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व्यंग ही व्यंग

भादो की अन्हरिया रात का महीन सौंदर्य झाँकने की एक कोशिश

भादो की अन्हरिया रात का महीन सौंदर्य झाँकने की एक कोशिश
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रात के पौने दस बजने वाले हैं।घर की छत पर हूँ।बिजली नहीं है।बिजली नहीं होना ख़राब बात है पर आज ये एक मौका है मेरे लिए।

भादो की अन्हरिया रात का महीन सौंदर्य झाँकने की कोशिश कर रहा हूँ।एक जुगनू ठीक मेरे सामने बेल के पेड़ पर टिमटिम कर रहा है।समी के मंझोले पेड़ से कुचुं कुचुं कुचुं की कुछ आवाज़ आ रही है,कुछ जुगनू कीर्तन कर रहे हैं शायद।

दिन में बारिश हुई थी, हवा में ठंडक है थोड़ी थोड़ी।
ये हवा अच्छी लग रही है जैसे कोई थके आदमी का सर सहला रहा हो।
मैं अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहा हूँ कि हवा किधर से चल रही है?

असल में मैं अपने अंदर के गांव का परीक्षण कर रहा हूँ और देखना चाहता हूँ कि मेरे अंदर गांव कितना बचा है।और इसी खातिर आजमा रहा हूँ खुद को कि चलती हवा का रुख पकड़ पाता हूँ की नहीं।

मैं इस जतन में हूँ कि पछिया और पुरवाई के पहचान की नजर न खो दूँ।
अभी शायद पूरब से हवा चल रही है।

मैं गलत भी हो सकता हूँ। पर छत के पास एक खिड़की का छज्जा निकला हुआ है जिसमे एक लालटेन टंगी है,मैंने उसके हिलने की दिशा को देख अंदाज़ा लगाया है कि ये पुरवा है।

आसमान भी बिलकुल साफ़ है इसका मतलब है कि हवा पछिया नहीं है।क्योंकि भादो के महीने अगर पछिया चले तो बादल ले के आयेगी और वर्षा होगी जरूर।
ऐसा मैं सिर्फ इस आधार पर कह रहा कि हर दिन बादल को वर्षा के समय पश्चिम से आता देखा पिछले 10 दिन में।

घर के ठीक पीछे पलास का जंगल है।अब वहां से कुछ तेज़ आवाज़ अचानक से आनी शुरू हो गयी है कोरस के स्वर में।
ये शायद बड़े वाले झींगुरों की मंडली है जो मिल के कजरी गा रहे होंगे।

इसी बीच एक कर्कश सी आवाज़ आयी है।ये कोई पंछी है,कौन है नहीं पता।इसकी आवाज़ अचानक से सुनता हूँ तो सिहर जाया करता हूँ रात बिरात.. बचपन से ही इसकी आवाज़ डरा देती थी कभी कभी।

पर अब अच्छी लगती है, क्योंकि डरूँगा तो गांव की आवाज़ खो दूँगा।शहर में रोज कितना कुछ् कर्कश सुनता हूँ,झेलता हूँ।उसे जब याद किया तो लगा पलास के जंगल से आयी पंछी की आवाज़ येशु दास के गीत की तरह सुरीले हैं,भला पंछी भी कहीं बेसुरे होते हैं क्या।

अभी अब आसमान की तरफ देख रहा हूँ।
याद नहीं कि इससे पहले कब इतना भरा हुआ और चित्त को कब इतना स्थिर कर बैठा था कि एकटक आसमान को देख सकूँ।

ग़जब सौंदर्य है आकाश का।इतना साफ़,चमचम।
तारे इतने साफ दिख रहे जैसे किसी नीले सरोवर के साफ पानी में तैरती मछली देख रहा हूँ।
ये लीजिये, सतभयवा दिख गया है। इसे खगोल विज्ञान सप्तऋषि तारा समूह के नाम से पुकारता है।
उत्तर और पश्चिम के बीच है कहीं इसकी दिशा, शायद उत्तर की तरफ ज्यादा कहिये।

बचपन में हमेशा की संगत थी इन सप्तऋषियों से,एकमात्र संत की संगत.. बाकि तो पूरा बचपन चोरी चकारी,मार पीट,लड़ाई फौजदारी में बीता।
क्या संयोग है, असल में ये तारा समूह साल भर में सामान्यतः चैत फाल्गुन से लेकर सावन भादो के समय और अंतिम बार भादो अमावस्या तक ही साफ़ साफ़ दिखता है।

बढ़िया लक कहिये,आज भी भादो की रात थी।बचपन में भी ट्रॉय मारता था कि पहचान पाऊँ कौन सा तारा कौन से ऋषि हैं।तब मेरी परनानी थी,वो बताती थी कि, "पहिलका तारा बशिष्ठ हवें, दोसरका विशुआमीत।"
मैं तब भी ठीक ठीक नहीं जान पाया और आज तक नहीं जान पाया।

आज तो अकेला रह गया हूँ।परनानी नहीं रही ।अब एक बार अकेले कोशिश कर रहा हूँ।टटोल रहा हूँ तारामंडल,कौन हैं वशिष्ठ और कौन विश्वामित्र..भारद्वाज और अत्रि कौन हैं?
कौन वामदेव और कौन हैं शौनक या गौतम?

मुझे एक बार मेरे बड़े दादा ने बताया था,वामदेव संगीत के ऋषि थे और शौणिक शायद कुलगुरु यानि टीचर टाइप कुछ..मैं सोंचता था जब धरती से जाऊंगा तो वामदेव के आस पास ही रहूँगा।
मेरे बड़े दादा बड़े पुरोहित थे,मेरे दादा पढ़ाई को लेकर ग़जब के सजग
थे बड़े..शायद ये दोनों भाई शायद मुझे ऋषि शौणिक ऋषि के आश्रम में देखना चाहते।

अभी मुझे थोड़ा सा अंदाज़ा लगा है कि तीसरे नंबर पर शायद भारद्वाज हैं और उसी के ठीक बगल एक छोटी सी बिंदिया है तारे की जो शायद "अरुंधति" है,उसके थी पास एक और सितारा चमक रहा।मैं सोंच रहा हूँ,वो मेरी परनानी है।
भारद्वाज बृहस्पति के पुत्र हैं, मेरी परनानी जीवन भर व्रत पूजा कर मंत्र जपते गयी तारामंडल में, उसे पक्का बृहस्पति का ही परिवार मिला होगा।

मेरी आँख में अब आंसू है।मेरी परनानी मुझे देख रही है,मैं छत पर हाथ ऊपर किये उठ खड़ा हुआ हूँ..सितारे और जमीन के बीच नहीं नापी जाने वाली दुरी है।सबको सप्तऋषि का घर नहीं मिलता।
ओह् अब बिजली आ गयी है।मेरा सब हासिल खो गया उजाले में।जय हो।


नीलोत्पल मृणाल
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