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व्यंग ही व्यंग

यह सबको समझना चाहिए कि आग, बाढ़, दंगा, भैंसा किसी के नहीं होते...

यह सबको समझना चाहिए कि आग, बाढ़, दंगा, भैंसा किसी के नहीं होते...
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मेरे मित्र के गाँव में एक भैंसा हुआ करता था.. भैंसा उसी गाँव का जन्मा था या किसी अन्य गाँव से भटक कर आया था, इसकी जानकारी मुझे नहीं....

मित्र की जुबानी- भैंसा फसलों को खूब नुकसान पहुंचाता और प्रवृत्ति का..बेहद हिंसक था. आस-पास के दर्जनों गांव के लोग उसके आंतक की जद में थे. कोई ऐसा सप्ताह नहीं गुजरता कि उसके सींगों के हस्ताक्षर किसी के जिस्म पर न उभरते रहें हों.

मित्र ने बताया कि- जिस भी गाँव में भैंसे का आंतक होता गाँव के लोग, जुटकर उसको दौड़ाते, लोहा लेते.. मारते- पीटते.....लेकिन भैसा तो,भैंसा ठहरा, लाठियाँ लाख उसके जिस्म पर बरसती रहें उसकी आदतें और भी जवां होती रहीं.. और गांव के पुलिया, चौराहों पर सिर्फ भैंसे के कारनामों की पंचायत सजती रही.

अब जब गांव के लोग उसके आतंक से आजिज़ हो गये तब, सब ने मिलकर उसे बीघों दौड़ाकर पकड़ा, अपने काबू में किया और एक लोहे के तार में एक लकड़ी का बोटा बांधकर उसके गले में लटका दिया.

वैसे बोटा बांधने से भैसें की प्रवृत्ति तो नहीं बदली लेकिन जब भी वो किसी को मारने के लिए दौड़ाता... भारी लकड़ी का बोटा उसके घुटनों पर प्रहार करता.....जिसके दर्द से उसकी रफ्तार कम हो जाती और उस व्यक्ति की जान बच जाती जिसके मारने के लिए भैंसा आक्रामक होता.

हांलाकि ऐसा असंभव है कि किसी पर नकेल कसने के बाद उसके नकेल के दर्द को महसूस करने वाले पैदा न हों.. जी हाँ! गांव के एक सहिष्णु पंडीजी को यह बात नागवार लगी की एक बेजुबान के गले में लकड़ी का बोटा बांधा गया.. अब वो लगातार इस फिराक में रहने लगे कि कब भैंसा सुस्त हो और उसके गले से वजन उतार कर उसे आजाद करें.

एक दिन पंडीजी कचहरी जा रहे थे तभी उनकी नजर उस भैंसे पर पड़ी. भैंसा तालाब के किनारे सुस्ता रहा था.. पंडीजी को मौका मिला वो भैंसे के करीब जाकर उसके माथे को सहलाये और धीमें से उसके गले से उस लोहे के तार को जुदा कर दिये... भैंसा समझदार तो नहीं था लेकिन इतना नासमझ भी नहीं था कि वो अपने गले से वजन हटने के आनन्द को न समझ पाये...सो उसने पंडीजी को कुछ नहीं बोला... और पंडीजी उसको आजादी दिलाकर कचहरी निकल गये.

गांव का कोई भी आदमी नहीं जान पाया कि कैसे भैंसा वजन व से मुक्त हुआ लेकिन पंडीजी पर एक अभिमान का वजन अवश्य आ गया.उन्हें यह अभिमान हो गया कि भैंसे को उन्होंने आजादी दी थी...

उधर गांव के लोग भैंसे से फिर सतर्क हो गये लेकिन जो सतर्क नहीं था वो पंडी जी.. उन्हें यह अभिमान हो गया था कि उन्होंने भैंसे को आजाद किया इसलिए भैंसा अब उनका.. अब पंडीजी के भीतर का डर वैसे ही खत्म हो गया था जैसे.. भैंसे के गले में लटका लकड़ी का बोटा..

हांलाकि पंडीजी की यह गलतफहमी सप्ताह भर भी न साँस न ले पायी.. हुआ यूं कि पंडीजी अपने में खेत टहल रहे थे तभी उनकी नजर तिरछी हुई तो देखा कि उन्हीं के खेत में भैंसा चर रहा है... पंडीजी को कतई गुस्सा नहीं आया.. वो मुहब्बत का कदम बढ़ाये.लेकिन भैंसे ने पंडीजी को अपनी तरफ बढ़ते देख, अपने कदम और नथुनों में आग भरकर दौड़ा.. पंडीजी उसकी आग को प्रेम की उष्मा समझ कर अपने पथ पर बने रहे और भैंसा अपने रफ्तार में.. हांलाकि अंतिम क्षण में पंडीजी भैंसे की मनोदशा समझ गये और वो जान बचाने के लिए उल्टी दिशा में भगे लेकिन तब तक उनके प्रिय भैंसे़ ने उनके पिछवाड़े के एक अर्द्ध वृत्त के आधे हिस्से को अपने सींग से जुदा कर दिया.

पंडीजी की कराह से पूरा सिवान सिहर उठा और पंडीजी उठाकर...लादकर अस्पताल गये गये.

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मित्रों"उपरोक्त घटना में पंडीजी को कोई कसूर नहीं. उन्होंने भैंसे को आजाद किया कोई बात नहीं.. लेकिन उनकी गलतफहमी उनके लिए जानलेवा हो गई.

यह सबको समझना चाहिए कि आग, बाढ़, दंगा, भैंसा किसी के नहीं होते...

आप भले रोज माचिस जलाते हों लेकिन जब आग अपने रौद्र रूप में हों तब आप उसे काबू पाने का घमंड कतई मत पालिये वरना आपकी हालत पंडी की तरह हो जायेगी.

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लब्बोलुआब यह कि पंडीजी एक अच्छे व्यक्ति थे लेकिन उनके अच्छे होने से भैंसा सुधर जायेगा यह उनकी गलतफहमी थी.

मित्रों! यथासंभव अच्छा किजिये! लेकिन झगड़े-टंटे.. दंगे-फसाद में आपकी अच्छाई नहीं गिनी जाती.. उसमें प्रत्येक वो व्यक्ति दुश्मन होता है जो पंडीजी की तरह बेखौफ़ होकर भैंसे की पूंछ सहलाना चाहता है.

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रिवेश प्रताप सिंह

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