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व्यंग ही व्यंग

पुत्र को ढो सकने के साहस का नाम पिता

पुत्र को ढो सकने के साहस का नाम पिता
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इस तस्वीर को देखिये! छपरा के माँझी पुल की तस्वीर है। लॉक डाउन में कोई परदेशी परिवार वापस घर लौट रहा है। ट्रॉली बैग पर लेटा बच्चा पुत्र ही होगा, और खींचने वाला पिता... शायद यही पिता पुत्र के सम्बन्धो की परिभाषा भी है। पुत्र को ढो सकने के साहस का नाम पिता, और पिता के भरोसे पर निश्चिन्त हो कर कहीं भी चढ़ जाने के उत्साह का नाम पुत्र...

तस्वीर में दो पुल हैं। एक कंक्रीट का बना है जिसपर चढ़ कर सब नदी पार कर रहे हैं। दूसरा हाड़-मांस का बना है, जिस पर चढ़ कर बेटा नदी, नाव, दुनियादारी सबकुछ भूल कर निश्चिन्त हो गया है। है न?

इस आपदा के बीतने के पचास वर्ष बाद इस लड़के को याद भी नहीं रहेगा कि तब सरकार किसकी थी, सरकारी व्यवस्था कैसी थी, या पक्ष विपक्ष का व्यवहार कैसा था। याद रहेगा तो बस इतना कि पापा ट्रॉली बैग पर बैठा कर घर ले गए थे।

ये सही-गलत, राजनीति, धन-सम्पति सब अपनी जगह है, पर जीवन की सबसे बड़ी कमाई यह यादें ही होती हैं। आप कितनी भी बुरी दशा में हों, एक बार बचपन और अपने पिता को याद कर के देखिये, आप अनायास ही मुस्कुरा उठेंगे। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हर बेटे के पास अपने पिता को लेकर ऐसी हजार यादें होती हैं, जिन्हें याद कर के वह मुस्कुरा उठता है।

हम सोचते हैं कि बड़े होने के बाद पुत्र पिता के इस स्नेह को भूल क्यों जाता है! कुछ पुत्र पिता का अनादर क्यों करने लगते हैं? सही है यह... असल में बड़े होने के बाद पुत्र स्वयं पिता हो जाता है। उसे अपने बचपन में पिता से जितना स्नेह मिला होता है, वह उससे अधिक अपने पुत्र को देने का प्रयत्न करता है। वह पिता को भूलता नहीं, बल्कि उनकी ही नकल करता है। और इसी के क्रम में कभी कभी अपने गुरु को ही भूल जाता है। फिर भी मुझे लगता है कि कोई पुत्र इतना बुरा नहीं होता कि वह अपने पिता के मोह को त्याग दे। उसे बस याद दिलाने की आवश्यकता होती है, वह रोता हुआ दौड़ेगा पिता की ओर... मनुष्य कितना भी बुरा हो, पर रहेगा मनुष्य ही...

ज्ञान के प्रकाश में हम भले पुत्र मोह को बुरा कह लें, पर एक सामान्य मनुष्य की तरह सोच कर देखिये तो लगेगा, "पुत्रमोह इस सृष्टि का सबसे पवित्र मोह है..." लोक का अपना शास्त्र होता है, वह शास्त्रों की हर बात नहीं मान पाता।

कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान सुनाया कि मोह को त्याग दो... इस गीता ज्ञान को लिखा महर्षि वेदव्यास जी ने। और स्वयं वेदव्यास भी पुत्रमोह से मुक्त नहीं सके। गीता सुनने वाले अर्जुन ही मोह का त्याग कहाँ कर सके? पितामह की मृत्यु पर रोये, गुरु द्रोण की मृत्यु पर रोये, अभिमन्यु के लिए रोये...

मुझे लगता है कि ईश्वर भी नहीं चाहते कि मनुष्य मोह त्यागे... सम्बन्धों का मोह त्याग दिया जाय तो जीवन में बचेगा क्या? सब वैरागी ही हो जाँय तो सृष्टि का क्या होगा?

मोह होना चाहिए। एक सीमा तक सम्बन्धों का मोह होना ही चाहिए। स्वयं से, अपने परिवार से, समाज से, धर्म से, देश से... यह मोह ही जीवन है।

कोरोना ने शहरीकरण के भ्रम को तोड़ा है। पिछले तीस साल से परिवार का मोह तोड़ कर पैसे के पीछे भागती भीड़ एक बार फिर घर की ओर लौट रही है। घर की ओर, परिवार की ओर, समाज की ओर, माटी की ओर... कोरोना बहुत कुछ ले रहा है है, तो बहुत कुछ दे भी रहा है। समय है इस मोह को गले लगाने का...

घर को यादों से सजाइये! धन को फिर कमाना ही है...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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