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भोजपुरी कहानिया

गंगा ..---------------भाग 2....सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गंगा ..---------------भाग 2....सर्वेश तिवारी श्रीमुख
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सारंडा के घने जङ्गल के बीच मे एक बड़ा सा मकान था। मकान कुछ इस प्रकार बना था कि इसका आधा हिस्सा जमीन के नीचे था। जमीन से ऊपर चार पाँच फ़ीट हिस्सा ही दिखाई देता था। उसपर भी अनेकों लताएं चढ़ी हुई थीं और दीवाल से सट कर झाड़ियां उगी हुई थीं। कुल मिला कर यह एक ऐसा घर था जो दूर से दिखाई नहीं देता था।

यह स्थान बसावट से बहुत दूर था, सो सामान्य जन इसके बारे में नहीं जानते थे। जो लोग जानते भी थे, उन्हें बस यह पता था कि यह एक चर्च है जिसमें अब कोई नहीं रहता। इससे अधिक जानकारी न किसी को थी, न किसी ने जानने की कोशिश की थी।

यहाँ से लगभग दस किलोमीटर उत्तर से हो कर खूंटी से चक्रधरपुर जाने वाला नेशनल हाइवे गुजरता है, जहाँ से यहाँ पहुँच पाना अत्यंत कठिन है। सारंडा का जङ्गल एशिया का सबसे घना जंगल है, इसमें जङ्गली जानवरों खासकर हाथियों का बड़ा उत्पात रहता है। ऊपर से यह पहाड़ी क्षेत्र है सो सड़क आदि की भी कोई सुविधा नहीं है। इस क्षेत्र में आठ-आठ, दस-दस किलोमीटर दूर गाँव हैं, सो अधिकांश हिस्से में कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता।

इससे थोड़ी दूर एक पहाड़ी नाला बहता था जिससे वर्ष भर शुद्ध जल बहता रहता था। नाले के आसपास प्रकृति की कुछ अधिक ही कृपा बरसी थी। हर ओर हरियाली और बीच बीच में उगे विविध प्रकार के फूल बता रहे थे कि "धरती का स्वर्ग" कहलाने का अधिकार कश्मीर की बपौती नहीं है, यह कहीं भी हो सकता है।

आज उसी नाले के पास दो लोग बैठे अपनी थकान मिटा रहे थे। ये दो लोग वही नकाबपोश थे जिन्हें गङ्गा ने भगाया था। अभी उन्होंने अपना नकाब उतार दिया था, सो साफ दिख रहा था कि उनमें एक 30-32 वर्ष आयु वाला एक पुरुष था, और दूसरी 23-24 वर्ष उम्र की एक लड़की थी। लड़की साँवली सी थी, पर उसे सुन्दर कहा जा सकता था। दोनों में कुछ यूँ बात हो रही थी-

- मुझे समझ नहीं आता कि वह इतना कुछ कैसे जानता था?

-अरे यही सोच कर तो मेरा भी दिमाग झन्ना गया! हरामखोर कितने आत्मविश्वास से कह गया कि मैं स्त्री नहीं पुरुष हूँ।

- मेरी तो यह सोच कर दशा खराब हो गयी कि वह मनोहर के बारे में सबकुछ जानता है। यदि वह सच में सबकुछ जानता है तब तो बड़ी गड़बड़ हुई है।

- अब जो हुआ सो हुआ! तुम यह सोचो पीटर कि आगे करना क्या है? फादर से क्या कहेंगे?

- कहना क्या है, हमारा काम था डायरी लेना सो डायरी अपने पास है। फादर को डायरी दो और अपना पैसा लो।

- लेकिन यह ठीक नहीं होगा, मैं सोच रही हूँ कि फादर से सब बता दिया जाय। क्यों ?

- अब माया की बात भला हम काटेंगे? चलो, यही सही।

उनकी यह बात हमारे किसी काम की नहीं थी, हाँ इतना अवश्य पता चल गया कि उनका नाम पीटर और माया था।

दोनों मुस्कुराते हुए चले और उस झाड़ीवाले मकान के पास पहुँचे। मकान में एक तीन फुट चौड़ा दरवाजा था जहाँ नीचे उतरने के लिए तीन सीढियां थीं। मकान का फर्श बेसमेंट की तरह समतल जमीन से नीचे था। वे दोनों मकान में उतरे तो देखा, फर्श पर एक बड़ा सा गद्दा बिछा हुआ था जिसपर एक युवा भगवाधारी आसन लगा कर बैठा हुआ था। उस भगवाधारी की आयु कोई 40 वर्ष के आसपास होगी। उसके माथे पर न कोई तिलक था, न गले मे कोई माला वगैरह थी। हाँ उसकी बड़ी बड़ी दाढ़ी-मूछें थीं जिससे वह किसी युवा साधू की तरह दिखता था। इन दोनों आगन्तुकों ने उसे सदैव इसी अवस्था मे देखा था। वे कब भी मकान में आये थे तब वह इसी तरह बैठा मिलता था।

दोनों साधू के सामने पहुचें तो सर झुका कर उनका अभिवादन किये और चुपचाप बैठ गए। उस साधू ने कठोर स्वर में ही पूछा- डायरी मिली?

"हाँ फादर! मिल गयी" दोनों एक ही साथ बोल पड़े। पीटर ने अपने कपड़ों से डायरी निकाल कर उस साधू, अर्थात फादर को दे दी। फादर ने डायरी को अच्छे से देखा और संतुष्ट हो कर कहा- ठीक है। तुम्हारा प्रसाद वहीं रखा हुआ है, ले लो जाकर। जाओ...

दोनों उठे, फादर को प्रणाम किया और निकल आये। मकान से कुछ दूर एक महुआ का पेंड़ था, दोनों वहाँ पहुँचे तो देखा कि उसकी जड़ पर एक छोटा थैला रखा हुआ है। दोनों मुस्कुरा उठे। पीटर ने माथा पीटते हुए कहा- "फिर वही खेल! अभी इधर से गये तो कोई झोला नहीं था।"

उन्होंने थैले को खोल कर देखा, उसमें सौ रुपये की एक गड्डी रखी हुई थी। अचानक पीटर को याद आया की गङ्गा वाली बात तो फादर को बताए ही नहीं। दोनों झपट कर फिर मकान में उतरे, पर अबकी वहाँ कुछ नहीं था। न गद्दा, न फादर...

दोनों ने तनिक इधर उधर देखा, और निकल आये। नाले के पास आ कर उसी के किनारे किनारे पूर्व की ओर बढ़ गए।

आधे घण्टे बाद वह साधू जिसे पीटर और माया फादर कह रहे थे उसी नाले के किनारे दिखाई देने लगा। फादर वहाँ से निकला और पश्चिम की ओर तेजी से चलने लगा। लगभग तीन घण्टे तक लगातार चलने के बाद वह एक गाँव मे पहुँचा। तबतक रात हो गयी थी। गाँव के बाहर एक चर्च था जहाँ इस समय कोई नहीं था। फादर बिना किसी से कुछ पूछे चर्च के अंदर चला गया। चर्च में एक बड़े से प्रार्थना हॉल के पीछे तीन कमरे थे, फादर उन्हीं में से एक कमरे में पहुँचा। वहाँ एक दूसरा फादर जो पूरी तरह पादरी के वेश में ही था बिछावन पर लेटा आराम कर रहा था। उसकी नजर जब इस कथित फादर पर पड़ी तो वह उठ बैठा और मुस्कुरा कर बोला- आओ समशेर! बैठो...

दोनों फादर कब तक क्या क्या बातें करते रहे यह आवश्यकता हुई तो आगे बताएंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि उस दिन से अगले एक सप्ताह तक शमशेर उसी चर्च में ही रहा लेकिन किसी से मिला नहीं। वह उसी कमरे में ही पड़ा रहता था, बाहर नहीं निकलता था।

खैर! इसे छोड़िये, हम चलते हैं सारंडा जंगल के पश्चिम की ओर बसे एक छोटे से कस्बे "तोरपा" में, जहाँ रात के आठ बजे कस्बे के पूर्वी छोर पर हमारी कहानी का नायक गङ्गा एक बड़े से घर पर पीछे की ओर से चोरों की तरह दीवाल से सटा खिड़की के पास खड़ा था। उस घर के पीछे की ओर कोई दूसरा घर नहीं था, और इस ओर बिजली भी नहीं आयी थी सो किसी के देखने का भय नहीं था। खिड़की के अंदर से धीरे धीरे कुछ आवाजे आ रही थीं।

-मनोहर ने अपना आम ले लिया?

-हाँ! वह तो उसी दिन शाम तक उठा ले गया। पर काम निकल गया है, सो अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं।

- ठीक है। लेकिन कल मुम्बई के लिए फलों की गाड़ी निकलेगी। देखना कोई परेशानी न हो...

-आप निश्चिन्त रहें। सब हो जाएगा।

- निश्चिन्त ही तो नहीं होना है। साहेब ने कहा है कि अबकी सावन में आग लगेगी।

- देख लेंगे।

गङ्गा शायद इन बातों का अर्थ समझ रहा था। उसने कुछ सोचा और वहीं खड़े खड़े जोर से कहा- देख तो लोगे, पर हम भी देखेंगे कि इस बार कातिक में सावन कैसे आता है।

कमरे में एकाएक हलचल हुई, दो तीन लोग कमरे से बाहर निकले, पर गङ्गा तो यह जा... वह जा...

क्रमश:

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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