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व्यंग ही व्यंग

दिल गिरा कहीं पर... दफ़्फ़ातन...

दिल गिरा कहीं पर... दफ़्फ़ातन...
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वो तेज़ी से मेट्रो की सीढ़ियाँ उतरता चला जा रहा था कि अचानक लगा जैसे वक़्त रुक गया हो। सब कुछ अचानक अपनी नैसर्गिक गति से दो सौ गुणा कम पर आ गया हो... बगल से ऑफ़-व्हाईट रंग की पारभासी टाॅप, गले में बहुत ही हल्का फ़्लोरल पैटर्न वाला स्कार्फ़, जो गले में भी था और हवा में भी, चेक वाली स्किन-हगिंग पैंट जो काले कलर की थी और उस पर ग्रे कलर के चौकोर डब्बे बने हुए थे। पैरों में ग्लेडिएटर सैंडल, ऊँगलियों पर पैंट से मैच करता काला नेल कलर था।

थमे हुए उन लम्हों में उसके साथ उतरने वाली लड़की की भी सापेक्षिक चाल शून्य हो गई थी और वक़्त, उसके लिए भी, बहुत धीरे-धीरे बह रहा था।

तभी लड़की का स्कार्फ़ उसके चेहरे से टकराया। स्कार्फ़ पर हल्के गुलाबी रंग के ऑर्किड के पैटर्न बने थे, और बैंगनी रंग के छोटे-छोटे उजले छींटों वाले कई फूल बेतरतीबी से इघर-उधर बिखरे थे। वो ये महसूस करता रहा और आँखें बंद कर सीढ़ियाँ उतरता रहा। उसके लिए समय अभी भी धीरे चल रहा था।

स्कार्फ़ के चेहरे पर से हटने के क़रीब सेकेंड के सौंवे हिस्से पहले उसने एक ख़ुशबू महसूस की जो बेशक उसी लड़की के हाथ उठाकर स्कार्फ़ को ज़ब्त करने की तकोशिश में बिखर गई थी। उसने आँख नहीं खोली। ख़ुशबू उसके अंदर तक उतर रही थी और साथ ही क्षीण भी हो रही थी। बंद आँखों से वो मानो उस झोंके के अंतिम कण तक को भीतर खींच लेना चाह रहा था।

आँख खुली और वक़्त अपनी लय में आ गया था। पास में कुछ नहीं था, कोई नहीं था। फिर लोगों का रेला-सा आया और उसे रगड़ता हुआ महानगर में होने का अहसास दिलाता आता-जाता रहा। सपना कहीं जा चुका था पर सपनों की धुँधली-सी लाग पलकों के भीतरी हिस्से में कहीं ज़िंदा साँस ले रही थी।

नोएडा सेक्टर अठारह की दाहिनी तरफ़ के गेट से वो निकला। बेरहम गर्मी, ऊँगलियों के ऊपरी चमड़ी को जला रही थी। समय अचानक से तेज़ चलता प्रतीत हो रहा था, सब भाग रहे थे गर्मी से बचने को। मेट्रो का गेट वहीं खड़ा था। वो बहुत देर तक गर्मी में जलता रहा और गेट को घूरता रहा। क्यों घूर रहा था पता नहीं!

उसने पलकें झपकायीं और धुँधला सा स्कार्फ़, जो रंगीन से श्वेत-श्याम हो चुका था, थोड़ा दानेदार, काले-उजले रंगों के तमाम हल्के और गहरे रंग के महीन, गोल-गोल दानों से बने हुए ऑर्किड और छोटे फूलों की आकृतियाँ बना रहा था। उसने आँखें बंद रखी इस उम्मीद में की शायद रंग उभरेंगे, पर वैसा हुआ नहीं। पलकें एक बार और झपकीं और आँख खुली तो लगा कि हवा में स्कार्फ़ उड़ रहा था, ऑर्किड तैर रहे थे। लेकिन उजले और काले रंग के शेड्स में था सब कुछ।

पसीने की एक बूँद बालों के छोर से सीधे पलकों पर गिरी और आँखों में जलन हुई। उसने रूमाल निकाला और पोंछते-पोंछते रुक गया कि कहीं स्कार्फ़ का धुँधलापन भी ग़ायब ना हो जाए। ये सोचते-करते वो माॅल के गेट पर पहुँच गया था। गार्ड ने तलाशी लेते वक़्त जोर से पैंट दबाया, और हथेलियों से टटोलते नीचे गया तो उसके समय का बोध तीसरी बार सामान्य हुआ। दुनिया वैसी ही दिखी जैसी सात मिनट पहले थी, जब समय पहली बार धीरे हो गया था।

उसने सर को झकझोड़ा कि क्या हो रहा है। एक एसकेलेटर चढ़ा, फिर दूसरा, तीसरा और ऐसे करते-करते फ़ूड कोर्ट तक पहुँचा। नज़र अचानक से कहीं जाकर अटक गई और लौटी तो अचानक से स्कार्फ़ रंगीन हो गया था। उसने पलकें भींची, खोली, फिर भींची और फिर खोली... ये स्कार्फ़ रंगीन कैसे हो गया! ऑर्किड हल्का गुलाबी हो चला था, तैर रहा था वो जहाँ भी देखना चाह रहा था...

गर्दन घुमायी तो देखा स्कार्फ़ जिसके गले में थी वो अकेली बैठी आईस्क्रीम सन-डे को बहुत ही प्यार से खा रही थी। समय अचानक तेज़ हो गया। उसने भी एक सन-डे लिया और सीधा उसी के टेबल पर बैठ गया।

लड़की ने नज़रें उठाई तो पलकों की खिड़की से बस उसकी गहरी-सी, बड़ी-सी, काली आँखें दिखीं। उसने कुछ पूछा, इसने कुछ जवाब दिया। समय रुकने को हुआ, और इतना धीरे हो गया कि उसे लड़की की एक भी बात सुनाई नहीं दे रही थी। सर हिलाता रहा, मुस्कुराता रहा।

वो लड़की की मुस्कान को देखता रहा। ताज़े नारंगी के फाँकों की तरह ख़ूबसूरत और ज़िंदगी से लबरेज़ उसके होंठ उस धीमे समय में इतने स्पष्ट हो चले थे कि, होंठों के उठने-गिरने के बावजूद, एक-एक लकीर पर लड़के की नज़रें गहरे उतर रही थी।

फिर लड़की अपनी जगह से उठी, तो वो भी उठ गया। क्यों उठा, उसे पता नहीं था, वो बस उठ गया। लड़की शायद कुछ और लाने जा रही थी पर वो एसकेलेटर की ओर बढ़ गया।

धीमी आवाज़ में गाना बज रहा था: दिल गिरा कहीं पर... दफ़्फ़ातन...



अजीत भारती
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