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भोजपुरी कहानिया

रासबिहारी : आशीष त्रिपाठी

रासबिहारी : आशीष त्रिपाठी
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एक हैं रासबिहारी ,सौंदर्य के परम उपासक । राह चलते श्रृंगार रस से ओत - प्रोत द्विअर्थी पंक्तियां रच देना और किसी महिला को सुना देना उनका नित्य कर्म है । उनकी द्विअर्थी रचनाएँ सुन कुछ महिलाएं ही ही करती हुई घरों में भाग जाती हैं और जिनको बुरा लगता वो गाली दे देती हैं ।

गालियों का रासबिहारी ने कभी बुरा नहीं माना । उनके अनुसार यह रचनाओं पर मिला प्रसाद होता है , किसी रचना पर प्रशंसा या गाली निकलवा लेना रचनाकार के रचनाकौशल को दर्शाता है , अतः गालियाँ सुन वे मस्ती में दूसरे श्रोता को दूसरी रचना सुनाने आगे बढ़ जाते हैं ।

वृद्ध हैं तो उनके शाब्दिक दुराचार को लोग सह लेते हैं , लेकिन भुआली की पत्नी दिलजानी तंग आ चुकी थी । एक दिन पति से कह दिया - " मन करता है बुढ़वा का फफेला धइ के चाँप दें "

भुआली ने मना किया - " बुढ़वा मुकदमे बाज भी है , आज का बदला चार साल बाद लेगा , मारेगा भी और रोने भी नहीं देगा । सोसाइटी से ट्रैक्टर निकलवा लेने के बाद जब कर्ज की वसूली के लिए तहसील से नोटिस आने लगा तब बुढ़वा ने ऐसा दांव चला कि सोसाइटी वाले ही गबन के मुकदमे में फंस गए और आज तक उसकी चरण वंदना कर रहे हैं । इसलिए भलाई इसी में है कि उसको देखकर रास्ते से हट जाया करो "

दिलजानी को पति की बात अच्छी नहीं लगी थी । इधर , सब महिलाओं को समान दृष्टि से देखने वाले रासबिहारी को दिलजानी पर कुछ ज्यादा नेह उमड़ आया था शायद । अब रोज ही उसके घर की तरफ से निकलते और जेब में दो हजार के कुछ नोट इस तरह रखते कि सामने वाला आसानी से देख ले । एक दिन दिलजानी के बच्चे को गोद में उठा लिया और उसके गाल पर पुच्ची देकर कहा - " एकदम अपनी अम्मा पर गया है बिटवा ! इसको साफ शुद्ध कपड़े काहें नहीं पहनाता बे भुआली "

भुआली कुछ कहता तब तक दिलजानी बोल पड़ी - " घर में आटे - दाल का ठिकाना नहीं और आप कपड़ों की बात कर रहे हैं काका ?"

रासबिहारी ने जेब पर हाथ फिराया - " ऐसे कैसे आटे - दाल का ठिकाना नहीं रहेगा ? हम मर गए हैं का ?"

दिलजानी नजदीक आ गई - " काका तुम्हारे मरने जीने से हमारे ऊपर क्या फर्क पड़ने वाला है ? हम तो इस निकम्मे के कमाई का ही आस कर सकते हैं न ?"

-"तो ई भुअलिया हमारा लड़का नहीं है का ? " भुआली की तरफ देखकर जोर से गरजे - " बोल बे भुअलिया तोरे दादा का और मेरा ससुराल एक ही गाँव में था या नहीं ? और उस हिसाब से तू मेरा लड़का हुआ या नहीं ?"

भुआली ने दांत दिखाते हुए कहा - " हाँ काका सही कहा , आप इतने बड़े रुतबा वाले होकर हमको अपना बेटा मान रहे हैं तो मैं धन्न हो गया "

-"बात सही है तो आज हमारा खाना तुम्हारे घर ही बनेगा और देखते हैं कि गरीबी कितना दिन तुम्हारे घर रहती है "

इस बीच भुआली का लड़का उसके भाई के दुआर पर दीर्घ शंका कर चुका था । उसकी भौजाई गरजते हुए बाहर आई , आम दिन होते तो चढ़ बैठती लेकिन रासबिहारी को भुआली के साथ खड़ा देख उल्टे पैर घर में भागी । दिलजानी जिस जेठानी का मुँह लाख कोशिशों के बाद भी बंद नहीं करा पाती थी उसे ऐसे भाग खड़े होते देखा तो समझते देर नहीं लगी कि यह रासबिहारी का प्रताप है ।

घर के भीतर खटिया बिछा कर बैठाया - " बैठिए काका ! फिर पति की ओर देखकर बोली - " जाओ बाजार से मुर्गा और तेल मसाला लेकर आओ , काका पहली बार घर पर जीमेंगे तो सादा - सुदा थोड़े ही बनेगा "

भुआली सोच में था । क्या हुआ है इस औरत को ? अभी तक इस बुड्ढे को देख जलती - सुलगती रहती थी और अब मुर्गा खिलाने पर आमादा है । रासबिहारी ने उसे चुप देखकर कहा - " पैसों की चिंता मत करो बे ! मेरा नाम बताकर उधार लाओ "

दिलजानी इस फिराक में थी कि रासबिहारी जेब का नोट निकाल कर देगा लेकिन तसल्ली हुई कि उधारी भी उसी के नाम लिखी जानी है । मुर्गा और शेष सामग्री आ गई , रासबिहारी ने छक कर खाया और अब ये आये दिन की बात हो गई । इनके मारक दोहे अब भी निकलते और दिलजानी हँस कर रह जाती । इस बीच जेठानी सहित तमाम पड़ोसी अपनी औकात में आ चुके थे । कोई दिलजानी की गलती पर भी उससे कुछ न कहता ।

हफ्ते भर बाद एक दिन गजब हो गया । दिलजानी की जेठानी ने उसके बच्चे को इसलिए पीट दिया क्योंकि उसने उसके मकान की नींव पर पेशाब कर दिया था । हाथ भांजते जेठानी के दरवाजे पर चली आई - " तुम्हारी इतनी हिम्मत कि हमारे बच्चे पर उठाओगी ?"

जेठानी ने तड़ककर उत्तर दिया - " फिर यह गलती हुई तो मार मार कर जान निकाल लेंगे , हमारा घर - दुआर तुम लोग का मुतखाना नहीं है "

दिलजानी को जेठानी की ऊँची आवाज खल गई । बाल पकड़ कर घसीटते हुए ओसारे से नीचे ले आई - " बोल ! बुलाऊँ रासबिहारी काका को ?"

भुआली को लगा कि दिलजानी चाहती है कि रासबिहारी आएं । भाग कर उनके घर पहुँचा तो नदारद मिले । इधर दोनों में मल्ल युध्द चरम पर था , भुआली ने छुड़ाना चाहा मगर असफल रहा । दिलजानी ज्यादा पिट रही थी तो भुआली ने 112 नम्बर पर फोन कर दिया । पुलिस समय से आई , कानून में वादी का हित सर्वोपरि भले होता हो लेकिन इस मामले में पुलिस वालों को जैसे सब कुछ पहले से पता था । सिपाही ने गरज कर कहा - ", दूसरे के दुआर पर तुम्हारा लइका हगेगा ससुर ? गुंडागर्दी करेगा ?" कहकर उसने एक बेंत भुआली के तशरीफ़ पर बजा दिया ।

दिलजानी को रासबिहारी आते दिखे तो हिम्मत करके बोली - " लइका हगने का बात नहीं है साहब ! ये मेरे घर बड़े लोगों के उठने - बैठने पर जलती है , रासबिहारी काका से हम लोगों की पट रही है तो इसके कलेजे पर साँप लोटने लगा "

रासबिहारी ने डपटा - " अनर्गल बात नहीं करनी चाहिए दिलजानी । ये बेचारी तो मुझे देखकर पल्लू पर सिर रखकर भीतर जाती है , इज्जत करती है , इसे मुझसे जलन क्यों होगी भला ? "

जेठानी ने पैर पकड़ लिया - " एकदम न्याय वाला बात बोले हैं काका । मेरा मरद बाहर कमाता है , मैं तो खुद ही इज्जत पानी बचाकर घर में पड़ी रहती हूँ , अपने दुआर पर गंदगी करने से मना करने के अलावा एक जबान कुछ बोला हो तो जीभ गल जाए मेरी ।"

पुलिस वालों को पता नहीं क्या इशारा किया रासबिहारी ने कि उन्होंने भुआली को मोटरसाइकिल पर बिठा लिया और चलते बने । भीड़ तितर - बितर हो गई लेकिन रासबिहारी जमे रहे और दिलजानी की जेठानी के घर में घुस गए और हँसते हुए बाहर आये । दिलजानी तड़प उठी - " का काका ! मीट - मुर्गा हमारे यहाँ ठूंसते हो और हमारे ही दुश्मन से के साथ खड़े हो , लगता है इस छिनाल ने तुम्हारी वाली सुन ली ?"

रासबिहारी को गुस्सा आया - " संसार में इससे नीच कर्म नहीं है कि खिलाने के बाद सुनाया जाय । तुम गाँव भर से झगड़ा करती चलो तो बहुत अच्छी बात है , हम न्याय का बात कर दिए तो बिलबिला उठी ? बुढ़ौती में हमको यही सब सूझ रहा है ?"

बात सही थी , रासबिहारी शब्दों से चाहे जितने कमीने हों लेकिन अपनी कविताओं के अनुरूप आचरण से परहेज रखते थे । एक बार थोड़ी मजनूगिरी साले के ससुराल में दिखाई थी उन्होंने । साले की सास और सलहज से ऐसी मार पड़ी कि गांव के बाहर कभी कविता पाठ करने का साहस नहीं हुआ , गाँव में किसी की हिम्मत नहीं थी कुछ बोलने कि इसलिए यहीं पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर लेते थे । दिलजानी को कुछ कहा नहीं जा रहा था , पति को छुड़ाने थाने की ओर चल पड़ी ।

थाने पर कुछ रुपये न्योछावर करने के बाद रात गए पति पत्नी घर आये । अगली सुबह भुआली भौचक्का सा दिलजानी के पास आया - " मैं कहता था कि उस रासबिहरिया के चक्कर में पड़ो लेकिन तुम अपने आगे किसी की चलने दो तब न ?"

- "हुआ क्या है ?"

- "अरे भैया कमा कर आ गए हैं , आज रासबिहारी के घर की तरफ गया तो देखा उसके ओसारे में बैठे थे । पता चला है कि जिवनवा का खेत हड़पने के चक्कर में उसे गवाह फोड़ना था । मेरे घर बैठकर उसने भौजाई को डराया और जब वो चुंगल में आ गई तो उसकी ओर खड़े हो गए और उसको माफ करने के पीछे शर्त रखी कि भैया अब उसके लिए गवाही दें । अभी तक वो जिवनवा के गवाह थे और अब रासबिहरिया की ओर से गवाही देंगे । "

-"जहन्नुम में जाये बुढ़वा , अब आएगा तो लुआठी से खबर लूँगी उसकी "

-"अब कहाँ आने वाला है वो "....भुआली का चुप होना था कि बाहर रासबिहारी ने पुकारा । दोनों बाहर आये तो देखा कि रासबिहारी मुर्गे वाले के साथ खड़े थे ,भुआली को सम्बोधित किया - " उधारी का लेन - देन हफ्ते दस दिन का होता है बेटा ! तुम तो भूल ही गए एकदम से "

दिलजानी की तरफ देखते हुए भुआली के होश उड़े । फिर रासबिहारी की तरफ देख कर बोला - " मगर मैंने तो आपके कहने पर उधारी में आपका नाम लिखवाया था ।"

रासबिहारी को बड़ा बुरा लगा - "अरे वाह बेटा ! नौ किलो मुर्गा तुम मेरे नाम पर उठा लाये ? हम इतने बड़े खभोर दिखते हैं क्या तुमको ? भलाई इसी में है कि इसके पैसे दे दो वरना बाद में गाली - गलौज ,मार - पीट की नौबत आने पर मुझे दोष मत देना "

बहरहाल ! भुआली किसी तरह मुर्गे का पैसा चुकता कर चुका है । उसके बड़े भाई की गवाही भी हो चुकी है । रासबिहारी अब भी उधर से गुजरते हैं , स्वरचित कविताओं का सस्वर गायन करते हुए । अब दिलजानी को फिर से गाली देने का मन होता है लेकिन परिणाम सोचकर आत्मा हिल उठती है इसलिए कुछ नहीं कहती , जबकि उसकी जेठानी हँस कर रह जाती है ।

आशीष त्रिपाठी

गोरखपुर

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