश्य नौकरी या रोजगार करना नही होता है । बल्कि उनका उद्देश्य आप के व्यापार को संभालना और अपने जीवन स्तर की उच्चता को बनाये रखना होता है । मध्य वर्ग के उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को यह लोग अपने यहां नियोजित करते हैं ।
आर्थिक स्थिति ही खराब होती, तो शायद उसे उसे सुधारा जा सकता है । लेकिन अगर बौद्धिक स्तर ही निम्न है, तो फिर सरकार की नई शिक्षा नीति का लाभ उसे कैसे मिल सकता है । भारत के जिन 90 करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन दिया जा रहा है, जो लोग राशन ले रहे हैं, वे अपने बच्चों को स्कूल भेजना ही नही चाहते। जब तक मिड डे मील योजना नही लागू था, तब तक इन नब्बे करोड़ लोगों में से करीब पचास प्रतिशत बच्चों को उनके गार्जियन पढ़ने के लिए भेजते ही नही थे। चूँकि अब खाने के लिए मिड डे मील मिलता है, इस कारण लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया। लेकिन आज भी इनमें से पचास प्रतिशत लोगों के बच्चे हाई स्कूल तक पहुँचते पहुँचते पढ़ाई छोड़ देते हैं । इसके बाद जो लोग बचते हैं, उसमे से पचास प्रतिशत इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के बाद शिक्षा नही ग्रहण करते हैं । फिर जो बचते हैं, उसके आधे ग्रेजुएट हो जाते हैं । फिर शेष के 10 प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं । जहां तक टेक्निकल शिक्षा की ओर रुझान की बात है, बच्चों और गार्जियन का रुझान बढ़ा है, लेकिन वे स्थानन्तरित हुए हैं । पहले कला या विज्ञान से पढ़ाई करते थे, अब टेक्निकल एजुकेशन लेने लगे ।
जिस देश के नागरिकों की मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति इतनी विपन्न हो, उस देश मे कितनी भी अच्छी शिक्षा नीति क्यों न बना दी जाए, उससे क्या होने वाला है। शिक्षा के लिए आदर्श नीतियों का निर्धारण उचित है, लेकिन सारी क्षमता का पता तो तब चलता है, जब उसे जमीन पर उतारा जाता है। और जमीन पर वही नीति खरी उतरती है, जो व्यवहारिक होती है। या इसे इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि सबसे बेहतर शिक्षा नीति वह होती है, जो अपने देश के सबसे अंतिम व्यक्ति को मापदंड मान कर बनाई जाती है ।
मोदी सरकार द्वारा जो नई शिक्षा नीति बनाई गई है। उसमें पूर्व में चली आ रही कई अव्यवहारिक नीतियों को समाप्त किया गया है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो स्वावलंबी समाज और देश की परिकल्पना की है, उसकी पूर्ति में काफी सहायक हो सकती है। लोग अपनी मूल रुचि के अनुसार विषय लेकर अपना भविष्य सुधार सकते हैं और अपनी मेधा को प्रखर बना सकते हैं । तकनीकी को भी विकसित किया जा सकता है। लेकिन जीवन को सुखमय और शांतिपूर्ण कैसे बनाया जाएगा, इस पर ध्यान नहीं दिया गया। नई शिक्षा इति से विद्यार्थी तकनीकी ज्ञान तो लब्ध कर सकता है । अच्छी नौकरी या व्यापार सेट अप करके प्रचुर मात्रा में धन भी कमाया जा सकता है । लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उसके जीवन स्तर को सुखमय और शांतिपूर्ण बनाया जा सकता है । शायद नही ।
नई शिक्षा नीति में प्राध्यापकों, अध्यापकों के लिए जो मापदंड निर्धारित किया गया है। वह ठीक है। लेकिन इसका मतलब यह नही है कि आज जो शिक्षक हमें पढ़ाते हैं, वे कमतर हैं। लेकिन उनके अंदर जो कमी आई है, वह कैसे दूर की जाएगी। मेरे कई मित्र बार बार कहते हैं कि अध्यापक और प्राध्यापक को क्लास में तो भेजा जा सकता है, लेकिन उससे पढ़वाया नही जा सकता है। जिस देश के अध्यापकों एयर प्राध्यापकों में पढ़ाने की अभिरुचि नही रह गई है । जो स्कूल या कालेज समय काटने के लिए जाता है। जिसका पूरा ध्यान अपनी सैलरी लेने में लगा रहता है । इस नई शिक्षा नीति में उसको सुधारने का कोई प्रावधान नही है । इसलिए ऐसे गुरुओं की जरूरत है, जो नैतिक हों, सदा अपनी ज्ञान क्षमता में वृद्धि करते रहें और बिना किसी भेदभाव के सभी को एक समान मान उन्हें प्रशिक्षित करते रहें ।
इसी तरह तमाम सामाजिक, आर्थिक और नैतिक विसंगतियां है, जिन्हें दूर करने की दिशा में कदम उठाया जाना चाहिए। तभी भारत को एक बार फिर विश्व गुरु बनाया जा सकता है ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट