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भोजपुरी कहानिया

लगन स्पेशल----- परछावन (हास्य)

लगन स्पेशल-----  परछावन (हास्य)
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पिछले महीने से ही दुर्गेश बाबू धूप से भसुर की तरह बच रहे थे। सनक्रीम से लेकर गुलाबजल , ककड़ी, मलाई शायदे कुछ बचा हो जो रंग चमकाने के लिये प्रयोग न किये हों। किसी भी कीमत पर मूल रंग से छेड़छाड़ गवारा नहीं था उनको! लेकिन ऐन वक्त पर ऐसा फंसे बाबू की पूछिए मत ! एकदम खड़ी दोपहरिया में पंडित जी ने परछावनन का कार्यक्रम झोंक दिया.....अब करें भी तो क्या!! पांच साल से एड़ी उठाकर वरदेखुआ की राह ताक रहे थे...अबकी लगन किसी तरह मामला फिट्ट हुआ है। अन्दर से बियाह का ऐतना हूब है कि धूप-बयार की कौन परवाह करे।

एंग्लो-इंडियन सिल्की शेरवानी के अन्दर आधा लीटर पसीना घोंटे नवकी बनियान से चिपके बाबू दुर्गेश। भला हो जीजा जी वाला बैंकाक के सेंट का जो पसीने के पेट में घुसकर उसके उत्पात पर लगाम लगाये हुए है ,नाहीं तो दुर्गेश का चले तो अभिये ट्यूबवेल में छलांग मार के बनियान फींच कर झुरवा लें। ब्लिचिंग, फेसियल की लगी पुट्टी ने और दिमाग खराब कर रखा है!रोम-रोम बंद है.....पूरा थोबड़ा अगिया रहा है। दुर्गेश बेचारे डर के मारे पोछा भी नहीं मार सकते.....अभी दू घंटा पहिले नगद तेरह सौ रुपया सैलून वाला नेग सहित वसूला है, ऊ आग अलगे सीने में धगधगा रही है । लेकिन चलिए..... हिसाब-किताब, तगादा तो सब दुर्गेश विदाई के बाद समझ लेंगे... अभी तो परछावन का नशा सवार है।

विवाह के उत्साह और गर्मी के उत्पात के बीच गाजा-बाजा और तुरही के साथ परछावन कराने निकल दिये बाबू दुर्गेश....

तिजहरिया की तिरछी धूप और बैण्डबाजे की धम्मड़- धम्मड़ दोनों में कौन तेज माथा पीट रहा है इसे समझने की फुर्सत कहां है........ कल बाजे वाले के भुगतान के समय पता लगेगा कि उ बजा रहा था कि सिर खा रहा था।

अब आइये गांव के बाहर सिवान में जहाँ आज सिवान में दो ही लोग बौराए मिलेंगे...एक तो दुर्गेश के बहिन-भौजाई की टीम और दूसरा धूल की अकड़ छुड़ाती पछुवा की लू । गाड़ी के पीछे औरतों का डांस और पूरे सिवान में पछुआ का नागिन डांस.....मानो सगरो गांव में तमाशा बना है। ऊधर गाड़ी के अगली सीट पर बैठे दूल्हा बाबू दुर्गेश लोढ़ा का चक्कर पे चक्कर गिन रहे हैं कि अब खतम होवे कि तब!! लेकिन हर बरात में दुई चार भौजाई ऐसी जरूर मिलेंगी जो लोढ़ा घुमाकर नाक फोड़ने का प्रेम संदेश जरूर दे जातीं हैं। कि......बबुआ ऐस हीं थूरायब रौऊरहूं...

गांव के कम उमर के लड़के-लड़कियाँ मेड़-मेड़ पीछा कर रहें हैं, उनकी नजर न तो दुर्गेश पर न और न ही बाजे पर.सब दुर्गेश की बड़की फुआ को निशाना बनाकर चल रहें हैं क्योंकि बड़की फुआ घरवे से दो किलो सिक्का और दस की एक पूरी गड्डी उड़ा चुकी हैं. पईसा लूटे के खातिर बैंडबाजा वाले और गांव के लड़को में आठ बार तकरार हो चुकी है.

गाँव में ऐसे कुंवारे भी हैं जो दुर्गेश से पांच बरिस ज्येष्ठ हैं लेकिन अभी भी सिंगल सवारी हैं उनको न तो दुर्गेश के बिआह का हूब है और न ही परछावन का. ऐसे सब कुंवारे सुबह से गाँव छोड़कर कोआपरेटिव पर गेहूं की पर्ची भुनाने निकल गये हैं. गांव के परिचित चुटकी लेने में कहां कसर छोड़ते हैं- " का हो फलाने दुर्गेशवा के बराते नाहीं चलब का"

लड़के शरम छिपाते हुए- " जाये दीं चाचा! फौरेबी हवं ओकरे घर वाले. दुनिया क झूठ फरेब बोलके बिआह तय कईले बाटें, जब बात खुली त बिआहे में लाठियों चली..हम त जान के नाहीं जात बाटीं हं।"

परछावन कराके अब जाके गाड़ी का फाटक बंद हुआ भौजाइयों से पीछा छूटा।एसी की ठन्डी हवा में अब जाके दिमाग कुछ काम करना शुरू किया बाबू दुर्गेश का! पिछले चार घंटे से तो मदारी का बंदर बना कर रख दिया था.जिसको तनिक भर शऊर नहीं था वो भी हर घंटे पर नसीहत देने चला आ रहा था.... हे बैठो....... हो बैठो.... तनि दमदारी से चलो। जो पूरी जिंदगी लुंगी बंडी पर काट दिया हो ऊहो आज दुर्गेश की टाई की नॉट सेट करने चले आये थे और दुर्गेश बेचारे टूअर बनकर सब सहे जा रहे थे, करें का... हाय रे बियाहे क लाचारी.....

हाय रे जबरा... हाय रे जबरा, टुअरा बन गया.....

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रिवेश प्रताप सिंह

गोरखपुर

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