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भोजपुरी कहानिया

गबरा..........रिवेश प्रताप सिंह

गबरा..........रिवेश प्रताप सिंह
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तेरहवीं की उमर पार करने के बाद तालीमी मुआमले में जुनैद मियाँ उतना ही हासिल कर पाये जितना किसी सीसे के कंचे को सालोंसाल तेल के कटोरे में डुबाकर रखने के बाद कन्चा तेल से हासिल करता हो..मियाँ आठवीं जमात तक तो घसीटकर भेजे गये लेकिन आठवीं के बाद उनके अब्बू रहमत मियाँ ने भी हार मान ली क्योंकि अब घसीटते तो उनके कंधे उखड़ने का खतरा हो जाता सो चुप्पी मार लिये ....पढ़ो या बकरी चराओ हमें क्या...
बचपन से ही जुनैद कभी किताबों में न बंधे। वो उतने ही आजाद तबियत के थे जितनी उनकी बकरियाँ... सुबह से लेकर शाम तक उनकी बकरियाँ और बकरे घास चरते और यह मियाँ, मदरसा छोड़कर उनके पीछे पीछे आठ घंटे चौकीदारी करते। चहारदीवारी में कैद रहना जुनैद बाबू को कभी रास न आया।

वैसे बकरियों से उनकी मुहब्बत से पूरा गांव वाकिफ़ था उनके अब्बू को जब जुनैद को ढूंढना हो तो वो बकरियों को ढूंढते न कि जुनैद को, बकरियाँ देखकर ही अंदाज़ कर लेते कि जुनैद यहीं कहीं होंगे....ऐसा भी नहीं कि जुनैद हर बकरी से उतना ही मुहब्बत करते दरअसल बकरियों के उस पूरे कुनबे में उनका सबसे करीबी कोई था तो वो था उनका " गबरा"
काले रंग का 'गबरा' पूरे दस महीने का सबसे गबरू और चमकीला बकरा था.. जुनैद की जब आंख खुलती तो दातुन बाद में चूमते पहले गबरा का माथा चूमकर आते।

सच तो यह है कि जब से गबरा जुनैद की जिन्दगी में दाखिल हुआ तभी से जुनैद की तालीमी रफ्तार डगमगा गई.. मुहब्बत जैसे-जैसे जवां होने लगी वैसे ही कलम, दवात और नरकट, सब चबा गई। जुनैद सुबह किताबों का झोला और गबरा दोनों को साथ लेकर मदरसे को निकलते लेकिन कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि वो गबरा को बहला-फुसलाकर अपने साथ ले गये हों जब भी जीता तो गबरा ही जीता। जुनैद जब भी बरामद हुए तो खेत से ही, गबरा कभी मदरसे से न निकला..

यूं तो जुनैद जब से होश सम्हाले तब से बकरे और बकरियों का एक पूरा कुनबा परिवार के साथ ही मिला इसलिए उनको कभी लगा ही नहीं कि ये बेजुबान परिवार से अलग भी हैं लेकिन गबरा के पैदा होने के बाद जुनैद पूरी तरह गबरा के हो गये सुबह से शाम तक उसी के आगे पीछे, कभी पत्ता खिला रहें हैं..कभी अपने हिस्से का निवाला....कभी उसके गले में घंटी बांध रहें हैं...मन हुआ तो बदन पर रंग से चित्रकारी कर दिये.. ऐसा भी नहीं कि गबरा के शरीर पर जुनैद की मुहब्बत झलकती नहीं थी.. पूरे कुनबे का क्या पूरे गांव का सबसे तगड़ा बकरा था 'गबरा'। इसकी गरदन से लेकर पुट्ठे तक पूरी गोश्त की नुमाईश थी...

उस्मान मियाँ कस्बे के बड़े व्यापारी थे। उनका पूरे महीने एक ही काम था आस-पास के पच्चीस-पचास गांव में जहाँ भी बकरे तैयार हों वहाँ पहुंच जाते खरीदफरोख्त करने और जिस गांव से निकलते तो कुर्ता हल्का और रस्सी वजनदार करके निकलते। रहमत मियाँ के दरवाजे पर महीने में एक चक्कर जरूर लगाते। रमहत मियाँ के घर जो भी सौदा तैयार मिलता दाम तोड़- चढ़ाकर खरीद लाते...उस्मान हर दफ़ा गबरा को निहारते, पुचकारते लेकिन गबरा के सिपाहसलार जुनैद के शिकंजे से कभी भी गबरा को निकालने में सफल नहीं हुए .. गबरा दिनोंदिन चर्बीदार हो रहा था लेकिन जुनैद की मुहब्बत में भी वही चर्बीदार नशा बढ़ता जा रहा था.

एक दिन जुनैद दोपहर में दूसरे गांव एक निकाह में गये थे और उसी दिन इत्तेफ़ाक़न उस्मान आ धमके... उस्मान जब गबरा को अकेले देखे तो रहमत मियाँ से बोले "का रहमत मियाँ बच्चे के जिद्द में बच्चा बने हो..देख नहीं रहे गबरा कितना उम्रदराज हो रहा है और शरीर देखो इसकी पूरी चर्बी चढ़ती चली जा रहा है...अरे मियाँ सस्ते महंगे में बेंच बाच के हल्के हो लो नहीं तो खरीदार भी न मिलेंगे इसके.." उस्मान मियाँ की आवाज़ अन्दर रसोई तक गई.. दरवाजे पर जुनैद की अम्मी आकर बोलीं.. अरे उस्मान भाई ठीक कह रहे हैं अब दे भी दीजिए.. कब तक इसको बिठाकर खिलायेंगे इसमें इतनी भी कुव्वत नहीं कि कुनबापरस्ती करके दो चार रूपये का जुगाड़ कर दे..

"लेकिन जुनैदवा से का कहोगी" रहमत मियाँ दाढ़ी पर हाथ फेरते घबराकर बोले..

"कहना का है दो चार दिन खोजेगा, रोएगा और भूल जायेगा और केवल गबरा ही तो नहीं है पूरे कुनबे में किसी और को यार बना लेगा। जब गबरा हट जायेगा तो दो चार दिन में भूल जावेगा।"

सौदा तय हुआ वह भी दाम चढ़ाकर क्योंकि उस्मान को डर था कि कहीं मोलभाव के चक्कर में जुनैदवा न आ टपके नहीं तो पूरा सौदा हाथ से निकल जायेगा...

जब उस्मान गबरा को लेकर गांव से निकले तो ऐसे ही खुश थे मानों गबरा को नहीं बल्कि रस्सी में शेर बांधकर ले जा रहें हैं उधर पूरे गांव में खबर फैल गई कि आज गबरा उस्मान चच्चा के हत्थे चढ़ गया..

उधर जुनैद दावत उड़ाकर अभी गांव की दहलीज में दाखिल भी न हो पाये थे कि खबर मिली.. गबरा उस्मान मियाँ के साथ गांव की दहलीज पार कर गया... जुनैद वहीं से मिसाइल बनकर सीधे अपने घर पर गिरे.. पूरे घर में कोहराम मच गया, कभी अब्बा के पास रोते तो कभी अम्मी के पास, पूरा घर आसमान पर उठा लिया.. घंटों सिफारिशें चलीं लेकिन जुनैद टस से सम न हुए आखिर में अम्मी ने हारकर उस्मान मियाँ वाले आठ सौ रूपये निकालकर जुनैद के अब्बू को थमाये और दबे मन से बोलीं "जाये दो जुनैद के अब्बा जब नाहीं मान रहा तो ले आओ एकरे गबरा को".. जुनैद पूरी रात तकिया भिगोये और टकटकी लगाकर ताकते रहे कि कब फजिर की नमाज़ हो और अब्बू के साथ जायें उस्मनवां के घर...
सुबह तड़के जुनैद अपने अब्बू के साथ उस्मान मियाँ के घर आ धमके.. जुनैद को देखते ही उस्मान का खून सूख गया लेकिन करते का..

"का रहमत मियाँ बड़े सुबह".. उस्मान दातुन रोककर बोले
रहमत मियाँ कुर्ते से आठ सौ रूपये निकालकर उनके हाथ में धरकर बोले "हम कह रहे थे न कि गबरा को जुनैदवा से अलग न करो लेकिन तुम बहुत काबिल समझ रहे थे।" उस्मान मियाँ ने बिना किसी नानुकुर के गबरा को जुनैद के हवाले कर दिया दरअसल मसला यह था कि सौदा रोज का था बात एक दिन की होती तो क्या मजाल कोई उस्मान मियां के घर से सौदा वापस ले जाये।
गबरा के लौटने के बाद ही जुनैद ने रोटी तोड़ी.. पूरे घर में फिर रौनक़ लौट आयी.. गांव वाले फिर जुनैद और गबरा की मुहब्बत का लोहा मान गये।

साढ़े तीन साल की उमर में गबरा तो अपने कुनबे के सबसे उम्रदराज हो गया लेकिन उनके यार जुनैद अब जाके थोड़ी जवानी की दहलीज़ पर पहुंचे, अचानक थोड़ी लम्बाई खिचीं.... गालों पर थोड़े रोंये उभरने लगे..धीरे धीरे उन्हें भी एहसास हुआ कि दुनिया गबरा के आगे भी है.. अब गबरा के सींगों से ज्यादा अपने जुल्फों पर हाथ फेरने लगे.. पजामा छोड़कर पतलून, बनियान अब बुशर्ट के अन्दर छुप गई और दिल छोड़ आये रफीक मियाँ कि बिटिया नाज़ के पास....अब गबरा को लेकर बेफिक्री आ गई सारी फिक्र नाज़ के आहट के पीछे कुर्बान होने लगी.. गबरा अपने जुनैद की मुहब्बत में कभी हारा नहीं था लेकिन अब गबरा भी नाज़ के आगे अपने घुटने टेक चुका था.. जुनैद अब छतों से शिकार खेलने लगे और गबरा गांव में अकेले टहलने लगा.. कभीकभार दो चार लाठी गिर भी जाती लेकिन जुनैद को अब उसकी खबर कहाँ...

धीरे-धीरे जुनैद के घर में भी यह खबर हो गई कि जुनैद को अब गबरा की उतनी फिकर नहीं जितना रफीक मियाँ के घर की..अब उन्हें गबरा के पत्तों से ज्यादा खुद की जुल्फें प्यारी हैं..

सात महीने के आंख मिचौली मे आज वो दिन आ ही गया जब जुनैद को नाज़ ने मिलने को बुलाया। जिंदगी में जुनैद का दो ही बार दिल तेज़ी से धड़का था पहली बार जब गांव वालों ने बताया कि गबरा उस्मान के हत्थे चढ़ गया और दूसरी बार जब नाज़ का खत मिला...
उस रात भी नहीं सोये जुनैद जिस सुबह उस्मान मियाँ के घर जाना था और आज की रात भी करवटों में ही गुजरी...कड़ाके की ठंड में जब जुनैद नल चलाकर नहाने बैठे तभी घर में हलचल मच गई कि गबरा को नहलाना आसान लेकिन जुनैद को तो ठंडे पानी से नहलाना एक टेढ़ी खीर थी लेकिन आज बिना किसी के कहे ठंडे पानी से नहाने बैठे हैं...मामले की नजाकत को जुनैद के अब्बू भी समझ गये थे.. कुढ़कर बोले "जुनैद! अब तुम दूसरी दुनिया में सैर कर रहे हो" फिर गबरा के गर्दन पर हाथ फेरकर गबरा से बोले "बेटा तूरे जुनैद अब वैसे नहीं रहे, अब तेरी मुहब्बत में वो बात न रही जो जुनैद को बांध पाये.. बेटा गबरू.. अब उस्मान चच्चा ही तुमरा ख्याल रख पायेंगे...." हांलाकि यह बात जुनैद के कानों तक गई लेकिन जुनैद तो अपनी दुनिया में थे उन्हें कहां परवाह गबरा की, वो तो रंगीन ख्वाबों की दुनिया में गुलाटी मार रहे थे...

नाज़ से मुलाकात का ख्वाब आज पूरा हुआ, जुनैद अभी कुछ पूछते की नाज़ ने पूछा "आपका गबरा कैसा है" और फिर उसने बताया कि "जबसे मुझको पता चला कि आप एक बेजुबान गबरा को इतनी मुहब्बत करते हैं तभी से दिल ने कहा कि आप एक अच्छे इंसान होंगे... जब मैंने सुना कि आप उस्मान मियाँ के चंगुल से गबरा को छुड़ा लाये तभी से आपकी मुरीद हो गई .. बताईये कोई इंसान किसी बकरे की इतनी कद्र और इज्ज़त बख्शता हो तो उसके नजर में इंसान कितना कीमती होगा.. "पूरे दो घंटे की मुलाक़ात में नाज़ की जुबान पर सिर्फ 'गबरा' ही छाया रहा और जुनैद मारे डरके उसकी बात नहीं काटे कि जब मुहब्बत की असली वजह ही गबरा है तो उसकी बात काटने का मतलब अपनी खुद की मुहब्बत पर कैंची चलाना सो गबरा के पैदाईश से लेकर उसके चार साल तक जवानी का जर्रा-जर्रा खोलकर अपनी मुहब्बत को पुख्ता किये जुनैद और संग ही संग गबरा पर भी उनकी मुहब्बत फिर से जवां होने लगी.....

मुलाक़ात के बाद जेहन में सिर्फ एक ही चेहरा नाच रहा था वह था गबरा का.. रास्ते भर एक ही ख्याल कि कितनी जल्दी घर पहुंचूं और गबरा माथा चूम लूं। आज पहली बार अपने गबरा पर नाज़ हो रहा था। जुनैद सोचे भी न थे कि आज नाज़ भी जिन्दगी में आईं वो भी गबरा की वजह से.....जुनैद तेज कदमों से घर में घुसे लेकिन यह क्या! घर पहुंचते ही धड़कन थम गई, हलक सूख गई.. कांपते हुए अम्मी से पूछे

"अम्मी गबरा कहां गया"
"गबरा तो उस्मान चच्चा ले गये.." अम्मा बेफिक्री से बोलीं
"अब्बू ने खुद बुलाकर दिया उस्मान चच्चा को। अरे जब तुम्हें उसकी परवाह ही न रही तो क्या झूठा दिखावा कर रहे हो बेटा"

"आखिर क्यूँ ?" जुनैद चिढ़कर बोले..

"जा पूछ अपने अब्बू से" कहकर, अम्मी ने अपना पल्ला झाड़ा...

तब तक अब्बू चिल्लाकर बोले.. "बेटा एक साथ मुहब्बत की दो नाव नहीं चलाने को मिलेगी... जब तक गबरा के मुहब्बत में सोते-जागते थे तो गबरा को बैठाकर खिलाये हम...लेकिन जब तुम गबरा की मुहब्बत भुलाकर दूसरी पतंग उड़ाने लगे तो हम भी गबरा को आजाद कर दिये।"

"अब्बू अभी जाता हूँ उस्मान चच्चा के पास" जुनैद तेज़ी से बरामदे से निकले..

"कोई फायदा नहीं बेटा! अब गबरा उस्मान मियाँ के पास भी न मिलेगा" अब्बू बीड़ी सुलगाते हुए बेरूख़ी से बोले

"तब कहां गया हमरा गबरा"

"उस्मान के गांव से निकलने से पहले ही नाज़ के अब्बू मुंहमांगा दाम देकर गबरा को अपने घर ले गये। बतावें हैं कि अबकी बकरीद जुनैद के गबरे की कुर्बानी करेंगे।"
नाज़ के अब्बू का नाम सुनते ही जुनैद घुटने के बल बैठ गये।

अब्बू बोले "बेटा! एक तू ही शिकारी नहीं...एक से एक पड़े हैं दुनिया में। जब तूं रफीक मियाँ के घर शिकार खेल सकते हो तो रफीक मियाँ भी खेल सकते हैं बेटा...."

जुनैद यह सोचकर सिहर गये कि 'मेरी मुहब्बत का शोरबा बनेगा और वह भी मेरी ही मुहब्बत के घर...' आज उनकी दोनों ही मुहब्बत कुर्बानी की दहलीज़ पर खड़ी थीं...


रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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