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व्यंग ही व्यंग

किंग मेकर

किंग मेकर
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राजनीति में ऐसे सख्श मीलों नहीं दीखते जो किंगमेकर की हैसियत रखते हुए भी अपने लिए किसी पद की लालसा न रखें। जिनके बलबूते न जाने कितने रियासत के वजीर बन जाये लेकिन वो कभी अपने सिर, मुकुट के लिये न बढ़ायें।

जी हाँ! बात हो रही है सब्जियों के सैयद बन्धु 'प्याज' की। जिसने न जाने कितने सब्जियों को अपने बलबूते सबकी जुबां पर चढ़ाकर उनकों सब्जियों का बादशाह बनाया. खुद तली में रहा, अपने बादशाह को कंधे पर बिठाया. अपनी हस्ती को मिटाकर पूरी रियायत को गाढ़ा और वजनदार बनाया। सुनने में भले यह आसान हो लेकिन ऐसा कर पाना, हो पाना ऐसे ही है जैसे पंख होकर भी खुद जमीन पर बैठना और दूसरे के पंखों में जान भरकर उसे आकाश दे देना।

बिना किसी पद लिप्सा के,किसी समाज एवं संगठन को उत्कृष्टता एवं सर्वोच्चता पर ले जाने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं के लिये 'प्याज' एक मिसाल है।

दिल पर हाथ रखकर कहिए! क्या आपने कभी सिर्फ प्याज की सब्जी खाई है ? हो सकता है कि आपने नमक संग प्याज़, रोटी खाई हो लेकिन सिर्फ प्याज की सब्जी, न तो बनाई होगी न तो खाई होगी। शोरबा खाया होगा. जिसमें का मुख्य चेहरा आपको पसंद नहीं या तो वो किन्हीं कारणों से उपस्थित न रहा हो. लेकिन चूल्हे पर कड़ाही रखकर केवल प्याज की सब्जी पकाने वाली रेसिपी मेरे सामने तो कभी न आयी।

हिन्दुस्तानियों की एक सामान्य आदत होती है वे किसी बात अथवा घटना का वजन बढ़ाने के लिये अपनी बात को गणित के प्रतिशत आंकड़ों में व्यक्त करते हैं. भले उनमें से कुछ के गणित में खुद के प्रतिशत तीस प्रतिशत से चालीस प्रतिशत रहे हों. अब मैं, यदि प्रतिशत में बात करूँ तो लगभग अस्सी प्रतिशत रसदार/मसालेदार यहाँ तक की बिना ग्रेवी की सब्जियों में प्याज मेरुदंड की भूमिका निभाता है. लेकिन मजे की बात यह कि आज तक प्याज ने कभी यह नहीं कहा कि मेरे नाम की सब्जी क्यों नहीं पकाई जाती। शाकाहार तथा मांसाहार दोनों टोलियों में प्याज कि जो हैसियत या दखल है, किचिंत् ही ऐसा सौभाग्य किसी दूसरे को प्राप्त हो. खानसामा से लेकर गृहणी के हाथ की कला धरी की धरी रह जाती है जब उसे बिन प्याज की कड़ाई या हांडी चढ़ानी पड़े।

बात दस रूपये किलो आलू की हो अथवा 500 रू किलो मीट की... जब तक प्याज न कटे तब तक सारी रेसिपी वैसे ही नंगी है जैसे बिन जींस और लगाम की घोड़ी। सब्जी परिवार में प्याज सबके साथ सम भाव रखने वाला निराला सख्श है. प्याज सस्ती सब्जी के साथ गुफ्तगु कर रहा हो या मंहगी के साथ ठहाके मार रहा हो. किसी दुर्लभ सब्जी के साथ रनिंग कर रहा हो या फिर सुलभ के साथ कुश्ती.. वो प्रत्येक के साथ उतना ही सहज है. यह प्याज की सरलता ही है कि वह सबके साथ सहज वर्ताव रखता है इसलिए सबके झोले में कोई हो न हो लेकिन प्याज का होना जरूरी है।

कोई भी पार्टी अपने संगठन के कार्यकर्ताओं के बलबूते बुलंदी छूती है.. आपको देखने में लगता है अमुक सब्जी का मुख्य चेहरा पनीर है लेकिन उसके पीछे एक मजबूत आलम्ब है जो सबकी जुबां पर चढ़कर बोलता है. जनता ग्रेवी का चटखारा लगाती है जिसमें प्याज अपना अस्तित्व और रंग गवां कर एक नई खूशबू ,रंग और स्वाद के साथ मौजूद होता है और लोग कहते हैं....वाह! क्या गजब ''मटर-पनीर" की सब्जी बनी है।

ज्यादातर सब्जियों की करी से ही सब्जियों को स्वाद का तमगा दिया जाता है. करी,मुख्य सब्जी के नस-नस..रेशे-रेश में घुमड़ कर सब्जी के नसों में स्वाद भर देता है. और बात किसी से न छुपी कि भारतीय करी में जिस सख्सियत ने सबसे अधिक आहुति दी वो 'प्याज' ही है. करी के अलावा आमलेट हो, चिल्ला हो, डोसा हो, समोसा हो, या फिर पकौड़ी सब में प्याज मंच पर महत्वपूर्ण कुर्सी पर काबिज मिलेगा. यदि बात करूँ पकौड़ी समुदाय की तो इसमें 'प्याज की पकौड़ी' का रूतबा आज भी अलग है. सलाद की वरीयता क्रम में प्याज सर्वदा प्रथम ही रहा. यदि सलाह की महफिल में प्याज नहीं है तो मान लिजिये कि उस वक्त वो अखबारों और विपक्षियों का चहेता बना फिर रहा है।

यदि सियासत की नजर से देंखे तो प्याज सब्जियों का राष्ट्रीय अध्यक्ष है. वो अपने नेता के लिये कढ़ाई में एक माहौल बनाता है. प्याज, तेल- मसाला लहसुन अदरक सबसे निपट कर सबको अपने पाले में लेकर सबको अपने रंग में रंग लेता है फिर अपने पार्टी के नेता या मुख्य चेहरे को उतरवाता है जंग के मैदान में. जब नेता जंग के मैदान में उतरता है तो प्याज अपने सभी समर्थकों के साथ उसके साथ एक समर्पित योद्धा की भाँति अपना सर्वस्व न्यौछावर कर अपने नेता को.. मटन करी. चिकन मसाला, या मटर पनीर बनाकर ही दम लेता है।

ऐसा नहीं कि कोई नामलेवा न हो तो हैसियत कम जावे. प्याज भले कभी सब्जी का मुख्य चेहरा बन बन पाया लेकिन उसकी हैसियत तो इतनी है कि अपने पर उतर आया तो न जाने कितने वो सियासतदानों को कुर्सी से उखाड़ फेंका. जब भी सरकारों ने प्याज का दाम बढ़ाकर उसे जनता की थाली से दूर करने का प्रयास किया जनता ने नेता को कुर्सी से दूर कर दिया. न जाने कितने राष्ट्रीय मंचों का मुद्दा बना है प्याज।

टिकने में अन्य सब्जियों के मुकाबले सिर्फ आलू, कद्दू, ओल, भुईयां जैसी सब्जियां ही महीनों किचेन में टिक पातीं हैं लेकिन कालाबाजारी के मामले में हर साल यही सुर्खियों में रहते हैं जनाब. इनकी कालाबाजारी का असर यह है कि जब इनको रसोई तक पहुंचाने में जेब ढ़ीली करनी पड़ती है और यह जनाब पाव और ग्राम के बटखरे में चढ़ने लगते हैं तो रसोई में इनकी गैरमौजूदगी की आह से संसद की दीवारें चटकने लगतीं हैं।

ऊपर की परतों को देखने पर प्याज भले ही रूखा लगे लेकिन जब आप उसके भीतर परत दर परत जायेंगे तो वो और भी हसीन होते चले जाते है. भावुक तो इतने कि जब भी आप इसको भीतर तक जानने का प्रयास करेंगे आपके आँखों में आंसू भर देगे. वैसे रुलाने के मामले में प्याज हमेशा से ही बड़ा बेरहम रहा है. काटते वक्त तो हमेशा लेकिन साल में ऐसे वक्त जरूर आ जाते हैं जब यह खरीदते वक्त भी रुलाते हैं. रसोई में इनकी दखल ऐसी है कि न खरीदें तब कढ़ाई की रौशनी चली जाती है और खरीदने पर बटुए की. इसलिए साल भर में एक बार जनता को रूलाते जरूर हैं साहब. और जनता के यही आंसू सरकार के माथे से पसीना बनकर टपकने लगते हैं. समझिए कि रसोई से लेकर संसद तक इनकी तूती बोलती है. और यह सब इनकी काबिलियत और कारसाजी का हुनर है इसीलिए तो यह अपनी कीमत लेकर आसमान चढ़ जाते हैं साहेब॥

रिवेश प्रताप सिंह

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