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उत्तर प्रदेश

बलात्कार : न्याय के लिए तड़पता समाज

बलात्कार  : न्याय के लिए तड़पता समाज
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अत्यंत नृशंस, अमानवीय एवं संपूर्ण भारत को झकझोरने एवं संपूर्ण मानवता को हिला कर रख देने वाले दुष्कर्म के मामलों मे न्याय की देरी मानवता व समाज के चेहरे पर बदनुमा धब्बा बनकर रह गई है।भारत अब बलात्कार की सर्वाधिक घटनाओं वाला विश्व का तीसरा देश बन गया है जहां सिर्फ महिलाएं ही नहीं नौनिहाल एवं नाबालिक लड़कियां भी दरिंदगी का शिकार हो रही हैं और उनकी रक्षा करने में समाज व राष्ट्र पंगु साबित हो रहे हैं । हाल ही में निर्भया कांड को करने वालों को सात वर्षों बाद फांसी की सजा मिलना और उसका भी महीनों घसिटना अत्यंत क्षोभ पैदा करता है जिससे संपूर्ण समाज एवं राष्ट्र के समक्ष मन को कुरेदने वाले यक्ष प्रश्न उभर रहे हैं कि जब भारत के एक बड़े राज्य में राष्ट्रपति शासन एक रात में ही हट सकता है एवं कुछ घंटों में ही कुछ घंटों की सरकारें बन सकती है तथा सर्वोच्च न्यायालय याकूब मेनन तथा कर्नाटका केस एवं तथाकथित सेलिब्रिटीज के लिए रात्रि में भी सुनवाई कर सकता है तो सामुहिक बलात्कार जैसे जघन्य मामलों में आखिर वर्षों की देरी क्यों? सरकार एवं न्यायालय रेप जैसे जघन्य केसों में कुछ ही महीनों में निर्णय होने के मामले पर अाखिर मौन क्यों हैं? सरकार तथा न्यायालयों को बहन बेटियों की चीखें सुनने में आखिर इतना समय क्यों लगता है? जब अपराधियों को हैवानियत करने में थोड़ी भी देर नहीं लगती तो उन्हें सजा मिलने में आखिर विलम्ब क्यों? बलात्कार जैसे मामले न केवल उस महिला बल्कि संपूर्ण महिलाओं एवं संपूर्ण समाज के विरुद्ध किया गया जघन्य अपराध हैं जो न केवल उस महिला को अपितु संपूर्ण समाज को तोड़ कर रख देता है, जो राष्ट्र की नीव को इस कदर हिला देता है कि महिलाएं न केवल अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगती हैं अपितु उनका संपूर्ण व्यवस्था से विश्वास उठ जाता है। उनका घर से बाहर निकलना दूभर हो जाता है साथ ही उन पर यह कहकर कई पाबंदियां भी लाद दी जाती हैं कि वह समाज में सुरक्षित नहीं है। देश में बलात्कार सबसे तेजी से बढ़ने वाला अपराध बन गया है जिसमें 1971 से 2012 तक 902 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है जो समाज में सामाजिक संबंधों की अत्यंत भयावह स्याह तस्वीर पेश करता है। देर से मिला हुआ न्याय, न्याय न होकर सिर्फ मन का समझौता मात्र बनकर ही रह जाता है। देश में हर 22 मिनट में एक बलात्कार की रिपोर्ट की जा रही है। सन 2012 में 38,144 बलात्कार के मामले लंबित थे किन्तु 21,565 (56.5%) मामलों में ही आरोप पत्र प्रस्तुत किए गए थे। अदालतों में बलात्कार के मुकदमों की कुल संख्या 101,041 है किन्तु परीक्षण केवल 14,717 (14.6%) फ़ीसदी मामलों में ही पूरे हुए। समाज में नारी अस्मिता के समक्ष आज भयंकर संकट उत्पन्न हो गया है। महिलाएं आज इतना असुरक्षित महसूस कर रही हैं तो इसके लिए समाज, सरकार, न्याय व्यवस्था आदि सभी कहीं न कहीं दोषी हैं। बलात्कारियों को समय से सजा न मिल पाना या कम सजा मिलना, विफल न्याय प्रणाली एवं समाज की रूग्ण व्यवस्था का ही परिणाम है जिसका दुरुस्तीकारण यदि समय रहते न किया गया तो परिणाम अत्यंत भयावह होंगे । देर से मिला हुआ न्याय, न्याय न होकर सिर्फ मन का समझौता मात्र बनकर ही रह जाता है । निर्भया कांड में जितनी तड़प, दर्द और बेबसी का सामना निर्भया ने किया था उससे कहीं अधिक खौफनाक मंजर उनके अभिभावकों एवं संबंधियों को देखने को मिला जो न्याय के लिए तरसते दिखे तथा तिल- तिल मरते रहे। यदि दोषियों को शीघ्र ही दंड मिल जाय तो हवस के इन भेड़ियों के मन में भय अवश्य पैदा हो किंतु यह संपूर्ण देश एवं समाज की विडंबना है कि ऐसे दरिन्दे सरकारी जेलों में सालों तक समाज की छाती पर मूंग दलते रहते हैं। हैदराबाद बलात्कार कांड में त्वरित मानवीय न्याय मिलना हर उस व्यक्ति की जीत है जो यह मानता है कि न्याय अभी भी जीवित है। यह जीत है महिला सम्मान और महिला अस्मिता की तथा करारा जवाब है हर उस व्यक्ति को जो कुत्सित एवं घृणित मानसिकता रखता है तथा महिला अस्मिता को अपने हाथों का खिलौना समझता हैं । यह उन लोगों के लिए भी संदेश है जो कानूनी कमियों का फायदा उठाकर समाज में बलात्कार जैसी दरिंदगी को अंजाम देने का मंसूबा रखते हैं। बलात्कार जैसे अमानवीय कृत्यों पर सजा और फैसले यदि शीघ्रता से आ जाएं और उनका पालन सुनिश्चित हो जाए तो न केवल लोगों का विश्वास कानून में दृढ़ होगा बल्कि अपराधियों के मन में भी डर उत्पन्न होगा। संपूर्ण समाज के लिए यह शर्मनाक बात है कि देश की लगभग आधी महिला आबादी यौन उत्पीड़न या बलात्कार के डर के साए में जी रही हैं और हर पल यह डर बना रहता है कि न जाने कब किसके साथ क्या हो जाए? देश के लिए शर्मशारिता का ग्राफ काफी दुखद है कि यहां प्रतिदिन लगभग 91 बलात्कार के मामले (2018) दर्ज होते हैं किन्तु न जाने कितने ही मामलों में या तो पुलिस रिपोर्ट ही नहीं लिखती या पीड़ितायें समाज के डर से चुप्पी साध कर बैठ जाती हैं। यह सामाजिक ब्यवस्था की सड़न ही है कि बलात्कार का दर्द झेलने के बाद भी पीड़ित को या उसके रिश्तेदारों को वर्षों कोर्ट - कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं, तथ्यों को साबित करने में एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है और दर्द, बेबसी तथा घुटन भरी जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़ता है । देश में न तो सरकारों में इतनी संकल्पबद्धता दिखती है और न ही न्यायालयों में इतनी माजदा की शोषिताओं को शीघ्र न्याय दिला पाएं। नेताओं की लफ्फाजी और वादों के मध्य फॉरेंसिक लैब, त्वरित निर्णय न्यायालयों और जांच कर्ताओं तथा न्यायकर्ताओं की भारी कमी से देश जूझ रहा है । देश में यद्यपि फास्ट ट्रैक कोर्टों का अस्तित्व सन 2000 से ही है फिर भी यह सिर्फ नाम भर हैं उनका संपूर्ण गठन एवं फास्ट निर्णय देना अभी दूर की कौड़ी ही है क्योंकि कानून और न्याय मंत्रालय के अनुसार मार्च 2019 के अंत तक देशभर में कुल 581 फास्ट ट्रैक कोर्ट ही कार्यरत है किंतु उनमें लंबित मुकदमों की संख्या 5.9 लाख हैं। जिन मामलों में सालों बाद निर्णय आ भी जाता है वह भी कानूनी पेचीदगियों में और कई साल उलझे रहते है। दुष्कर्म पीड़िता यदि जीवित बच जाती है तो समाज उसे घुट घुट कर मरने को मजबूर कर देता है और यदि वह मर भी जाती है तो शायद ही उसकी आत्मा को शीघ्र व पर्याप्त न्याय की गैरमौजूदगी में शांति मिल पाती हो? समाज में अभी बलात्कार के दंश से अधिकांशतः समाज का गरीब तबका या मिडिल क्लास ही अधिक पीड़ित है परन्तु जिस दिन भारत में सांसदों, विधायकों, मंत्रियों या बड़े- बड़े अधिकारियों एवं उद्योगपतियों को भी यह दर्द झेलना पड़ेगा उस समय अवश्य कोई विधेयक या केस लाॅ ऐसा आ जाएगा जिसके तहत बलात्कार जैसे जघन्य मामलों में न्याय की अवधि एक माह या तिमाही निर्धारित कर दी जायेगी व दंड इतना वीभत्स होगा कि लोगों की रूह तक कांप जाए। नारी अस्मिता को रौंदने वालों के लिए समाज में रहम की कोई गुंजाइश नहीं है । आज समाज में जो सड़न इन दोषियों ने मचा रखी है उससे निपटने के लिए समाज को सख्त रुख अख्तियार करना आवश्यक हो गया है। आज राष्ट्र में आवश्यकता सिर्फ दुष्कर्मियो को मृत्युदंड देने की ही नहीं है वरन इस बात की भी है कि ऐसे लोगों को फांसी बंद जगह में न देकर खुलेआम व बेज्जत तरीके से दी जाए या बीच चौराहे पर गोली मारी जाए जिससे लोगों की चेतना पर एक प्रहार हो, जिससे ऐसा दुष्कर्म करने वालों को एक सीख मिले तथा ऐसी सोच रखने वाले, ऐसा करने की स्वप्न में भी न सोच सकें और निर्भया जैसी हर एक महिला स्वयं के साथ न्याय महसूस कर सकें।

डॉ अजीत कान्त दीक्षित

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