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भोजपुरी कहानिया

अखरेला अधिका सवनवा बटोहिया

अखरेला अधिका सवनवा बटोहिया
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विद्यालय से वापस लौटते आलोक पाण्डेय जब एकाएक झमाझम बारिस में घिर गए, तो जाने क्यों भीगने का मन होने लगा। पॉकेट से पैसा निकाल कर गाड़ी की डिक्की में डालने के बाद जब आलोक ने दोनों हाथों को हवा में लहराया, तो अंदर एक टीस उठी और आलोक पाण्डेय के होठों पर दर्द भरी मुस्कुराहट तैर गयी। सावन की बारिस हमेशा सालती है आलोक के कलेजे को... वे भीगते-भीगते जैसे कॉलेज के दिनों में पहुँच गए।

कॉलेज के शुरुआती दिन थे, और बबिता भी कॉलेज में नई-नई ही आई थी। अद्भुत सौंदर्य... चलती तो लगता जैसे केजरीवाल की सरकार चल रही हो। बोलती तो उसके होठ इस अदा से थिरकते जैसे किसी एक पार्टी को छोड़ कर निकले बड़े नेता को देख कर दूसरी पार्टी के लोगों का कलेजा थिरकता है। आवाज सुन कर लगता जैसे पंडित भीमसेन जोशी किसी को राग मालकौंस के सुर में गाली दे रहे हों...

बोलते-बोलते कभी हँस पड़ती तो लगता जैसे दस साल के सूखे के बाद खेतों में पहली बार वर्षा की बून्द नाच उठी हो... छन छन.... टप टप.... खन खन...

अब ऐसे अद्भुत सौंदर्य को देख कर आलोक पाण्डेय का ठेठ देहाती, सहज-सौम्य-सरल हृदय बहकता नही तो क्या करता? सो पिछले एक महीने में ही आलोक पाण्डेय को दस बार ठेस लग चुकी थी...

सड़क पर चलते-चलते एकाएक ऐसा लगता जैसे सामने खड़ी बबिता उनकी ओर बाँहे पसार कर बुला रही हो। आलोक दौड़ पड़ते और कभी किसी बूढ़े पेंड में लड़ कर अपना थुथुर फोड़ लेते, तो कभी किसी बोंक से लड़ कर घुटना छील लेते। अब तक चार बार नाले में गिर चुके थे वे, बबिता नशा बन कर चढ़ गयी थी उनके ऊपर..

बबिता को देख कर आलोक के हृदय में प्यार का वो ज्वार उठता कि मन का तन के साथ हुआ महागठबंधन भी टूटने की धमकी देने लगता। भागे-भागे जाते और घंटाहवा पीपर के जड़ पर माथा रगड़ कर कहते, "हे घंटाहवा बाबा! एक्को बार, बस एक्को बार उ हमारे तरफ ताक के हँस दे तो आपको डेढ़ किलो रसगुल्ला चढ़ा के अकेले खाएंगे। हमको भले पकहवा कलकल पकड़ा दीजिये, भले हमारा पेट ख़राब हो जाये, पोंकहवा हो जाय, हमारे पेट में करड़ी हो जाय, सब बर्दाश्त कर लेंगे, बस उसकी कृपा दृष्टि हमारी ओर फेरवा दीजिये ए घंटाहवा बाबा..."

किन्तु बार बार प्रार्थना करने के बाद भी कोई फायदा न हो रहा था।

इसी बीच एक दार्शनिक किस्म के मित्र ने सलाह दी कि बबिता के हृदय में अपने लिए सहानुभूति पैदा कर उसके हृदय में प्यार जगाया जा सकता है। सहानुभूति से पैदा हुआ प्यार अजर अमर होता है।

आलोक पाण्डेय साहित्य प्रेमी व्यक्ति थे। उन्हें याद आया कि कई घटिया साहित्यकार सहानुभूति प्राप्त कर सकने वाली अपनी झूठी कहानी लिख कर प्रसिद्धि प्राप्त करते रहे हैं। उन्हें यह भी याद आया कि कई नेता भी अपने व्यक्तिगत झगड़े के गाली गलौज को पूरी जाति पर आक्षेप बता कर सहानुभूति का वोट बटोरते रहे हैं। उन्हें बात जँच गयी।

अब मुद्दा यह था कि यह सहानुभूति मिलेगी कैसे? इस विषय में आलोक पाण्डेय ने मित्र के साथ घंटो सलाह कर योजना बनाई, और पूरी शक्ति से उसे सफल बनाने में लग गए।

अगले दिन बड़ी जोरों की बारिस हो रही थी, सावन अपने रंग में था। कॉलेज में सन्नाटा था और सिर्फ बारिस की ही आवाज सुनाई दे रही थी। अचानक गर्ल्स हॉस्टल के सामने कुछ हल्ला सुनाई देने लगा। हल्ला सुन कर लड़कियों ने बरामदे में निकल कर देखा तो आँखे फ़टी रह गयीं। आलोक पाण्डेय के हाथ, पैर और कमर में मोटी मोटी जंजीरे लगीं थी, जिन्हें चार-पांच लड़के पकड़ कर खींच रहे थे। उनके शरीर पर ऊपर शर्ट या बनियान कुछ भी नही था, और बरसात में भीगते उस नंग धड़ंग देह पर दो मुस्टंडे सटाक-सटाक बेंत गिरा रहे थे।

आलोक पाण्डेय पिजड़े में बंद शेर की तरह गरज रहे थे। कभी पूरी शक्ति लगा कर इधर खींचते तो कभी उधर, किन्तु उनकी हर गर्जना के साथ बेंत की स्पीड बढ़ जाती थी।

यूँ तो आलोक पाण्डेय दिखाने को गरज रहे थे, पर उनकी कातर निगाहें बबिता को ढूंढ रही थी। बबिता की करुणा भरी दृष्टि पाने के लिए उनका हृदय मचल रहा था।

इधर आलोक पाण्डेय की एक पीड़ा और थी। उन्होंने मुस्टंडों को धीरे-धीरे मारने के लिए कहा था, पर पता नही क्यों वे बड़ी जोर-जोर से थूर रहे थे। आलोक अब तड़पने लगे थे।

कुछ देर के बाद बबिता बरामदे में आई। आलोक पाण्डेय ने बड़ी उम्मीद के साथ उसकी ओर देखा, पर वह उनपर एक नजर डाल कर वापस कमरे में घुस गयी।

आलोक पाण्डेय को लगा कि काम हो गया। दस मिनट तक और पिटने के बाद उन्होंने मुस्टंडों को इशारा किया तो वे उनको छोड़ कर चल दिए। आलोक पाण्डेय किसी तरह घसीट कर हॉस्टल पहुँचे।

दो दिन तक उनके पोर पोर में क्रांति होती रही। पुरे देह में हल्दी चुना छाप कर एक राज्यपाल बना दिए गए नेता की तरह कोंहरते रहे आलोक पाण्डेय, पर मन में इस बात से संतोष था कि अब बबिता की सहानुभूति मिल जायेगी।

चार दिन के बाद जब आलोक कॉलेज गए तो आँखे फिर बबिता को ढूंढ रही थी।

एक घंटे बाद बबिता आई तो सीधे आलोक के पास ही आई। आलोक का मन जैसे मोदी हो रहा था।

बबिता जब आलोक के पास पहुँची तो उन्हें लगा जैसे अब कानों में शहद पड़ जायेगी। आलोक ने सर उठा कर उसकी ओर ऐसे देखा जैसे उसके मुह से निकलने वाला हर अक्षर उन्हें राजा बनाने की घोषणा करेगा।

बबिता के अधर कमल हिले, "क्यों पंडीजी, मैं तो आपको शेर समझती थी पर आप तो साफ गीदड़ निकले। सिर्फ आठ लोगों से पिट गए? फिर लौट कर कॉलेज आते शर्म नही आई? साफ निर्लज्ज हैं क्या महाराज?

बबिता इतना ही कह कर वापस लौट गई। चार कदम चलने के बाद अचानक मुड़ी और कहा, " सुनिए पाण्डेय जी! छाती में बाल न हो तो खुद को पुरुष नहीं कहते।"

आलोक पाण्डेय एकाएक जैसे मुलायम सिंह से अजीत सिंह हो गए थे। चार दिन पहले की पिटाई का दर्द एकाएक बढ़ गया था।

बरसों बीत गए। सावन आलोक पाण्डेय को दुश्मन जैसा लगता है।आलोक पाण्डेय अब भी जब बारिस में भींगते हैं तो लगता है जैसे पीठ पर बेंत गिर रहे हों।

भिखारी ठाकुर के बरहमासे की पंक्ति गुनगुनाते आलोक पाण्डेय भींगे हुए घर आये। जैसे ही घर में घुसे तो अर्धांगिनी ने चरण छू लिया। आलोक पाण्डेय ने सर उठा कर देखा तो मुस्कुराती हुई बोली, "आज सावन का पहला सोमवार है। हमने व्रत रखा है कि अगले इक्कीस जन्मों तक आपही मिलें।"

आलोक पाण्डेय मुस्कुराये, "देखो नीतू! न तुम भाजपा हो, ना ही मैं सिद्धू हूँ कि तुम्हे छोड़ दूँ। यह साथ सात चौक अठाइस जन्मों तक का है और रहेगा।"

नीतू बोलीं- अच्छा,अब बबितवासना छोड़ दिए क्या?

आलोक मुस्कुरा कर रह गए।

घर में घुसते ही फिर बारहमासा कढ़ाया, "अखड़ेला अधिका सवनवा बटोहिया..."

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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