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भोजपुरी कहानिया

रामचरितमानस का कलियुग

रामचरितमानस का कलियुग
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कागभुशुण्डि जी से गरुण जी ने पूछा-
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।।
कि किस कारण से आप यह कौए का शरीर पाए हैं, वह मुझे समझा कर कहिए?
भुसुण्डी जी बोले-
एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।
इसी शरीर से मुझे राम-भक्ति मिली इसीलिए इससे मोह अधिक है।
हे पक्षीराज, आपके इस प्रश्न से मुझे अपने कई जन्मों की सुधि आ गई है, जिसमें से पिछले कल्प के एक युग पाप के मूल कलियुग की कथा सुनाता हूं-
उस युग में, मैं अयोध्या में दलित का शरीर पाकर जन्मा था, मन, वचन और कर्म से मैं शिवजी का भक्त था तथा अन्य देवों का अभिमानी निंदक था।धन के मद से मतवाला, परम बकवादी, उग्र बुद्धि और हृदय से भयानक दम्भी था। उस कलियुग के सभी नर-नारी पाप कर्म में लिप्त थे।
कलियुग के प्रभाव के कारण सभी धर्म और ग्रन्थ छिप गए थे तथा दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत-से पंथ प्रकट कर लिए थे।
हे हरि यान!
कलियुग में न वर्णाश्रम और न धर्म ही, सभी नर-नारी वेद विरुद्ध होते हैं, ब्राह्मण वेदों को बेचते हैं तथा शासक अपनी ही प्रजा को खाते हैं। जिसको जो अच्छा लगता है वही करता है तथा ज्ञानी लोग गप हांकते हैं। जो आडम्बर करता है लोग उसे ही संत मानते हैं। जो दूसरों का धन हड़प लेता है, उसे ही सयाना समझा जाता है और जो पाषंड रचता है उसे ही चरित्रवान समझा जाता है। जो झूठ और मसखरी करता है उसे ही गुणवान समझा जाता है।
जिसके बड़े नख और जटा होती है वही तपस्वी कहलाता है, लोग अजीबोगरीब (अमंगलकारी) वस्त्र और आभूषण पहने भक्ष्य-अभक्ष्य खाते हैं तथा योग करते हैं। जो दूसरों को बर्बाद कर देते हैं उनका बड़ा सम्मान होता है और जो मन, वचन और कर्म से लबार होते हैं, अफवाह और झूठ फैलाते हैं उन्हें ही कुशल वक्ता समझा जाता है।
लोग स्त्रियों के वशीभूत हो बंदर की भांति नाचते कूदते रहते हैं, दलित ब्राह्मणों को ज्ञान सीखाते हैं तथा स्वयं को ब्राह्मण बता कर दान लेते हैं। स्त्रियां अपने पतियों का तिरस्कार करती हैं तथा पर पुरुषों की सेवा करती हैं। सुहागिन स्त्रियां सुहाग के चिन्हों को धारण नहीं करती हैं तथा विधवाएं नित-नूतन श्रृंगार करती हैं।
गुरू ज्ञानहीन बहरे और शिष्य अंधे होते हैं, वे शिष्य का शोक नहीं, धन का हरण करते हैं। माता-पिता अपनी संतानों को वही धर्म सीखलाते हैं जिससे उसका पेट भर सके।
लोग ब्रह्म-ज्ञान से हीन किंतु उसी पर चर्चा भी करते हैं लेकिन धन के लालच में गुरु तक की हत्या कर देते हैं। दलित ब्राह्मणों से कहते हैं कि वे उनसे कम नहीं हैं वे न केवल उन्हें आंखें दिखाते हैं, बल्कि डांटते भी हैं।
पुरुष परायी स्त्री में आसक्त, लंपट और कपटी होते हैं, मोह से ग्रस्त, विश्वासघाती और ममता से लिपटे हुए होते हैं।
दलित विभिन्न प्रकार के न केवल जप, तप, योगादि करते हैं बल्कि व्यासपीठ पर विराजमान होकर प्रवचन भी करते हैं, कलियुग में वर्णसंकरता फैल जाती है जिससे वे दुःख, भय, रोग, शोक तथा प्रिय वस्तु के वियोग से सदा ग्रस्त रहते हैं।
सन्यासी धनी और सुविधायुक्त महलों में रहते हैं और गृहस्थ दरिद्र होते हैं, धर्मपत्नी का त्याग बढ़ जाता है और बदचलन औरतों के साथ निबाह किया जाता है। पुत्र अपने माता-पिता का तभी तक आदर करते हैं जबतक किसी स्त्री के जाल में न फंस जाएं।
कवियों का तो झुण्ड फैल जाता है पर उनके संरक्षक देखने को भी नहीं मिलते। हमेशा अकाल ही रहता है, धन होने पर भी लोग अन्न के अभाव से मरते ही रहते हैं, जल-वर्षण बहुत कम हो जाता है और बोया हुआ अन्न भी ठीक से उगता नहीं।
स्त्रियों के बाल और स्तन खुले होते हैं तथा वे सदा अतृप्त रहती हैं, लोग रोग से पीड़ित और भोग से हीन होते हैं, बिना कारण ही लोग अभिमानी और एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। लोगों की आयु ६३ वर्ष के आसपास सिमट जाती है, पर उनके घमंड ऐसा होता है मानो इस कल्प के अंत के बाद भी उनका अंत नहीं होगा।
कलियुग में लोग अपनी बहन-बेटियों के प्रति बुरा बर्ताव करते हैं। अपने परिवार के लोगों के साथ ही लोग ईर्ष्या भाव रखते हैं और कड़वे वचन बोलते हैं तथा निंदा कर के ही आनंदित होते हैं।
इन सभी पापों और अवगुणों के बाद भी हे व्यालारि
कलियुग सभी युगों से एक गुण के कारण बड़ा है कि इसमें बिना ही परिश्रम के केवल हरिगुण गाथाओं का गान करने मात्र से मनुष्य जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश
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