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भोजपुरी कहानिया

दगाबाज तोरी बतिया ना मानू रे....

दगाबाज तोरी बतिया ना मानू रे....
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मैं भारत का इकलौता पुरुष हूँ जो समझ पाया था कि संसद में माननीय राहुल गान्ही जी ने "आँख" किसको और क्यों मारी थी, पर मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि आँखों को साढ़े चौवालीस डिग्री तिरछा मोड़ कर महान सुंदरी वैजयंती माला ने दिलीप कुमार से उस फिल्म में यह क्यों कहा कि "दगाबाज तोरी बतिया ना मानूँ रे.." आखिर नायक ने नायिका से ऐसी क्या दगाबाजी की थी जो नायिका को गीत गाना पड़ा...

कभी कभी मुझे लगता है कि जरूर नायक जज रहा होगा और उसके न्यायालय में नायिका का कोई मुकद्दमा गया होगा। जज नायक राम मंदिर की भाँति सुनवाई का दिन बार बार आगे बढ़ा देता होगा, जिससे ऊब कर नायिका ने कहा होगा,"दगाबाज तोरी बतिया ना मानूँ रे..."

वैसे कभी-कभी यह भी लगता है कि नायक बिहार सरकार का प्राइमरी टीचर रहा होगा। विवाह के पहले वर्षगांठ पर उसने पत्नी को सोने का हार देने का वादा किया होगा और दसवें वर्षगांठ तक उसने अपना वादा नहीं निभाया होगा। वैसे बेचारा मास्टर करे भी तो क्या करे, सत्रह हजार की तनख्वाह भी छह-छह महीने बाद मिले तो बेचारा कहाँ से सोने का हार खरीदे? उसे तो दगाबाज होना ही होगा... मैंने तो कई ऐसे मास्टरों को देखा है जो दीवाली की खरीददारी ईद में करते हैं। मास्टरों की स्पीड कुछ अधिक ही स्लो होती है। एक बार मेरे एक मित्र कुँवारे शिक्षक ने एक कन्या को आँख मारी, पर शिक्षक के आँख की स्पीड इतनी स्लो थी कि जबतक उनके आँखों का संकेत उस कन्या तक पहुँचता तबतक वह स्वयं दो कन्याओं की माँ हो चुकी थी। इसमें शिक्षकों का कोई दोष नहीं, उनकी तनख्वाह ही इतनी स्लो है कि उनका हर काम स्लो हो जाता है।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि नायक शायद कांग्रेसी था। उसने नायिका को पटाने के लिए नकली जनेव पहन कर स्वयं को ब्राह्मण बताया होगा, और किसी दिन नायिका ने उसे नमाज पढ़ते समय धर लिया होगा। फिर क्या, वही दगाबाज तोरी बतिया... कभी कभी तो लगता है कि किसी को पटाने के लिए हिन्दू बनना ही कांग्रेसवाद है, और इसी को उर्दू में दगाबाजी कहते हैं।

कभी कभी सोचता हूँ कि जरूर नायक वामपंथी रहा होगा। वैसे तो पूरे देश में वामपंथ का "धीम पटापट धींगड़ी पोपो" हो चुका है, पर हमारे जिले के एक कोने में भाकपा (माले) तनिक सक्रिय है। वहाँ के वामपंथी नेता दो-तीन सौ लोगों की भीड़ ले कर हर महीने में एक बार कलेक्ट्रीयट का घेराव करते हैं। लाल झंडा लिए दो सौ लोगों की भीड़ जब कलेक्ट्रीयट के गेट पर पहुँचती है तो समाहरणालय का चपरासी नेता जी को बुला कर साहेब के केबिन में ले जाता है और लाल मिर्च की झरार चटनी के साथ चार समोसे ला कर रख देता है। नेता जी मुस्कुरा कर समोसा खाते हैं, और उधर बाहर बिहार पुलिस के जवान उन दो सौ झण्डेबाज क्रांतिकारियों को थूर-थूर के बर्बाद कर देते हैं। एक बार थुरा चुका क्रांतिकारी दुबारा नेताजी के झाँसे में नहीं आता और जब कभी भी नेता जी रैली में चलने के लिए कहते हैं और वह घूर कर कहता है, "दगाबाज तोरी बतिया ना मानूँ रे.."

वैसे नायक भाजपाई भी हो सकता है। सम्भव है कि उसने नायिका को वादा किया हो कि जब अयोध्या में राम मंदिर बनेगा तब तुम्हें स्विट्जरलैंड घुमाउंगा, और उसदिन का इंतजार करते करते नायिका आलिया भट्ट से हेमा मालिनी हो चुकी हो। तब भला नायिका कैसे न कहे कि "दगाबाज तोरी....."

मुझे लगता है कि नायक यदि लोकतांत्रिक भारत का नागरिक है तो वह कुछ भी हो सकता है। वह क्लर्क हो, वकील हो, शिक्षक हो, अधिकारी हो, डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, दुकानदार हो, पत्रकार हो, कर्मकार हो या सरकार हो, दगाबाज होना उसकी लोकतांत्रिक मजबूरी है। वह दगाबाज न हो तो लोकतंत्र में सरवाइव नहीं कर पायेगा। लोकतंत्र में दगाबाजी ही उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है।

जो भी हो लेकिन उस फिल्म की नायिका ने नायक को दगाबाज क्यों कहा इस प्रश्न का सटीक उत्तर अब तक नहीं मिला। मैं अपनी मूढ़ता स्वीकार करता हूँ।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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