आज समाजवादी लोकतंत्र की आवश्यकता है : प्रीति चौबे
BY Suryakant Pathak21 Aug 2017 2:51 PM GMT
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Suryakant Pathak21 Aug 2017 2:51 PM GMT
लोकतंत्र या प्रजातंत्र अर्थात जनता का शासन ऐसी व्यवस्था हैं जिसमे जनता अपना शासक खुद चुनती हैं। लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार "जनता का,जनता के लिए जनता द्वारा,जनता का शाषण हैं" यद्दपि लोकतंत्र शब्द का प्रयोग राजनीतिक सन्दर्भ में किया जाता हैं किन्तु इसका सिद्धांत अन्य संगठनो के लिए भी संगत हैं।
प्रत्येक राज्य(देश) चाहे समाजवादी सिद्धांत को मानता हो,साम्यवादी हो उदारवादी हो,या अन्य किसी भी विचारधारा को मानने वाला हो अपने आप को लोकतान्त्रिक कहलाते हैं यहाँ तक की सेना के जनरल से संचालित होने वाला पकिस्तान भी खुद को लोकतान्त्रिक देश कहता हैं।
सच कहू तो आज के युग में खुद को लोकतान्त्रिक कहना एक ट्रेंड सा बन चुका हैं और राष्ट्र इस पर गर्व करते है,भले ही उनकी आंतरिक व्यवस्था इस सिद्धांत का प्रतिपादन करती हो या नही।
आम धारणा के अनुसार मार्क्सवादी और समाजवादियो ने भी लोकतंत्र के सिद्धांत को माना है। लेकिन समाजवादियो का लोकतंत्र प्रचलित लोकतंत्र से भिन्न है क्योकि पूंजीवादी लोकतंत्र में अधिकार जनता के पास ना होकर साधन संपन्न लोगो के पास ही होता हैं इसलिए समाजवादी ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जिसमे सभी अधिकार जनता के पास सुरक्षित हो जिसमे उत्पादन के साधनो पर स्वामित्व खत्म करने और जनता द्वारा अर्थव्यवस्था संचालित हो तब जाकर समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना होगी।
समाजवादी लोग हमेशा से उदारवादी लोकतंत्र के आलोचक रहे हैं (हालांकि हालिया एक दो दशको से उनके भी विचारो में थोडा परिवर्तन आया है) क्योकि इसमें देश की अर्थव्यस्था पर पूंजीपति वर्ग का कब्जा हो जाता हैं और यही वर्ग धन बल की ताकत पर सत्ता,राजनीतिक लोगो को अपने वष में रखते हैं या यूँ कहे अपने नफे नुकसान के आधार पर राष्ट्र की योजना बनवाते हैं। सभी अधिकार सिर्फ इसी वर्ग के पास होते हैं श्रमिक वर्ग के पास सिर्फ नाममात्र के अधिकार होते हैं सत्ता तंत्र या यूँ कहे न्यायालय,अधिकारी भी इसी वर्ग के हित साधक बन कर रह जाते हैं इसलिए लोकतंत्र भी एक ऐसी शासन प्रणाली बन जाता हैं जो तटस्थ ना होकर एकपक्षीय हो जाता है।
हिन्दुस्तान के परिपेक्ष्य में लोकतान्त्रिक व्यवस्था तो हैं लेकिन कही ना कही वो भी एक बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था से प्रभावित हो रही हैं जिसमे आम जनता का हित पूर्णयता सुरक्षित नही हैं।
देश में समय समय पर नागरिको के हितो पर कुठाराघात किया जा रहा हैं..आर्थिक,शैक्षिक,सामाजिक खाई बहुत गहरी होती जा रही हैं इसीलिए समाजवादी लोग एक सामान शिक्षा के हमेशा से पक्षधर रहे हैं,देश के आर्थिक ढांचे पर मात्र 1-2 प्रतिशत पूंजीपतियो का पूरी तरह कब्ज़ा हैं और खास कर पिछले 3-4 साल में देश निजीकरण की तरफ तेजी से बढ़ता प्रतीत हो रहा हैं श्रमिक वर्ग पूरी तरह हतोत्साहित नजर आ रहा हैं,किसान आज भी जस का तस खड़ा नजर आ रहा हैं।
तमाम वादों के साथ केंद्र में मंचासीन हुई राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) की सरकार लगातार पूंजीपतियो के हितो में योजना बनाकर श्रमिको के साथ कुठाराघात करती प्रतीत हो रही हैं। श्रमिक कानूनों में संशोधनों के नाम पर समाज के मेहनतकश लोगो के अधिकार कम किये जा रहे हैं। बड़े बड़े उद्योगपतियों का लाखो करोडो का कर्ज(एनपीए) के नाम पर छोड़ दिया जा रहा है वही गरीब,किसान,नौजवान सिर्फ बिलख कर रह गया हैं।
मुझे नही लगता कोई दिन ऐसा बीतता हो जब में कही ना कही किसी ना किसी राज्य में किसान आत्महत्या की खबर ना पढ़ती हूँ केंद्र की सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से आज देश में जहा नया रोजगार नही पैदा हो रहा हैं वही पुराने रोजगार भी स्वतः ही समाप्त हो रहे हैं इसकी पुष्टि स्वयं केंद्र सरकार ही संसद में कर चुकी हैं हालांकि वो "कौशल विकास योजना" के नाम पर अपनी पीठ जरूर थपथपाती हैं जबकि ग्राउंड लेवल पर मैंने कही उस तरह का असर नही देखा हैं। देश का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाले मीडिया पर कॉर्पोरेट जगत का पूर्ण अधिपत्य हो चूका हैं और वो सिर्फ उन्ही खबरों को चला रहे हैं जिनसे उन्हें और सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा होता प्रतीत हो।
मीडिया मैनेजमेंट के सहारे देश में इस तरह का माहौल बनाया जा रहा हैं जैसे सब कुछ पहले से बहुत ज्यादा बेहतर हो गया हो जबकी धरातल पर बेहद ही ख़राब स्तिथि है। अब जनता तो वो ही सोचेगी जो उसे टीवी,समाचार,पत्रकारो द्वारा दिखाया जा रहा हैं भ्रामक खबरे दिखाकर किसी पार्टी विशेष को तो फायदा पहुँचाया जा सकता हैं,लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिहाज से ये कतई उचित नही हैं।
असल में जिस लोकतंत्र की रक्षा के लिए मीडिया होती हैं वो खुद ही उसके पतन पर उतारू हैं वो भी अपनी निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए। चंद लोगो को खुश करने के लिए देश के 120 करोड़ से ज्यादा लोगो के हितो का हनन करना कही से भी उचित नही ठहराया जा सकता।
वास्तव में देश का पत्रकारिता जगत देश की वर्तमान परिस्तिथियों में अपने नैतिक पतन के सबसे भयानक दौर से गुजर रहा है।
वास्तव में देखा जाए तो भारत जैसे देश में जहा असमानता का स्तर बेहद गहरा है वहाँ सिर्फ समाजवादी सिद्धांतो से ही इस खाई को दूर किया जा सकता हैं समाजवादी विचारधारा वाले लोग ही ऐसे लोकतंत्र की परिकल्पना करते हैं जिसमे निति निर्धारण में आम जनता के हितों का ख्याल रखा जाए ना की चन्द पूंजीपतियो का लेकिन अफ़सोस देश की जनता मीडिया मैनेजमेंट द्वारा बनायीं गयी विकास और राष्ट्रवाद की हवाओ में बह रही हैं,जो इन्हें लगातार गहरे गर्त की और ले जा रही हैं।
(प्रीति चौबे)
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