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भोजपुरी कहानिया

डाकबाबू और उनके खतओ -खतूत - रिवेश प्रताप सिंह

डाकबाबू और उनके खतओ -खतूत - रिवेश प्रताप सिंह
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जब मोबाइल नहीं था तब चिट्ठियाँ बोलतीं थीं। लेकिन चिट्ठियों के कदम थोड़े सुस्त होते थे। तब इतना आसान नहीं होता था अपने से दूर रहने वाले अपने प्रिय तक अपनी भावनाओं को पहुंचा पाना । मन के उमड़े भाव को तत्काल अपने प्रिय तक पहुंचा पाना 'भोर' में 'गोधुली' देखने जैसा था। रात्रि बेला में अपनी पति की याद आने पर, सुबह उसे पत्र पर उतारना, वह भी भावनाओं की उन्ही स्पष्ट कराहों के साथ, सचमुच! टेढ़ी खीर थी।

गांव में भी सिर्फ दो चार ही कलमवीर ही हुआ करते थे,जो पूरे गांव का पत्र लेखन करते। उसमें सबसे बड़ी आफत यह कि किसी पराये मर्द के हाथ कैसे लिखवाया जाये कि '"तोहरे बिन मन नाईं लागत! " .....क्योंकि मर्दों की सबसे बुरी आदत होती है कि उन्हें जहां भी लगता है कि यहाँ आग की जरूरत है बेचारे खुद जलने के लिए तैयार हो जाते हैं। वैसे मर्दों में तो लिखने वाले मिल भी जाते; लेकिन सब मर्दों से अपने दिल की बात कही भी नहीं जा सकती। क्योंकि मर्दों को लेकर औरतों का नजरिया जैसा अब है वैसा ही तब भी था।

गांव की दो चार ननदें थीं जो भौजाइयों की आंख का तारा बनीं रहतीं। गांव की भौजाई ननद का स्वेटर बुनतीं और ननदें भौजाई की चिट्ठी में शब्दों को बुनती। ननदें भौजाइयों का मजाक उड़ातीं, भौजाइयां ननदो की चुटकी लेतीं "का हे बबुनी... चंदनिया के देवरा बहुत चक्कर मारत बा, कवनो बात बा का!" ननद शरमाकर " भक्क!! जा ऐ भऊजी, रहि रहि के तंहूं के आपन जमाना इयाद आ जाला का?? "

पत्र और मोबाइल में एक फर्क है। मोबाइल के रास्ते भावनाओं को अगले तक ढकेल कर त्वरित पहुंचा दिया जाता है किन्तु पत्र में यह संभव नहीं। क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि जो भाव, रात में सुलग उठे सुबह तक उसी भाव की लपटें उठतीं रहें। मसलन रात मे पतिदेव के लिए विरह वेदना से नींद नहीं आयी लेकिन सुबह जेठानी से झगड़ा हो गया। रात्रि के प्रेमरस का गला घोंटकर जेठानी से घंटों गाली-गलौच हुई, मतलब सुबह रौद्र रस प्रभावी हो गया. पत्र में विरह और रौद्र की बात उतरनी बाकी थी कि दोपहर में गाय ने बछिया जन दिया तो अब पत्र में कबरी गाय और उसके दूध ने सबसे ऊपर जगह बना ली। जेठानी से झगड़े का जिक्र बाद में याद आया लेकिन विरह और प्रेम की बात लिखने से पहले ही अन्तर्देशीय के तीसरे पृष्ठ का गोंद आ गया. उसे चीभ से चाट कर गीला किया, दो मुक्का मारकर चिट्ठी को मजबूती से ताला मारकर डाल दिया ललका बक्सा में।

चिट्ठी रास्ते में ही इतना दिन गुजारती थी कि इधर जेठानी से याराना भी हो जाता था। ओठलाली की अदला-बदली होने लगती थी। एक दूसरे के बाल से जू़ं निकालने लगती थीं। इधर आठवें दिन चिट्ठी जब चिट्ठी पति के हाथ में आती तो इसमें यह लिखा होता था कि "अबकी आप के अवते अलगा-बिलगी होई, ई जान लेब"

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सरकारी पत्रों के अलावा, पोस्टकार्ड, अन्तर्देशीय एवं टिकट वाले लिफाफे का दौर था.. जिसमें अन्तर्देशीय मूल्य और गोपनीयता के लिहाज़ से सबसे माकूल थी। कुल तीन पृष्ठों की अन्तर्देशीय में न जाने कितने जज्बात लिखे और कहे जाते थे। पोस्टकार्ड तो एक नग्न पत्र था इसलिए इसमें सामान्य सूचनाओं के लिए उपयोग में लाया जाता था। पोस्टकार्ड को बिल्कुल रसहीन पत्र की श्रेणी में रखा जा सकता है। लिफाफा इन दोनों में थोड़ा श्रेष्ठ माना जाता था उसमें भी यदि रजिस्टर्ड डाक हो तब तो उसकी ऐसी खातिर जैसे पहली बार दुआर पर दामाद आये हों।

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अब बात होगी शिवनाथ चौबे की। शिवनाथ चौबे?

दरअसल यह नाम तो किसी की जुबान पर आता ही नहीं। पिछले बीस वर्षों से लोगों की ज़ुबान पर अब तो इन्हीं दो शब्दों ने कब्ज़ा जमा रखा था-'डाकखाना' बाबू या 'डाकबाबू' बाकी 'शिवनाथ चौबे' नामक शब्द अब सिर्फ कागज़ और अभिलेखों पर लिखने पढ़ने के लिए बचा था।

शिवनाथ चौबे पोस्टमास्टर थे। सोलह एकड़ पक्की खेती, गांव के चौराहे पर पांच दुकान की किरायेदारी उसके बाद घर में ही पोस्टमास्टर की नौकरी. अब कहना भी क्या! गांव की खेतीबाड़ी के बीच तनख्वाह की आमद होना, गाढ़ी दाल में तीन बड़े चम्मच देशी घी समझिए।

गांव में डाकखाने की नौकरी मतलब घर की नौकरी, इधर चिट्ठी छांट रहे हैं उधर दुआर पर थ्रेशर भी लगा है। दनादन मुहर भी ठोंक रहें हैं, ऊधर मैदान में धान भी तौला जा रहा है। खेतीबाड़ी, बाग-बागीचा, गाय-गोबर सब देखते हुए नौकरी भी फर्राटे से चले तो फिर कहने ही क्या!

बरामदे के बाहरी दीवार पर टंगी लाल रंग की पत्रपेटिका देखने में तो सिर्फ डिब्बा ही था लेकिन उसका होना मात्र न जाने कितनों को ठहरकर नमस्कारी ठोंकने पर मजबूर कर देता। पत्रपेटिका खुद में एक पहचान बन गई थी। आठ दस गांव के भीतर कौन परिवार था जिसको डाकखाना बाबू के दुआर पर न रुकना पड़ता। गांव से निकलने वाली और गांव तक पहुंचने वाली सभी चिट्ठियों एक रात डाकबाबू के दुआर पर विश्राम करना ही होता। उस रात चिट्ठियाँ डाकबाबू की रखैल जैसी होतीं थी।

डाकखाना बाबू बहुत खुशगवार और मिलनसार तबियत के व्यक्ति थे। सुबह नहाने धोने के बाद घड़ी से एक घंटा पूजा करते, शंख बजाते फिर सफेद कुर्ता-पायजामा पहनकर दलान में बैठ जाते। सुबह की चाय लेकर अखबार की अन्तिम पृष्ठ की चहलकदमी के बीच न जाने कितनो की चिट्ठियाँ खुद की लिखते और बांच देते डाकखाना बाबू। डाकबाबू की पत्नी जिनको डाकबबुआईन का तमगा था वो भी अपने जमाने की आठवीं पास थी इसलिए गांव की पतोहुओं की दो चार चिट्ठी वो खुद लिखती और बांचतीं। बहुत भावप्रवण शब्द और वाक्यों को दांत से कूंचकर मुस्करा कर कहतीं "बहुत मोहाता रे तोरे बिना" घर के न जाने कितने काम 'पत्र लेखन' के बदले पारितोषिक के रूप में बिना किसी शर्त करा लिये जाते..जैसे- गेहूं फटकना, सब्जी काटना, चावल बीनना. हांलाकि ऐसे कामों को महिलाएं खुशी खुशी कर देंती। इधर गेहूं फटकाया उधर एक पत्र/प्रेमपत्र तैयार।

डाकखाना बाबू के बहुतेरे काम मनीआर्डर से निकल जाते। दो चार दिन की गरज मनीआर्डर के पैसों से आसानी से सरक जाते। ऊधारी में दिये गये पैसे निकालना, डाकखाना बाबू के लिए सबसे आसान. क्योंकि जो भी गांववाले उधारी लेते, डाकबाबू से कहते कि मनीआर्डर आते ही पैसा दे दूंगा। मनीआर्डर के पैसे डाकखाना बाबू के दस्तखत से ही निकलते सो ऊधारी के पैसे, काटकर ही सुपुर्द किये जाते।

तमाम गुणों के अतिरिक्त डाकखाना बाबू के अन्दर एक भारी ऐब भी था। वह था उनका प्रेमपत्रों के प्रति अत्यधिक झुकाव। डाकबाबू दिन भर के पत्र पेटिका में जमा पत्रों को सांझ के बेला निकालने के बाद उन्हें छांटने बैठते। पत्रों में उन पत्रों की तरफ उनका आकर्षण बना रहता जो किसी नवविवाहिता द्वारा अपने पति अथवा पति द्वारा अपनी पत्नी को प्रेषित होता। ऐसे पत्रों को बकायदा छांटकर अपने शयन कक्ष में लेकर चले जाते. अन्तर्देशीय और लिफाफों को बड़ी बारीकी से खोल कर पुनः चिपकाने का खूब हुनर रखत थे डाकखाना बाबू। रात्रि में सब कार्य सम्पन्न करने के बाद श्रीमती जी लालटेन की तेज कर देंती और फिर डाकखाना बाबू और उनकी पत्नी एक ही तकिया पर सिर रखकर चटखारे लगाकर पढ़ते। हांलाकि डाकबाबू पत्र को बांचते लेकिन डाकबबुआईन की भी नजर, चिट्ठी पर बराबर बनी रहती।

पत्र खोलने और पढ़ने में जो बुराई थी वो तो थी ही, बुराई इस बात में ज्यादा थी कि पत्र पढ़ने के बाद पत्र के भावों और सूचनाओं का पाचन न कर पाना। जैसे एक पत्र में एक नवविवाहिता ने अपने पति को लिखा कि "घर में भैंस का चार लीटर दूध हो रहा है लेकिन आपकी अम्मा कुल दूध उठौना दे देती हैं। अब का बताईं,एतना कमजोरी है लेकिन एक छटांक दूध देखे के भी नसीब नाईं होला।"

अब इतना पढ़कर डाकखाना बाबू हो गये बेचैन. टहलते टहलते पहुंच गये दिनेशवा के घर फिर धान, गेंहूं भैस-गोरू से चलकर पत्र की गोपनीयता पर लुढ़क गये-

"का रे दिनेशवा क माई, कुल दूधवा बेच डारत बाटी..घरवा में एक ठो पतोह बा, अरे तनि ओहू के भी एक गिलास दे देवे क चाहीं, बेचारी दुबरा के डोरा हो गईल बा"

किसी ने वापसी पत्र में लिखा कि अबकी जयपुरी रजाई खरीदें हैं, मंजीतवा के हाथ भेजवा देंगे। चिट्ठी पढ़ते ही डाकखाना बाबू के पेट में मच गई हलचल.

"अरे,... अब तोंहके ठंडा के का फिकिर ,अब ओढ़ा न जयपुरिया रजाई.. दमदमा राति भर"

किसी नवविवाहिता को गर्भ ठहरने के लक्षण मालूम हुए, अभी पहली सूचना अपने पति को करने के लिये अन्तर्देशीय के पहले पृष्ठ पर लिखा "अबकी जल्दी आईब, कुछ तबियत ठीक नाहीं लगत बा, बाबू वाला लक्षन फेरो जान पड़त बा, लागता कि अबकी गड़बड़ा गईल"

अभी पत्र उसके पति तक पहुंचा नहीं कि डाकबाबू ने इस सूचना का पहले ही गर्भपात कर डाला। गांव में सब जान गये कि फलनवां बहू क दूसरा नम्बर बा।

देवरानी-जेठानी क झगड़ा, सास-बहू की झिकझिक, देवरा के आवारागर्दी, गांव भर में किसका कांटा किससे भिड़ा है, कौन रात के रहरी में ढूक रहा है, सबका लेखा-जोखा रखते थे डाकखाना बाबू।

ऐसी बहुत सी गोपनीय सूचनाओं के प्रचार से लोगों के मन में यह सुबहा होने लगा कि डाकबाबू चिट्टठी खोलकर पढ़ते हैं। एक दो बार लोगों ने मजाक में कहा भी लेकिन डाकबाबू फट्टे नकार गये और ऊपर से आंख तरेर कर ऐसी बगावत को कूचल डाले।

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इधर गांव में रामखेलावन के परदिपवा बो 'मझली' बड़ी तेज थी. इंटरमीडिएट में गुड सेकेंड लेके उतरी थी। घूंघट काढ़ के जब खड़ी झारती तो उसके ससुर का हाथ, लाठी सहित कांप जाता। सवाल-जबाब में बड़ी फरहर पतोह थी मझली।

एक दिन जाड़े में आठ दस महिलाएं बैठकर स्वेटर बुन रही थी कि तभी डाकखाना बाबू की चिट्ठी पढ़ने वाली बात चली। बात सुनकर 'मझली' बीच में बोली- "अबकी डाकबाबू क दिमाग हम ठिकाने लगाईब,बस तूं लोग आगे आगे देखत जा।"

" तें का कर पईबी" गोलूवा की अम्मा ने फंदा रोकर बोला।

"तूं बस देखत जा दीदी! डाकखाना बाबू भी का याद करिहैं कि केसे पाला परल रहल"

छठ के बाद प्रदीप जब गुजरात कमाने निकला तो मझली ने उसे दो दिन पहले ही पूरा प्लान समझा-बुझा दिया। गुजरात पहुंच कर प्रदीप की एक चिट्ठी आयी। साथ में एक मनीआर्डर भी भेजा।

आज प्रदीप को कमाने लिकले पूरे छब्बीस दिन हो गये। इधर सत्ताइसवें दिन मझली चिट्ठी लेकर चिट्ठी बक्सा में डालने पहुंचीं।

दुआर पर पहुंचते ही, बरामदे में बैठे डाकखाना बाबू को हाथ जोड़कर मझली ने नमस्ते किया।

"नमस्ते डाकखाना बाबू"

"नमस्ते! का रे परदीपवा बो! का हाल बा? कब आवत ह परदीप..."

" देखीं! कब आवेलें,अब इ चिट्ठी क जबाब में पता चली बाबू।" मंझली ने संक्षिप्त उत्तर के साथ पत्र, पत्र-पेटिका को सुपुर्द कर, घर को लौट आयी।

रोज की दिनचर्या अनुसार आज भी सब चिट्ठियों की छटाई के बात कुछ विशेष पत्र शयनकक्ष के लिए सुरक्षित कर लिये गये। रात्रि भोजन के बाद, शयनकक्ष में डाकबाबू, डाकबबुआईन, लालटेन और आठ दस चिट्ठियों ने प्रवेश किया।

दो चार चिट्ठियों के रसास्वादन केे बाद मझली वाली चिट्ठी हाथ आयी डाकबाबू से बड़े बारीकी से ब्लेड लगाकर चिट्ठी खोला और मंद गति से बांचना शुरु किया।

सादर चरणस्पर्श

यहाँ सब कुशल है आशा करती हूँ कि आप भी कुशल होंगे। आपको मालूम कि आपके जाने के ठीक आठवें दिन कबरी गाय को बछिया हुआ है। बछिया खूब सुन्नर, करिया रंग की है। दोनों टाइम मिलाकर छह लीटर दूध दे रही है। छोटका क बाबा चक्कर में हैं कि गईया बेंच दें। दो ठो व्यापारी चार हजार रेट चढ़ा कर गयें हैं लेकिन अम्मा बेचे के खिलाफ हैं। अम्मा कह रहीं हैं कि कुच्छो हो जायेगा लेकिन गाय बेचे नहीं देंगे। लेकिन आप चिन्ता तनिको न करियेगा, गाय बिके न पाई। ठंडा बढि गईल बा,आपन खयाल रखियेगा। रात में रजाई बहुत फेंकते हैं आप। अउर हाँ! मनोहरवा के साथे तनी कम रहीं। ओकर चाल हमके फुटहो आंखी नाईं सोभात! एक ता पियक्कड़ नम्बर एक अउर दूसरे के मेहरारू देखके बहुते स्टाइल मारेला... कुतवा!!! ओकरा हाथे कवनो समान न भेजियेगा। समान देने आता है तो मालूम पड़ता है कि ऊहै कमाकर भेजा है। आ जाता है तो डोलने का नाम नहीं लेता. एक नम्बर का...."

एक बात और कहें लेकिन तनिको टेंशन न लिजिए तब्बे कहें!

अबकी हमके मनीआर्डर न करियेगा। भले हम कर्जा काढ़कर काम चला लेंगे। ऊ का है कि डाकखाना बाबू देखे में भले शरीफ लगें और उमर में चालीसा हैं ,लेकिन हवें बड़ा बाऊर मनई. मनीआर्डर क पईसा देवे में जईसे करेजा फाटत है उनकर. पिछली बेर त हाथ पकड़ लिए हमार, कईसो छोड़ा के भागे हम, बिट्टूवा बो त देखते ही गरियावत है। बता रही थी कि ओकरे पीठ पर हाथ फेर दिहै रहें पिछले महिना..तब से देखल न चाहत उनका मुंह और दुआर। अब हमके, उनके पास जात बहुत डर लगता है।"

डाकखानाबाबू आधी चिट्ठी के चार लाइन पहिले ही आवाज़ खो दिये लेकिन डाकबबुआइन चिट्ठी हाथ में खींकर जोर-जोर से पढ़ीं, उहो दो फेरा।

डाकखाना बाबू का कमरा एक ही क्षण में कुरुक्षेत्र का मैदान हो गया, प्रेम रस की सभी तितलियां पत्र के बीच से ही धमाका सुनकर बाहर चलीं गयीं. अभी तब तो लालटेन जल रही थी लेकिन पत्र के विस्फोट के बाद डाकबबुआइन लालटेन से तेज भभकने लगीं. डाकबाबू समझाने का बहुत प्रयास किये लेकिन पूरी रात डाकबबुआईन की क्रोधाग्नि से बराबर लपटें उठतीं रहीं। डाकखाना बाबू लाख सौगंध उठाये लेकिन डाकबबुआईन टस से मस न हुयीं। रात काटना मुश्किल हो गया।

सुबह तड़के ही प्रदीपवा के घर पर डाकबाबू और डाकबबुआईन आ धमके। डाकबबुआईन दौड़ते हुए घर में गयीं और प्रदीप बो का हाथ पकड़कर खीचते बाहर लायीं-

"बोल तोर हाथ धईले रहलं कि नाहीं ?"

डाकबाबू- "बोल! कब हम तोर हाथ धरें रहलीं ?"

तब तक पूरे गांव का जुटान हो गया.

प्रदीप बो- "इ बात के कहलस ह?"

डाकबबुआईन- पहिले बताव इ हाथ धईले रहलं कि नाहीं?

डाकखाना बाबू- "हां बोल-बोल कब तोर हाथ पकड़ले रहलीं?"

" हम त केहू से इ बात न कहलीं, इ बात रऊरा से के कहलस ऐ डाकखाना बाबू?" मंझली ने आंख नचाते हुए बड़े इत्मीनान से कहा।

"लिखले नाहीं बाटी चिट्ठियां में ? कि मनीआर्डर देत क बेरा हम तोर हाथ पकरलीं?"

प्रदीप बो- "डाकखाना बाबू हम रऊरा के त कवनो चिट्ठी नाईं दीहलीं... चिट्ठी त हम मोहिता के पापा के लिखले रहलीं। इ बताईं! रऊरा बिना चिट्ठी पढ़ले कईसे जानि गईलीं?"

डाकखाना बाबू-"पहिले इ बता कि हम तोर हाथ कब पकरलीं।"

प्रदीप बो- कहत रहलीं कि दूसरे क चिट्ठी पढ़ल छोड़ दीं बाबू नाहीं त अगली चिट्ठी में डाकबबुआईन के हाथ राऊर कतल करवा देब हम, जनलीं न!

घरें जाके चाय पीं अ अबसे दूसरे क चिट्ठी न खोलब समझलीं।"

फिर मझली डाकबबुआइन की तरफ घूमी..

" ऐ डाकबबुआइन इ ठीक बात नाहीं, तनिको न शोभत आप पर, एक त डाकखाना बाबू चिट्ठी खोलेलं अ ऊपर से राऊरहूं नाहीं रोकेलीं, आप दूनों जनीं मिलके मटर छीलीलां.. बताईं ई कवनो बात हवै."

एक क्षण में सन्नाटा पसर गया, डाकखाना बाबू मंद गति से अपने दुआर पर लौट आये इस संकल्प के साथ कि अब चिट्ठी ना खुली...

खत-ओ-खतूत-१

रिवेश प्रताप सिंह

गोरखपुर

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