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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और श्रीमुख "टेक"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  टेक
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संझलौका की बेला में यदि बिशम्भरपुर गांव की हवा में तरकारी के फोरन की खुशबु तैर जाय तो बच्चे तक बूझ जाते हैं कि रमा बुआ के रसोई से ही यह खुशबु आ रही है। आज के हाइब्रिड वाले जमाने में जब गोभी और परवल तक का स्वाद मर गया, यहां तक कि धनिया की चटनी भी अब नही महकती, रमा बुआ की रसोई की तरकारी पता नही कैसे महक उठती है। जिन्होंने खाया है वे बताते हैं कि पुरे गांव में रमा बुआ से ज्यादा चटक सब्जी कोई नही बना सकता।

गांव के बाहर एक बड़े किलेनुमा पुराने घर में अकेली रहती हैं रमा बुआ। गांव के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि अपने जमींदार बाप की इकलौती संतान थीं रमा बुआ। पिता बड़े प्यार से बेटी के मनोरमा नाम को आधा कर के रमा बुलाते थे। रमा बुआ अपने नइहर में ही क्यों रहती हैं यह बात गांव के नए छोकडे नही जानते। कोई कहता है कि उनके मरद ने छोड़ दिया तो कोई कहता है कि वे ही मरद को छोड़ आईं। कुछ तो यह भी कहते हैं कि रमा बुआ का बियाह ही नही हुआ था।

रमा बुआ के जीवन की सच्चाई, गांव के पोखरे के पास वाले बरगद पर डेरा जमाये पिचास की तरह ही रहस्य है सबके लिए, पर पिछले तीस सालों से उन्होंने गांव के लोगों के दुःख में इतनी मदद की है कि जैसे सब उनके गुलाम हो गए हैं और अब उनकी सच्चाई जानने की किसी की भी इच्छा नही है।

रमा बुआ की सच्चाई बस एक आदमी जानता है, और वे हैं पंडित सुभाष मिसिर। रमा बुआ से उमिर में आठ साल बड़े सुभाष मिसिर उनको देखने पर श्रद्धा से मन ही मन प्रणाम कर लेते हैं।

पंडित सुभाष मिसिर रमा के जीवन के उन तीन वर्षों के इकलौते गवाह हैं जिन्हें रमा अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ दिन गिनती है।

पच्चीस साल से कम नही होते होंगे जब गांव से दू कोस पर बहने वाली गंडक के किनारे हाथ में हाथ डाले टहलते मनोरमा और अरविंद को देख कर रोज टिभोली मारते थे पंडित सुभाष मिसिर।

पड़ोस के गांव के अरविंद सिंह से मनोरमा कब और कैसे मिली, और उनका प्रेम कब दियर के रेत में महकने लगा यह तो पंडीजी नही जानते, पर उन दिनों नदी किनारे गाय चराते पंडीजी जब भी दोनों को देखते तो मन ही मन देवता पितर को गोहरने लगते थे- इन दोनों की जोड़ी सलामत रहे हे जीन बाबा।

असल में एक साथ घूमते अरविंद और मनोरमा को देख कर लगता था जैसे भगवान ने अपने हाथ से इन दोनों को एक दूजे के लिए ही बनाया हो। भगवत भजन के आदी पंडीजी को दोनों में राधा-किसुन की मूर्ति दिखती थी।

मनोरमा और अरबिंद के प्रेम में कोई रोड़ा नही था। दोनों एक ही जाति के थे और संपन्न घर से थे। कॉलेज में पढ़ी और माँ बाप की दुलारी बेटी पिता को अरबिंद के बारे में बता चुकी थी, और मुस्कुराते पिता ने जैसे मंजूरी भी दे दी थी। दोनों परिंदे हवा में उड़ा करते थे।

गंडक के दियर में बाढ़ आना हर साल का खेल है। बाढ़ के दिनों में जब पानी गांव में घुसने लगता है तो लोग बाग कुछ दिनों के लिए गांव छोड़ देते हैं, और पानी उतरते ही फिर वापस चले आते हैं। उस साल भी बाढ़ आई तो सबने गांव छोड़ दिया। गांव छोड़ने के एक दिन पहले साँझ की बेला में अरविंद खुद मनोरमा को उसके घर पहुचाने आये थे। अरविंद के पिता कलकत्ता रहा करते थे सो इस बार बाढ़ के दिनों में अरविंद कलकत्ता ही जाने वाले थे। उसको घर पंहुचा कर वापस मुड़ते अरविंद से मनोरमा ने जब घर में आने के लिए कहा तो मुस्कुराते अरविंद ने जवाब दिया- इस बार नहीं, इस बार तो तुम्हे पहुचाने आया हूँ न, अगली बार जब बारात लेकर तुम्हे ले जाने आऊंगा तब अंदर चलूँगा। मुस्कुरा उठी मनोरमा के साथ दियर की वह साँझ मुस्कुरा उठी थी।

अगले दिन मनोरमा अपनी माँ के साथ मामा के घर गयी और उधर अरविंद कलकत्ता निकल गए।

एक महीने बाद मनोरमा गांव लौट आयी पर अरविंद कलकत्ता से लौट कर नही आये। महीना बीता, दो महीना, चार महीना, छः महीना.... पर अरविंद नही आये। बेचैन मनोरमा को देख कर उसके पिता बार बार अरविंद के गांव जाते थे पर हर बार यही खबर मिलती थी कि अरविंद का परिवार कलकत्ता से नहीं लौटा। मनोरमा के प्रेम को जानते पिता जब कलकत्ता जाने के लिए तैयार हुए तो मनोरमा ने रोक दिया- नहीं बाबूजी, वो कह कर गया है कि आएगा। उसको खोजने की कोई जरूरत नहीँ।

पर खोजने की जरूरत समझी थी पंडित सुभाष मिसिर ने। वे बिना किसी को बताये दो दो बार कलकत्ता जा चुके थे पर दोनों बार खाली हाथ लौटे थे। वहां जा कर वे अरविंद से मिले या नहीं, या मिले तो अरविंद ने क्या कहा यह उनके सिवाय कोई नही जानता।

अरबिंद को दो साल तक खोज कर हार चुके पिता ने जब मनोरमा की दूसरे जगह शादी की चर्चा सुरु की तो मनोरमा यहां भी ज़िद ले कर बैठ गयी- मुझे शादी नही करनी बाबूजी, वह कह कर गया है कि आएगा। मुझे उसका इंतजार करना है।

मनोरमा के पिता जैसे लाचार हो चुके थे। वह न उन्हें अरविंद को खोजने जाने देती थी, न दूसरी जगह विवाह को राजी होती थी।

सालों निकल गए। मनोरमा ने न ब्याह किया, न अरविंद ही गांव आये। बाबूजी गए, माँ गयी, मनोरमा अकेली रह गयी। गांव की सबसे सुंदर लड़की मनोरमा के बाल पक गए, अब वह मनोरमा से रमा बुआ हो गयी थी। अब वह सारे गांव के दुःख में भागीदार रहती थी। कई बार उसने दूसरों के दुःख में मदद करने के लिए अपना खेत बेंचा, कई बार अपने गहने गिरवी रखे, पर उसके यहां से कोई खाली नही जाता था।पता नहीं उसे अब अरविंद का इंतजार था भी या नहीं, पर इन पचीस साल में पच्चीस बार आये बाढ़ में एक बार भी वह गांव छोड़ कर नही गयी। दस दस दिन तक छत पर ही टंगी रहती पर गांव नही छोड़ती। वह जैसे आदमी नहीं गाछ-बिरिछ हो गयी थी।

उधर अरविंद के घर में जंगल उग आया था।

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कभी गांव से दो कोस दूर बहने वाली गंडक अब कटाव करते करते बिसम्भरपुर गांव तक चली आई थी। बाढ़ के बाद जब पानी उत्तर जाता है तो नदी कटाव करने लगती है।बाढ़ में गांव छोड़ कर गए लोग पानी उतरने पर वापस तो आ गए थे, पर इस बार सबको भय था कि गांव गंगा मइया की गोद में समा जायेगा। कुछ लोग दुबारा गांव छोड़ कर जा रहे थे, पर रमा फुआ इस बार भी गांव छोड़ने को राजी नही थी। उधर कटाव करती नदी उनके घर के पास तक आ चुकी थी। लोग मना कर थक चुके थे पर रमा फुआ टस मस नही हो रही थी।

आखिर शाम को सुभाष मिसिर रमा बुआ के घर पहुचे और गांव छोड़ने के लिए कहा। उनकी ओर देख कर मुस्कुराती रमा ने कहा- आप भी गांव छोड़ने को कहते हैं पंडीजी? आप तो सब जानते हैं।

पंडीजी दम ले कर बोले- तब की बात और थी बबुनी, इस बार गंगा मइया कटाव कर रही हैं। देखती नहीं कि नदी यहां तक आ गयी, हो सकता है कि रात बिरात आपका घर नदी में समा जाय।

- जो भी हो पंडीजी, मैं नही जाउंगी।

पंडीजी खीज उठे,बोले- किसका इंतजार कर रही हो बबुनी, उस बेईमान का जो एक बार पलट कर नही देख सका? तुम नही जानती कलकत्ता जा कर दो बार उससे मिल.......... कहते कहते जैसे पंडीजी को होश आया और उन्होंने बात रोक ली।

पर रमा जैसे बात समझ गयी थी। कुछ देर के बाद उदास सी बोली- कुछ भी हो पंडीजी, इस उमर तक जब टेक रह गयी तो अब क्या तोडना। वो आये न आये, मैं यह घर नही छोडूंगी। और अगर नदी बहा भी ले गयी तो क्या बुरा होगा, वैसे भी मरने के बाद कोई क्रिया क्रम करने वाला तो है नहीं, गंगा मइया ही कर दे तो बेहतर है।

पंडीजी निराश हो कर लौट गए।

अगली सुबह पंडीजी जब कान पर जनेव चढ़ाये गांव से बाहर निकल रहे थे तो चार पांच मजदूरों को कुदाल ले कर बाहर जाते देखे। मजाकिया पंडीजी ने टोका- बिहाने बिहाने कहाँ का दाव लगा हो महतो?

- अरे महाराज उ रामपुर में खंडहर वाला बड़का घर है न, उसके मालिक कल बर्षों बाद गांव आये हैं। बस उन्ही के यहां सफाई करनी है।

पंडीजी उछल पड़े, बोले- कौन, अरविंद सिंह?

-हाँ यही नाम तो बताया था....

पंडीजी कांप उठे थे। पागल जैसे हड़बड़ा कर एक मजदूर से बोले- अरे तनिक बड़े घर वाली रमा बुआ के यहां दौड़ कर जाओ तो, कहना कि.....

- अरे कहाँ पंडीजी, सुबह देर से उठे क्या? रमा बुआ का घर तो रात को ही गंगा मइया लील गयी। बुआ भी बह गयी है महाराज। नदी तो अब घंटाहवा पीपर तक आ गयी....

पंडीजी के हाथ से लोटा छूट गया था, वे जमीन पर थस्स से बैठ गए थे।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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