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भोजपुरी कहानिया

श्रृंगार की पंखुड़ियाँ...!

श्रृंगार की पंखुड़ियाँ...!
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ऐ पँड़ाइन , सुनो न!

लेखन की दुनिया के सभी कलमकारों की कलम "प्रेम" लिखने लगी है...., बताओ न ! बसन्त आ रहा है क्या?

तुमको ज्ञात है ? ई बसन्त और सावन हमारे आँख की दोनों पुतरी है....., इन्ही दोनों के मध्यबिंदु "भाल" पर हम सुर्ख लाल चंदन के रूप में तुम्हारी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं।

मुझे ज्ञात भी नही कि , मैं जो लिखता हूँ वो साहित्य है भी या कुछ और ? ख़ैर छोड़ो न ..! अगर ये कुछ और है तो हम कुछ और ही लिख के स्वयं को तुलसी बूझ लेंगे।

मेरी कलम , अपवाद छोड़ दें तो मात्र तुम्हारे स्मरण में ही उठा है......, और रच के लिखा है तुमको। आज 'शुक्ल' जी होतें तो पिनिक गए होतें और हमारे लेखन को आशिकाना प्रलाप कह के ख़ारिज कर देतें।

लेकिन नहीं....., मैं लड़ जाता उनसे जानती हो काहें ?

मैने ही तुमसे कहा था न .....कि तुम मेरी अभिव्यक्ति हो।

फिर उन्हें भी अधिकार नहीं मेरी अभिव्यक्ति की समीक्षा करने का। अच्छा तुम्हें तो अब मेरे सभी अक्षर सुने-सुने से लगते हैं......, फलतः तुम कम ही पढ़ती हो हमें .......!

लेकिन मेरा निष्काम कर्मयोग सदैव तुम्हें साधने में रत है...., तुम्हें हरि मान कर साधते रहें हैं..... , लेकिन न जाने क्यूँ तुम्हें असाध्य होने में ही आनंद है...!

तो सुनो....! यदि तुम हरि नहीं हो , तो मेरी साधना तुम्हें हरि न बना सके तो मैं अपनी साधना को छल मान जाऊँ।

तुम तो ना जाने क्या - क्या भूल जा रही हो....! किन्तु खेत के पगडंडियों पर जा के सरसो के कुछ पीले फूल चुन लेना......, उनकी पंखुड़ियों को तोड़ कर हथेली पर रख लेना......, यदि मैं उन्हीं फूलों के पंखुड़ियों के बीच दिखा तो समझ लेना बसन्त आ गया है..!

पँड़ाइन...! अब तुमसे लड़ने का जी नहीं करता...., आखिर लड़ता भी तो किस लिए ? लड़ के मैं तुम्हें पा तो सकता हूँ लेकिन तुम्हारे नयनों में वो भाव नहीं पा सकता जिसे मैं लिखता हूँ...!

और हाँ..! तुम मेरे इन भावाक्षरों से दूर नहीं जा सकते...... , जानते हो क्यों ? जीवन में मैं रहूँ या न रहूँ , फिर जब भी तुम 'मेरे मुस्कुराहट के साथ विषवमन' की कला को याद करोगे , तो यही भावाक्षर की पांडुलिपियाँ तुम्हारे दामन को बसन्त से भर देगी।

आज इस जबरदस्ती की आधुनिकता में मेरे विचारों व भवनाओं को मत समाहित करो....., कच्चे आम के टिकोरों की भांति मेरे निर्दोष भावनाओं पर नाखून से कुरेद कर उनके आधुनिकता व परिपक्वता का परीक्षण मत करो।

मेरी आधुनिकता यह है , कि बसन्त आता मेरे यहाँ है, वहीं जहाँ सरसो नवयवनाओं के ओढ़नी में फंस कर उन्हें इस मादक उत्सव का न्योता देते हैं...., लेकिन वैलेंटाइन कह के वह छद्म आधुनिक समूह उत्सव मनाता है जहाँ सरसो खुद को फँसा लेने के लिए ओढ़नी नहीं पाता।

हह..बहुत गाम्भीर्य लिए है न ये बसन्त......! बस इतना कहूँ तो ये फूल ये सिहरन लिए समीर हमें "तुम" को लिखने हेतु प्रेरित करतीं हैं....!

एक बात कहें? तुम मेरी काव्य प्रेरणा हो, अभिधा हो, लक्षणा भी तुम हो....., बस इस बयार से लड़ते हुए खड़े इन पीले फूलों को याद रखना...!

देखना तुम मेरे काव्य सर्वस्व बन जाओगे....!

अमन पाण्डेय

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