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व्यंग ही व्यंग

कैसे हम करे कल्पना?

कैसे हम करे कल्पना?
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कैसे हम करे कल्पना?

राम राज्य की।

रोज लूट रही है अस्मत।

दरिंदे हमारे ही समाज का।।

दुनिया नर पिशाचों का मेला है।

गली,चौक,चौराहों पर डाले डेरा है

मन में कचोटता है एक सवाल।

बेटियों को कैसे छोड़े उनके हाल

कैसे बाहर निकले बेटियां हर पल खतरा रहता है।

घात लगाए बैठे हैं भेड़िया नजर गड़ाए घूमते है।।

रूह कांप उठता है।

कलेजा बैठ जाता है।।

आये दिन बेटियां।

दम तोड़ जाती है।।

बेटियों का जीवन कैसे बच पायेगा?

संजोकर रखा जो सपना साकार कैसे हो पायेगा।।

महफूज़ नही है घर की चौखट भी।

ना जाने कब वो दस्तक दे जायेगा।।

बाहर वो कैसे रह सकती सुरक्षित।

यही चिंता हमें अंदर ही अंदर खा जाएगा।।

आखिर किसके भरोसे निकलें बाहर अपने घरों से।

उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन ले पायेगा?

कैसे हम कल्पना करें....

कैसी है यह बेटियों की आजादी?

केवल खानापूर्ति और कागजों में दब जाएगा।।

हवस के शिकारी ना जाने किस।

मोड़ पर जिस्म को नोच खायेगा।

कैसे हम कल्पना करें...

आज इंसानियत शर्मसार हुई है।

आज खद्दर भी दागदार हुई है।।

आए दिन ना जाने कितने अरामनों का।

हर पल बलात्कार हुई है।।

कैसे हम कल्पना करें....

........अभय सिंह

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