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व्यंग ही व्यंग

नाक़ाबिल नाकाम.....

नाक़ाबिल नाकाम.....
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स्कूल आते जाते हाईवे के किनारे त्रिभुजाकार टेंट को पिछले एक माह से अपने मोबाइल कैमरे में कैद करने की जुगत में था लेकिन जब भी रुककर मोबाइल से फोटो लेने को सोचता तभी दो आदमी पलटकर ऐसा देखते मानों कोई कमज़ोर नाड़ी और नसों की चिंता का मरीज टेंट में घुसने कि फिराक में है. भला अब किसको-किसको बताता फिरूं कि फोटो खींचने के पीछे का उद्देश्य लेखन है न कि वो जिसे समझ कर आप भीतर ही भीतर खुद को 'रुस्तम' और हमकों 'बेदम' और 'बेकस' समझ कर होठों से मुस्कान बिखेर रहें हैं

अब मैं कोई पत्रकार होता तो भीतर बाहर दोनों से फोटो खींचता. टेंट की भीतर बैठे नस के माहिर का इन्टरव्यू भी लेता, तो चार जड़ी बूटी सूंघता- चबाता, लेकिन मेरी तो बंदिशें हैं और उसी बंदिशों के भीतर ही अपना काम निपटाना है.

खैर! शुक्रवार को दो पल दुनिया को नजरअंदाज कर... खींच ली इस जादुई टेंट की फोटो.

मुझे लगता है कि नौजवानों की जितनी फिक्र हाईवे किनारे टेंट की तिकोनी आकृति में बैठे वैद्य/हकीम कर रहें हैं उसका अंशमात्र भी नकल हमारी सरकारें कर लें तो नौजवानों की तकदीर एवं भारत की तश्वीर दोनों बदल जाये.

भरी दोपहरी में काले टेंट के भीतर नायाब बूटियाँ के सहारे भारतीय युवाओं की चिंता में बैठे हुए दूर देश के फरिश्ते. दरअसल देश की जो असल फिक्र है, उसका वजन वो अपने ही कंधे पर टिका रखे है. एक तरफ जहाँ सरकारें नुक्कड़-चौराहे पर वाहन का चलान काटने/ भरने में मशगूल हैं वहीं दूसरी तरफ यह टेंट वाले तपिश में बैठकर नौजवानों की नसों में मर्दाना ताकत भरने में जी-जान लगाये बैठे हैं।

जहाँ हमारी सरकारें नौजवानों की जरूरतों और परेशानियों से मुंह मोड़ कर खड़ी है वहीं वो फरिश्ते उनकी गुप्त समस्याओं का गारंटी से पक्का ईलाज करने का दावा कर रहें हैं. महज बीस रुपैये नाड़ी फीस लेकर युवाओं के नसों में घुसकर उनकी नहाफ़त का पर्दाफ़ाश करने तथा उस नहाफ़त से डटकर लड़ने का सामान मुहैय्या करा रहें हैं. भीतर की कमजोरी को जवां बनाकर दुनिया से पंजा लड़ाने का इरादा कोई छोटा थोड़े है. लेकिन ऐसे मुश्किल हालातों की चुनौतियों को चुटकी में क़बूल करना सबके बस का भी नहीं।

क्या सरकार के पास इतनी दर्दमन्दी बची है कि वो नौजवानों से पूछ सकें कि-

" नौजवान मायूस क्यों ?"

"नौजवान क्यूं हैं परेशान ?"

" क्यों हैं उदास? हमसें करें दिल की बात."

जहाँ इक तरफ नौजवानों की एक चुस्त दुरुस्त फौज अपनी काबिलियत का सनद लेकर सरकार से अपनी काबिलियत के इस्तेमाल करने की गुजारिश कर रही है.. लेकिन हमारी सरकारों के पास उनकी काबिलियत को पनाह देने की न तो जगह है और न ही कोई बंदोबस्त.

इधर टेंट के फरिश्ते नाकाम और नाकाबिले दुरुस्ती के बेकस नौजवानों में जोशेजुनूँ भरने के लिए बेग़रजी से तैनात हैं. नाकाम, नाकाबिल, बेचिराग नौजवानों के भीतर की नाउम्मीदी में अपनी नायाब बूटियों से उम्मीद की चिंगारी पैदा करने का हौसला सबके भीतर नहीं होता. ऐसे मजबूत इरादे उन्हीं के हो सकते हैं जो हिमाचल की दुर्गम पहाड़ियों की चीरकर आया हो.

कभी आप इन टेंटों को गौर से देखें (वैसे मुझे पूरा यकीं है कि आप गौर से देखते और पढ़ते होंगे) टेंट का आकार और आयतन दोनों ताज्जुब करने वाला होता है. टेंट में घुसने का रास्ता इतना छोटा और संकरा होता है कि आपको न चाहते हुए भी अपने कमर को नब्बे प्रतिशत झुकाकर ऐसे घुसना पड़ेगा मानो आप किसी शहंशाह के दरबार के कैदी हो.

दरअसल उसके पीछे की वजह यह है कि वो दुनिया से आपको पर्दे में छुपाकर रखना चाहते हैं. वो नहीं चाहते कि जिस कमजोरी को आपने दुनिया से छुपाकर महफूज रखा वो एक पल में बेपर्दा हो जाये. उन्हें मालूम है कि यह बेरहम दुनिया कमजोरों के साथ क्या सलूक करती है. इसलिए वे अपना आशियाना ही कालोनी से दूर हाईवे के किनारे रखते हैं जहाँ आपको जानने-पहचानने वाले न के बराबर हों. आप बेफ्रिकी के साथ उनके आशियाने में घुसकर बैठ सकें, अपने दिल की बात (जिसे आपने दुनिया से झुपाकर रखा) कह सकें, सुन सकें. अपने नाड़ी के रास्ते अपनी भीतर की तपिश को जान सकें. अपनी इज्ज़त को बरकरार रखते हुए अपनी नसों में तूफ़ान भरने की बूटी खरीद सकें।

बताइए!हमारी सरकारें 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का ख्वाब भला किसके भरोसे पर पाल रहीं हैं. नौजवानों के बलबूते ही न!

जब हमारे मानव संसाधन में नौजवान ही मायूस और नाकाम रहेंगे तो सरकारें किसके भरोसे आसमां में छेद करेंगी. हमें अपने नौजवानों के भीतर-बाहर दुरुस्ती के लिए फिक्रमंद होना पड़ेगा, उनकी नसों की समस्याओं को सुलझाना पड़ेगा, उनके जोशखरोश के लिए विशेष इंतिज़ाम करने पड़ेंगे. एक बड़ी आबादी के भीतर की चिंगारी को आग बनाना पड़ेगा तब जाकर हमारी अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन के मुकाम को हासिल कर पायेगी।

ऐसा न जाने कितनी बार होता है कि हमारे पास ईंधन भी होता है और उसके भीतर जलने की कुव्वत भी लेकिन शुरुआती दौर में उसे सुलगाना बड़ी टेढ़ी खीर होती है. शुरुआती चिंगारी पैदा करके उसके नसों के भीतर इतना यकीं पैदा कर देना कि अब तुम दुनिया भर में आग लगा सकते हो. दरअसल यह यकीं पैदा करने के लिए उसके भीतर की चिंगारी को जवां करना होता है और जब वह चिंगारी जवां हो जाती है तो फिर वो आग का गोला या यूं कहें शोला बन फूटता है.

बचपन की गलतियां जो जवानी की दहलीज़ पर आकर बेइज्जत करती हैं और उनकी भी फिक्र कोई करने वाला है तो यही फरिश्ते हैं. शादी के पूर्व और पश्चात् की परेशानियों तक का ख्याल और फिक्र तो घरवाले नहीं करते लेकिन इन्होंने ठान लिया है कि सब दुरुस्त करके जायेंगे. सबको मिसाइल बनाकर छोड़ेंगे. सरकारें भले हाथ पर हाथ धरीं बैठी रहें लेकिन हम इनकी नसों में बारूद भरकर मानेंगे. नौजवानों में बेलुत्फ़ी का नामोनिशां मिटा देंगे॥

रिवेश प्रताप सिंह

गोरखपुर

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