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व्यंग ही व्यंग

दीपक का बुझना हर बार अपशकुन नहीं होता भाई! कई बार दिए का बुझना पूरे राज्य के लिए सुख शांति ले कर आता है।

दीपक का बुझना हर बार अपशकुन नहीं होता भाई! कई बार दिए का बुझना पूरे राज्य के लिए सुख शांति ले कर आता है।
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लगभग पन्द्रह वर्ष पहले देश के एक राज्य में हरे रंग की एक लालटेन जला करती थी। कहने को वह राज्य कृषि प्रधान था पर राज्य का मुख्य उद्योग हत्या और अपहरण हुआ करता था। तब सुबह जगने वाला कोई मजदूर व्यक्ति ईश्वर से यह प्रार्थना नहीं करता था कि ईश्वर उसकी रोजी सलामत रखे, वह यह प्रार्थना करता था कि ईश्वर उसकी जिंदगी सलामत रखे। घर से जब कोई व्यक्ति शहर-बाजार के लिए बाहर निकलता तो उसकी पत्नी मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करती- "हे काली माई! ये सही सलामत लौट के आ जाएंगे तो कल लड्डू चढ़ाऊंगी।" तब हर घर में रोज काली माई को लड्डू चढ़ाया जाता था।

किसी रिश्तेदारी में गए व्यक्ति को यदि देर हो जाती और शाम के पाँच बज जाते, तो आदमी रात को वहीं रुक जाता क्योंकि पूरे राज्य में एक भी सड़क ऐसी नहीं थी जिसपर रात को चलना सुरक्षित था। हर सड़क पर हर चँवर(दो गाँव के बीच की सुनसान सड़क) में कोई न कोई गैंग खड़ा रहता था। रात को सड़क पर निकलने वाले व्यक्ति के सामने दो ही रास्ते थे, या तो अपनी सम्पति दो नहीं तो प्राण... राज्य के किसी भी जिले में एक भी प्रखंड ऐसा नहीं था जिसमें लुटेरों,हत्यारों के कमसे कम दो गैंग न हों।

आम आदमी तो छोड़िए, कलक्टर तक सुरक्षित नहीं थे। सड़क चलते कलक्टर, नेता, मंत्री बम से उड़ा दिए जाते।

उसी राज्य की एक कहानी बड़ी मशहूर हुई थी, जब एक कलेक्टर को खम्भे में बांध कर उसके सामने ही उसकी पत्नी का बलात्कार किया गया था कुछ सामाजिक न्याय के योद्धाओं द्वारा। वे कलेक्टर साहेब त्यागपत्र देने के बाद परिवार के साथ कहाँ चले गए यह उनके करीबी रिश्तेदारों को भी पता नहीं। और हाँ! वो कलेक्टर भी पिछड़े वर्ग का था....

कमजोर परिवार की बेटियां पढ़ने नहीं निकलती थीं श्रीमान! इसलिए नहीं कि उनके माता पिता स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूक नहीं थे, इसलिए क्योंकि वे उनकी सुरक्षा को ले कर जागरूक थे।

दुनिया उस राज्य को मजदूर सप्लायर राज्य के रूप में जानने लगी थी। दूसरे राज्य के लोगों को लगता था कि ये लोग गरीबी के कारण पलायन कर रहे हैं, पर ऐसा था नहीं। लोग पलायन इसलिए करते थे ताकि जी सकें।

राज्य के परम प्रतापी मुख्यमंत्री दम्पति कहते थे कि हम सामाजिक न्याय के योद्धा हैं, पिछड़ों को न्याय दिलाएंगे। पर उनके पंद्रह वर्ष के शासन काल में सबसे अधिक हत्याएं पिछड़े और दलितों की ही हुईं। सबसे अधिक पिछड़े और दलितों की बेटियों की आबरू लूटी गई। सबसे अधिक पिछड़ों की ही पत्नियां विधवा हुईं, सबसे अधिक उन्हीं के बच्चे अनाथ हुए। मरने वाले भी पिछड़े वर्ग के थे, मारने वाले भी पिछड़े वर्ग के थे।

प्रश्न उठता है क्यों?

क्योंकि सवर्ण अभी इतने अशक्त नहीं हुए थे कि कोई टुच्चा अपराधी उनके ऊपर हाथ डाल सके। सो छोटे गैंग वाले उन्हीं पिछड़ों को लूटते थे, जिनके नाम पर राज्य का मुख्यमंत्री सरकार चला रहा था।

अब ऐसा भी नहीं था कि सवर्णों को कोई परेशानी नहीं थी। सवर्ण सबसे अधिक अपहरण उद्योग की खुराक बनते थे। राज्य का कोई गाँव ऐसा नहीं था जिसमें किसी न किसी का अपहरण न हुआ हो।

राज्य में शिक्षा व्यवस्था भी उत्कर्ष के चरम पर थी। इतनी सुदृढ़ कि मुख्यमंत्री स्वयं अपने दोनों बेटों तक को मैट्रिक पास न करा सके।

मुख्यमंत्री चुनावी मंचों पर मुस्कुरा कर कहते कि हम हेमा मालिनी के गाल की तरह चिकनी सड़क बनाएंगे, मासूम जनता हँस हँस कर लहालोट हो जाती। पर सड़कों की दशा यह थी कि उनपर ओम पुरी के गालों से अधिक गड्ढे हुआ करते थे।

उस राज्य के बच्चे जब पढ़ने के लिए दूसरे राज्यों में जाते तो उन्हें कोई किराये पर कमरा तक नहीं देता था...

लालटेन जल रहा था, राज्य भी जल रहा था।

उस लालटेन के उजाले में ऐसे-ऐसे काण्ड हुए कि आज सोच कर भी रूह काँप उठती है।

युग बदला! उस राज्य की सरकार बदली। मात्र चार वर्षों के बाद राज्य की शत-प्रतिशत लड़कियाँ स्कूल जाने लगीं और लड़कों से आगे निकलने लगीं। इसलिए नहीं कि लोग एकाएक जागरूक हो गए थे, इसलिए क्योंकि डर समाप्त हो गया था।

लोग अब रात को बारह बजे भी घर से निकलने लगे। राज्य के सारे लुटेरे-हत्यारे या तो मार दिए गए, या उन्होंने अपना हथियार मिट्टी में गाड़ दिया।

सड़कें हेमा मालिनी के गाल की तरह तो नहीं, लेकिन देश के अन्य राज्यों की 👍सड़कों से अधिक चिकनी हो गईं।

राज्य के पिछड़े/दलित और सवर्ण तीनों सुख से हैं। हत्या, बलात्कार, अपहरण की कम्पनी चलाने वाला एक भी उद्योगपति जीवित नहीं।

पंद्रह वर्ष बीत गए। लालटेन वाले मुख्यमंत्री के बेटे फिर एक बार लालटेन जलाने के लिए दियासलाई ढूंढ रहे हैं। और इस बार भी सामाजिक न्याय की ही बात हो रही है। जिन युवकों ने वह दुर्दिन नहीं देखा वे यदि उन लड़कों का साथ दें तो बात समझ में आती है, पर सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाले लोग उन नन-मैट्रिक लड़कों की जयजयकार कर रहे हैं, और एक बार फिर उस हरी लालटेन को जलाने के लिए तेल खोज रहे हैं।

पर राज्य के लोग जानते हैं, इस लालटेन में तेल नहीं गरीबों का खून जलता है। यह लालटेन अब नहीं जलेगी।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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