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भोजपुरी कहानिया

पुड़िया.....रिवेश प्रताप सिंह

पुड़िया.....रिवेश प्रताप सिंह
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थोक गल्ला मंडी में मेरा जाना महीने में केवल एक दिन होता था या यूँ समझिए कि वेतन गिरने के दो-चार दिन के भीतर झोला उठ जाता था।

थोक गल्ला मंडी में हर क्रेता की एक फिक्स दुकान होती है और क्रेता किसी विशेषता के कारण अपने विक्रेता को पसंद करता है। वैसे ही जैसे आजकल सबकी अपनी-अपनी पार्टियाँ। खैर मेरी भी एक फिक्स दुकान हुआ करती थी। "मंगल सेठ" थोक किराना भंडार। दुकान समृद्ध थी और हर प्रकार की रेंज से परिपूर्ण भी।

मंगल सेठ के दो पुत्र हैं ज्येष्ठ पुत्र गल्ला काउंटर पर बैठते और केवल रूपयों का हिसाब रखते। कलम से पर्ची बनाना और कैलकुलेटर पर बराबर उंगली कोंचना उनके जिम्मे था। दुकान के अन्दर उनके द्वारा शारीरिक श्रम में सर्वाधिक, जबड़ों द्वारा लगातार गुटखा कूचने का था। वैसे थोड़ा-मोड़ा लपक कर कोई डिब्बी या शीशी भी उतार देने में कोई कसम नहीं थी। कुल मिलाकर प्रथम दृष्टया दुकान के मालिक ज्येष्ठ पुत्र ही थे।

कनिष्ठ पुत्र का कार्य ग्राहकों की फरमाइशों को गौर करना और फरमाइशों को पुड़िया बना कर बांधना था। निसंदेह वह एक श्रमिक की तरह अपने जिम्मेदारी निर्वहन करते थे। चाहें यह उनके कनिष्ठता का अभिशाप हो या उनका विशेष गुण रहा हो।

मंगल सेठ केवल बहीखाते से उधारी को देखकर तगादा करते थे और फोन कटने के बाद चार-छह गालियाँ उस ग्राहक को गरियाते थे और इस तरह फोन पर न गरिया पाने की कसक निकाल लेते।

मैं भी एक मासिक ग्राहक की भांति नियमित था। नगद भुगतान करता था इसलिए आठ-दस किसमिस-छुहारे के साथ चाय भी मिल जाया करती थी। सम्भवतः गालियाँ मेरे हिस्से में नहीं आयी होंगी। यदि आयी भी हों तो, मैं कर भी क्या सकता हूँ ?

सालों-साल इसी श्रम-विभाजन एवं समर्पण की रफ्तार में अचानक मैंने देखा कि बड़े सुपुत्र अपने कुर्सी से नदारद थे। मैंने मन ही मन सोचा सम्भवतः कहीं गये हों। तभी, मैंने देखा कि वो महाशय एक तीसरी दुकान में पुड़िया बना रहे हैं। अरे! यह क्या ? दुकान के स्वामी की ऐसी पदावनति.....

स्वाभाविक रुप से मेरे जुबान से वही प्रश्न आया, जो आप-सभी लोग पूछते।

मेरे सवाल पर मंगल सेठ खिन्नता भरे आवाज़ में बोले- इसने बड़ा छल किया, लगभग पांच लाख रूपयों का हेर-फेर करके सारा पैसा अपने ससुराल पार्सल कर दिया। बची-खुची पीड़ा को छोटे लड़के ने पुड़िया बांधना रोक कर पूरी कर दी। दोनों ने बताया कि इसको इसके इस आचरण और छल के कारण दुकान के गल्ले से हटा दिया गया लेकिन वह पूरी दुकान को छोड़कर दूसरे की दुकान पकड़ लिया। जिससे समाज में हमारी छीछालेदर हो।

अच्छी-खासी गाड़ी पटरी से लड़खड़ा गयी थी लेकिन अब गल्ला मंगल सेठ के हाथ में था और छोटे सुपुत्र भी स्वामित्व की आंशिक पतवार थाम चुके थे।

वैसे पुत्र-मोह और भातृ-प्रेम ने उस महाशय की घर वापसी तो करा दी लेकिन विभाग बदल दिये गये।

अब ज्येष्ठ पुत्र महत्वपूर्ण पद से हटा कर पुड़िया बांधते हैं और कनिष्ठ पदोन्नति के साथ नोटों की गड्डी।

सच है आदमी समझ नहीं पाता कि अपनी हिस्सेदारी कैसे उठानी है क्योंकि प्यार-मोहब्बत, रूपया-पैसा, श्रम-आराम सबकी हिस्सेदारी का एक मानक है।

लेकिन कुछ लोग बड़े हाथ के चक्कर में पुड़िया बांधने चले जाते हैं......पुड़िया॥

रिवेश प्रताप सिंह

गोरखपुर

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