Janta Ki Awaz
भोजपुरी कहानिया

तुहके पुतरी में राखी लें परान के तरे...

तुहके पुतरी में राखी लें परान के तरे...
X


दीवारों से न सिर्फ प्लास्टर उखड़ चुके थे अपितु ईंटों के मध्य संधि स्थापित कराने वाले सीमेंट और रेत भी धीरे - धीरे विदा हो चले थे । ईंटें फिर भी बिना किसी मध्यस्थता के एक दूसरे का हाथ थामे उस बड़ी सी इमारत के खँडहरनुमा अस्तित्व को भरसक बचाये रखने की कोशिश कर रहीं थीं ।

फगुनी मिसिर इस इमारत के इकलौते रहवासी हैं । सुबह उठते ही एक दौरा लगाकर जाले साफ कर लिया करते हैं । दक्षिण तरफ की दीवाल जिसकी कमर टेढ़ी हो चली थी , उस पर साखू के थोक का सहारा देना उनकी दूरदर्शिता का परिणाम था वरना इस बरसात में दक्षिणी हिस्सा गिरना तय था । दरवाजे पर खड़ी मैसी फर्गुसन पर नजर गई तो उस पर फिर एक पीपल उग आया था । जाकर उसे उखाड़ा और गमछा कंधे पर रख भोला की दुकान पर चल पड़े । भोला की दुकान गांव की इकलौती जगह है जहां वो जाते हैं , खैनी खरीदने ।

भोला ने फगुनी की ओर देखा , उनके चेहरे पर चिंता की रेखा थी - " क्या हुआ काका , कुछ सोचा ? "

फगुनी ने याचना की -"दाम ठीक लगाओ भाई ! सौदेबाजी में फेल ही हुआ हूँ , आखिरी सौदा है इसमें ठगाना नहीं चाहता । "

-" ट्रैक्टर लोहे के भाव ही बिकेगा काका ! मकान भी खँडहर हो चुका है , आखिरी दाम बोलता हूँ ....चार लाख ! "

फगुनी संतुष्ट हुए - " कब दे रहे हो ?"

-"आज ही ले लो ! और जब तक जिंदा हो चाहो तो एक कोने में पड़े रहो !"

दोपहर तक भोला ने पैसे दे दिए , अगले दिन रजिस्ट्री हुई और उसके बाद शहर के उस बड़े से अस्पताल में एक प्राइवेट वार्ड के बाहर बहुत देर तक खड़े रहे , भीतर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी । तभी अंदर से सुभाष बाहर आया । फगुनी को देख उसे आश्चर्य हुआ - " अरे काका आप यहां ?"

"कैसी है वो ?"....होंठ काँप रहे थे फगुनी के ।

-"कैसी रहेगी काका ? जीने की इच्छा ही नहीं है जैसे "

-"एक बार देख लूँ ? "

सुभाष ने रास्ता दे दिया । फगुनी भीतर गए तो आश्चर्य हुआ , 55 साल की दुलारी उन्हीं की दी हुई शॉल ओढ़े , सिरहाने से पीठ टिकाये कुछ सोच रही थी । मुख कांतिहीन हो चला था , शरीर भी आधा । आहट हुई तो उसने फगुनी की तरफ देखा और दुगने आश्चर्य में वो डूब गई । टेढ़ी हो चली कमर , झुर्रियों भरा चेहरा , सफेद बाल और निस्तेज आंखें ...आँसुओ से भरी हुई । यकीन न हुआ कि ये वही फगुनी मिसिर हैं जो रूप और धन में गाँव मे सर्वश्रेष्ठ थे । मुस्कुराते हुए बोली - " नहीं रखा न मान मेरी कसम का ? कर ली मनमानी ?"

भर्राई सी आवाज आई - " ऐसा न कहो ! तुम्हारी कसम का मान मैं प्राण देकर भी करता । लेकिन इंसान ही हूँ न ? मतिशून्य हो गया था तुम्हारी बीमारी सुनकर सो चला आया "

-" चलो अच्छा ही किया ! शायद इस कसम का प्रभाव देखने के लिए ही जिंदा थी "

फगुनी को झटका लगा । एक पल वहाँ खड़े न रह सके , बाहर आकर रुपये सुभाष को दिए और सरपट अस्पताल से बाहर आ बस स्टैंड की तरफ बढ़ गए । बस पकड़ी और घर की राह ली ।

दुलारी जिसे मनमानी समझती है उसमें फगुनी का दोष था या नहीं ? इसका न्याय वो ईश्वर पर छोड़ चुके हैं। चकबन्दी का समय था और फगुनी मिसिर के पिता जी को अपने गोयड़े का खेत किसी भी हाल में छोड़ना नहीं था । पता चला कि हलके के कानूनगो व्यावहारिक आदमी हैं , लेन - देन करके बात बना देते हैं सो फगुनी की बुलेट के पीछे बैठे और पहुँच गए एक शाम कानूनगो साहब के घर । इधर पाँच हजार में मामला तय हो रहा था उधर चाय रख कर जा रही दुलारी से आँखें चार होने के बाद फगुनी मिसिर बेहाल हुए जा रहे थे । आकर्षक युवा थे सो दुलारी भी नजरें मिलने के बाद तुरन्त नजरें हटा नहीं पाई थी । चले जाने के बाद परदे की ओट से उसे अपनी ओर निहारते फगुनी देख चुके थे ।

ज्यादा दूर नहीं था कानूनगो साहब का गाँव । एक शाम बुलेट उठाई और पहुँच गए उनके दरवाजे पर । घर में अकेली दुलारी ने फगुनी बाबू को देखा तो उसे भी भान हो गया कि मामला वही है जो उसके दिल ने महसूस किया था । इधर - उधर देख बाहर आई तो फगुनी बाबू ने एक पैकेट पकड़ा दिया और सीधे मुद्दे की बात की - " ब्याह करना चाहते हैं तुमसे "

दुलारी को इस प्रश्न ने प्रसन्न भी किया और निरुत्तर भी , उल्टे कदमों से भाग गई । फगुनी मिसिर ने आवाज दी - " बाबूजी को बोल दें दुबे जी से बात करने के लिए ?"

दुलारी ओसारे तक जाकर ठिठकी , हाथ से पैकेट छूट गया मनपसन्द दुपट्टे के कोने को उंगलियों से इतना मसला कि उसके सूत त्राहि - त्राहि करने लगे , परदे के पीछे जाने से पहले बोली - " करना तो यही चाहिए था "

उस दिन खाने पर बैठे तो अम्मा से कह दिया - " अम्मा ! जो दुबे जी कानूनगो हैं न उनकी बिटिया आपकी बहू बनने के योग्य है , बाबूजी से बात करिये न !"

बात जब बाबूजी के कानों में गई तो बौखला गए - " उस बेईमान को तो नौकरी से निकलवाऊंगा , पैसे भी खा लिए और गोयड़े का खेत उस हरामी परभुआ के नाम कर दिया "

-"लेकिन जो चक आपको मिला उसका तो रकबा भी ज्यादा है न ?"....अम्मा ने सिफारिश की ।

-" घर में बुद्धि लगाओ महारानी ! बाहर नहीं । खेत की कमी है क्या मुझे ? वो जमीन नहीं मेरी नाक थी "

न तो अम्मा की हिम्मत हुई और न ही फगुनी मिसिर की कि अब कुछ बोल दें । कुछ दिन बाद खबर आई कि कानूनगो साहब घूस और हेरा - फेरी के मामले में बेदखल हो गए हैं । दुलारी की अम्मा नहीं थीं , उसने भी सम्भवतः पिता से अपनी शादी की बात चलाई होगी , वरना दुलारी की शादी उसी गांव में बदरू पांड़े से तय होना मात्र संयोग नहीं हो सकता था । फगुनी मिसिर ने उस शादी में कोई विद्रोह तो नहीं किया लेकिन माँ - बाप की लाख मिन्नतों के बाद भी अपनी शादी नहीं किये । पश्चाताप से ग्रसित माँ - बाप चार साल के भीतर एक - एक करके असमय दुनिया से विदा हुए और शादी के पांच साल बाद दुलारी का गवना भी हो गया ।

फगुनी एक दिन दरवाजे पर बैठे थे कि बदरू आता दिखा , पास पड़ी कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - " मुझे पहले पता होता तो उस कुतिया से शादी न करता "

फगुनी मिसिर ने अब अखाड़ा जाना छोड़ दिया था लेकिन पता नहीं क्या भूत सवार हुआ और लगातर तीन बार उठा कर पटका बदरू को , उसके मुख से आवाज नहीं निकल पा रही थी । हाथ जोड़कर बोला - " फगुनी भैया ! माफ करो ! मैं उसको तलाक देने को राजी हूँ , ऐसी शादी का क्या फायदा जिसमें पत्नी हाथ तक न लगाने दे "

फगुनी को झटका लगा , छः महीने गुजर चुके थे गवना हुए । बदरू की गिनती अय्याश लोगों में होती थी । गलत सही के विचारों ने पलायन कर लिया और फगुनी मिसिर की अधूरी इच्छाएं बलवती होने लगीं , मात्र दो बार की मुलाकात और दुलारी का ऐसा समर्पण ? अभी तक खुद के कृत्य पर इतराने वाले फगुनी मिसिर की नजरों में दुलारी का कद बहुत बढ़ गया था । बदरू ने उन्हें सोच की मुद्रा में देखा तो दांव चला - " सारे गांव में इस बात का हल्ला है कि बदरू की बीबी का फगुनी से चक्कर रहा इसीलिए दोनों में नहीं बनती , अब तलाक तो मैं दे दूँ और उसे उसके मायके भी पहुँचा दूँ लेकिन इसका मुझे क्या लाभ मिलेगा , जिंदगी भर हँसी का पात्र बनने के सिवाय ?"

-"तो फिर क्यों आये ?"...फगुनी ने सीधा प्रश्न किया ।

-" तुम दोनों के चक्कर में यह गरीब मारा जा रहा है भैया ! इसका उपचार यही है कि अपनी जायदाद मेरे नाम कर दो !"

फगुनी मिसिर के लिए निर्णय लेना कोई बड़ी बात न थी , अगले ही दिन रजिस्ट्री दफ्तर में मकान और मामूली खेत छोड़कर बाकी सारी जायदाद बदरू के नाम कर आये । तलाकनामा भी उसी रोज तैयार हो गया और उस पर बदरू के हस्ताक्षर भी हो गए ।

उस दिन भीषण घमासान मचा । कानूनगो साहब को पता लगा तो बदरू के यहां चले आये थे , बहस इतनी आगे बढ़ी कि अपने दरवाजे पर ही बदरू ने उन्हें थप्पड़ रसीद कर दिया । खबर सुनकर फगुनी मिसिर पहुँचे तो कानूनगो साहब ने घूरते हुए कहा - " जैसा बाप वैसा बेटा ! इतना जहर भरा है तुम लोगों के मन में ? पहले मेरी नौकरी खाई और अब मेरी बेटी की जिंदगी भी बर्बाद कर दी "

-"जिंदगी तो आपने बर्बाद कर दी थी कानूनगो साहब , मैंने तो दुलारी को एक नई जिंदगी देने की कोशिश की है , बदरू कैसा लड़का है यह पूरा गाँव जानता है , फिर भी आपने बाबूजी का गुस्सा अपनी संतान पर निकाला , क्रोध में हम अक्सर ऐसा कर जाते हैं जिसका परिणाम पछतावे के सिवा कुछ नहीं होता । मैं दुलारी से प्रेम करता हूँ और उसे बेहतर जीवन देने के लिए मुझे जो जायज लगा वह मैंने किया । आज आपको मेरा कृत्य भले बुरा लगे लेकिन कुछ समय बाद आपको मुझ पर गर्व होगा "

जवाब कानूनगो साहब के पास न था लेकिन छः महीने की बहुरिया जो पिता को पिटते देख भी चौखट से बाहर न निकली थी , घूँघट डाले ओसारे में चली आई - " फगुनी बाबू ! प्रेम में सब कुछ जायज नहीं होता , मर्यादाएं मेरे चलते खण्डित हों ऐसा मेरे जीते जी तो संभव न होगा , मैं नहीं चाहती कि भविष्य में प्रेम के नाम पर विभत्स कृत्यों को मेरी नजीर देकर सही ठहराया जाय । इन्होंने आपसे क्या बताया यह मैं नहीं जानती , लेकिन सत्य यही है कि आपके प्रेम में पड़कर अगर किसी से भी कोई संसर्ग न रखने का व्रत लिया था तो उस व्रत की परिधि में आप भी आते हैं । मैंने इनसे कहा था कि मुझे एक कोने में पड़ा रहने दीजिए , शौक से दूसरा विवाह करिये , मैं जीवनभर सेवा करूँगी । अब अगर आपके हृदय में भी प्रेम जैसा कुछ शेष हो तो कृपा करके मुझे जीवन में कभी भी अपनी सूरत मत दिखाइएगा , वरना मेरा मरा हुआ मुँह देखेंगे "....कहकर वो भीतर भागी । फगुनी भी खड़े न रह सके ।

बदरू ने अपनी तो नहीं लेकिन फगुनी की सारी जमीन बेच दी । शहर जाकर दूसरी शादी भी कर ली । सुभाष , दुलारी की बड़ी बहन का लड़का था , उसे अपने पास रख पालन - पोषण करने लगी । फगुनी ने सुभाष को अपनी जिम्मेदारी भी मान लिया था , इसीलिए तो बाकी बचे खेत उसकी नौकरी के टाइम घूस के वास्ते बेच दिया । सुभाष को कसम दी कि यह बात दुलारी को पता न चले ।

बस आधा रास्ता पार कर चुकी थी । कंडक्टर ने टिकट के लिए पुकारा । आवाज नहीं आई , फिर पुकारा ...कोई आवाज नहीं आई तो गुस्से में हाथ से झिंझोड़ा । फगुनी का शरीर एक तरफ लुढ़कता चला गया । अस्पताल में भर्ती दुलारी का चोला पहले बदला या फगुनी का ? कहा नहीं जा सकता ।

उसी दिन इमारत की दक्षिणी दीवार पर लगे साखू के थोक को कुछ बच्चों ने शरारत में जैसे ही हिलाया , पूरी इमारत भरभरा कर गिर गई । शुक्र था कोई हताहत नहीं हुआ ।

चित्र :- गूगल से साभार

आशीष त्रिपाठी

गोरखपुर

Next Story
Share it