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व्यंग ही व्यंग

अथ श्री आरक्षण कथा-१

अथ श्री आरक्षण कथा-१
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१९८९ याद है? अटलजी ने सोमनाथ से रथ यात्रा को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया था और आडवाणी जी उसे लेकर जब अयोध्या के लिए कूच किए थे, तब दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह कि जनता दल की सरकार भाजपा के ५६-५७ सांसदों पर बुरी तरह से आश्रित चल रही थी।
१९८४ में इंदिरा जी की हत्या के बाद इस देश ने उनके उत्तराधिकारी पुत्र राजीव गांधी को अब तक के रिकॉर्ड ४१९ सांसदों का समर्थन दिया था और विश्वनाथ प्रताप सिंह रक्षामंत्री बनाए गए। १९८७ में एकदिन सुबह स्वीडिश रेडियो ने भारत के साथ हुए बोफोर्स तोप समझौते में ६५ करोड़ रुपए की दलाली लेने की बात बताई और यह भी बताया कि दलाली की रकम किसी इटली के व्यापारी क्वात्रोची के माध्यम से गया है। इसी बात को लेकर तत्कालीन रक्षामंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने त्यागपत्र दे दिया और एक नयी मोर्चेबंदी शुरू हुई जिसके यह स्वाभाविक नेता बन कर उभरे। वीपी अपने आपको एक ईमानदार और फकीर नेता के रूप में विकसित करने में लग गए और एक नया दल बना- जनता दल। एक ऐसा दल जिसका जनाधार कुछ नहीं था पर इसमें नेता ही नेता भरे हुए थे- वीपी, चौधरी देवीलाल, मधु लिमए, रामकृष्ण हेगड़े, चंद्रशेखर, एन टी रामाराव, सुरजीत सिंह बरनाला, सीताराम येचुरी, जार्ज फर्नांडिस आदि। ये वे नेता थे जो या तो क्षेत्रिय क्षत्रप थे या इनकी सारी राजनीतिक कोशिश खुद को सांसद अपने दो-चार चेलों, चमचों, चपाटों को विधायक बनाने भर तक सिमित रहा करती थी। वीपी सिंह के रूप में उनको एक ऐसा राजनीतिक रास्ता दिखने लगा जो इन्हें केंद्रीय मंत्री, यहां तक प्रधानमंत्री तक बनवा सकता था और वीपी इन नेताओं के नेता बड़ी चालाकी से बनने लगे वह जब कांग्रेस से निकाले गए तो कहे कि छ: साल का प्रतिबंध लगाया है इसलिए न वे चुनाव लड़ेंगे और न नयी पार्टी बनाएंगे, पर वे चुनाव भी लड़े और नयी पार्टी भी बनाए। फिर वह बोले कि नयी पार्टी तो बना लिए हैं पर वे उसके अध्यक्ष नहीं बनेंगे, पर वे जनता दल के अध्यक्ष भी बन गए। अब जब अध्यक्ष बन गए तो कहने लगे कि चाहे जो वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। जब १९८९ में चुनाव हुए तो लाख प्रयासों के बाद भी कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी जब उसे १८९ सीटें मिली पर बहुमत जनता दल को भी नहीं मिला १४५ सीटों के आसपास सिमट कर रह गई, माकपा, भाकपा और अन्यान्य दलों जो खुद को थर्ड फ्रंट कह रहे थे, के बाहरी-भीतरी समर्थन के बावजूद भी २७२ का जादुई आंकड़ा जनता दल से बहुत दूर था। कांग्रेस को थर्ड फ्रंट ने स्पष्ट कर दिया था कि कुछ भी हो जाए वे कांग्रेस को समर्थन नहीं करेंगे। पर अब भी सबसे बड़ा सवाल यह था कि आखिर जनता दल सरकार बनाए तो कैसे? तब थर्ड फ्रंट के इशारे पर वीपी सिंह का यह बयान आया कि उन्होंने अपने सारे विकल्प खुले रख छोड़े हैं पर वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे।
मतलब साफ था कि भाजपा के वे ५६-५७ सांसद अपरिहार्य थे समर्थन के लिए। पर जनता दल हो कि थर्ड फ्रंट भाजपा एक सांप्रदायिक पार्टी थी, थक हार कर भाजपा से जब समर्थन मांगा गया तो अटलजी ने यह कहकर कि देश एक आम चुनाव के तुरंत बाद दूसरे आम चुनाव के लिए तैयार नहीं है अतः भारतीय जनता पार्टी जनता दल को बाहर से समर्थन दे रही है। बाहर से समर्थन का आशय था भाजपा सरकार में शामिल नहीं होगी, हां विश्वास प्रस्ताव आने पर वह सरकार के पक्ष में मतदान करेगी, भाजपा संसदीय दल के नेता उस समय के अध्यक्ष आडवाणी जी बनाए गए।
अब देश और जनता दल के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि प्रधानमंत्री कौन होगा? बलिया में तो चंद्रशेखर जी के नाम की धूम मच गई क्योंकि वीपी कह रहे हैं कि वह बनेंगे नहीं, देवीलाल उर्फ़ ताऊ भी अपनी अनिच्छा व्यक्त कर ही चुके हैं तो अब 'दाढ़ी' ही तो हैं अगले प्रधानमंत्री? पर राजनीति अपने जाल बड़ी तेजी से बुने जा रही थी। १९८९ कि उस जहरीली शाम को यह देश कैसे भूल सकता है जब संसद के केंद्रीय कक्ष में वीपी ने प्रधानमंत्री पद के नाम की घोषणा की- श्री देवीलाल। चंद्रशेखर जी मंच पर आकर उनके नाम का समर्थन कर अभी अपनी कुर्सी पर जा कर बैठे भी नहीं थे कि देवीलाल मंच पर से बोले कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे क्योंकि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती अतः वह प्रधानमंत्री पद के लिए श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के नाम का प्रस्ताव करते हैं। चंद्रशेखर जी ने गरज कर कहा कि वह वीपी को अपना नेता नहीं मानते, और अपनी चादर झाड़कर पीठ पर फेंकते हुए सभागार से बाहर निकल गये, वह कितने नाराज थे यह राम जेठमलानी शायद आजतक नहीं भूले होंगे।
सारे राजपूत क्षत्रपों ने हर्षध्वनि कर वीपी का समर्थन और स्वागत किया कि हेमू (पानीपत के द्वितीय युद्ध १५५६) वाले हेमू के बाद वीपी (राजा मांडा) दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले पहले राजपूत हैं, नारे लगाए गए कि " राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है"। वीपी ना ना करते हुए प्रधानमंत्री भी बन ही गये। तब एक नया नाम बड़ी तेजी भारतीय राजनीति में उभरा- राम विलास पासवान।
कांसीराम बसपा बना चुके थे पर उनको अभी राजनीतिक जमीन नहीं मिल पायी हां शायद वह सांसद बने थे पंजाब में कहीं से, उनके सवर्ण होने और मायावती नाम की किसी महिला के साथ उनके बारे में कुछ अटपटी खबरें जरूर चर्चा में थीं पर कांसीराम को सवर्णों के खिलाफ एक जहरीले वक्ता से अधिक नहीं जाना जाता था जैसे तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार, या भूराबाल साफ करो भू से भूमिहार, रा से राजपूत, बा से बाभन और ला से लाला।
चंद्रशेखर जी नाराज तो थे पर ताऊ देवीलाल ने उनको मना भी लिया और बिहार तथा उत्तर प्रदेश में जनता दल को जो बहुमत मिला था उसके मुख्यमंत्रियों के नियुक्ति की जिम्मेदारी इनको दी गई। उसके बाद भारत के लोकतांत्रिक क्षितिज पर दो नाम और उभरे एक अटपट बोलने वाले लालू यादव और दूसरे लटपट बोलने वाले मुलायम सिंह यादव।
जनवरी १९८९ में इसप्रकार एक नये राजनीतिक तंत्र का गठन हुआ। इधर विश्व हिन्दू परिषद् ने ३० अक्टूबर और २ नवंबर को अयोध्या जी में कारसेवा करने की घोषणा की, जिसके राजनीतिक पृष्ठभूमि की तलाश में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा लेकर जब अक्टूबर १९८९ के प्रथम सप्ताह में निकले तो देश की राजनीति और पूरा देश गरमाने लगा। विश्वनाथ प्रताप सिंह मनमोहन सिंह बन गए, एकदम धृतराष्ट्र। भाजपा के लगातार बढ़ते ग्राफ की काट मंडल कमीशन की रिपोर्ट को अगस्त में लागू कर तोड़ा जाना तय हो गया, मंडल कमीशन लागू हो गया और पूरा देश आरक्षण की विरोध और समर्थन की आग में जलने लगा किन्तु आडवाणी के साथ थोड़ी भी छेड़छाड़ का मतलब था भाजपा द्वारा समर्थन वापस और उनकी सरकार का गिरना पर आडवाणी को न रोकने से एक बहुत बड़ा हिंदू मतदाता वर्ग भाजपा की ओर झुका जा रहा था। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने स्पष्ट कर दिया था कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता जिससे मुसलमान उनके समर्थन में आ गए, मुसलमानों के बढ़ते झुकाव को देखते हुए लालू की भी हिम्मत बढ़ गई और उसने भी स्पष्ट घोषणा कर दिया कि वह आडवाणी के रथ को बिहार पार होने नहीं देगा और हुआ भी वही आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जहां से आडवाणी ने वीपी सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
अब वीपी यह कहने लगे कि वह इस्तीफा नहीं देंगे भाजपा अपने समर्थन वापसी पर विचार करे।

शेष शीघ्र ही
नमस्कार!
आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश
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