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भोजपुरी कहानिया

पण्डित जी से कहो कि गाय हमको दे दें....रकम जो कहें

पण्डित जी से कहो कि गाय हमको दे दें....रकम जो कहें
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एक छोटे से गांव में एक पंडित जी, सपरिवार रहते थे। पंडित जी के घर की व्यवस्था बड़ी चौचक थी मतलब घर, धन-धान्य से परिपूर्ण था। पण्डित जी बचपन से ही गौ सेवा में रमे थे। उनके घर चार गायों के बीच एक बहुत सुन्दर, साहीवाल नस्ल की गाय भी थी "नन्दनी"। नन्दनी बहुत सीधी, सुदर्शन और दुधार थी। पंडित जी और पंडिताइन दोनों इनकी खूब सेवा-जतन करते और नन्दनी पारितोषिक में उनकी बाल्टी,दूध से भर देतीं।

उधर पास के एक कस्बे में रहने वाले सेठ को जब यह सूचना मिली कि पण्डित जी के घर एक बहुत दुधारू गाय बंधी है तो वह उसे अपने खूंटे में बाधने के लिये बेचैन हो उठे। दरअसल सेठजी भी दुधार और अच्छी नस्ल की गाय भैसों के शौकीन थे। सेठजी खुद दो मर्तबा पंडित जी के दुआर पर नन्दनी की खातिर पंहुचे लेकिन पंडित जी नन्दनी को बेचने वाली बात पर तैयार भी न हुए बल्कि नाक भौं अलग से सिकोड़ने लगे। यहाँ तक कि सेठजी ने बहुत से लोगों से यह संदेश भी भिजवाया कि पण्डित जी से कहो कि गाय हमको दे दें....रकम जो कहें। लेकिन पण्डित जी टस से मस नहीं होते। वैसे सेठ भी कम कारसाज न थे... वो एक दिन वह पंडितजी के समधी को लेकर पंडित जी के घर आ धमके.. अब पण्डित जी बेचारे दुविधा में फंस गये। एक तरफ समधी जी का सम्मान दूसरे तरफ नन्दनी की मुहब्बत! वैसे समधी जी का सम्मान भारी पड़ा। पंडित जी पंडिताइन का मानमनौव्वल करके किसी तरह नन्दनी का पगहा खोलने को राजी किये... लेकिन पंडिताइन अनमने ढंग से नन्दनी का पगहा सेठ को थमा कर कोप भवन में चली गयीं। उधर सेठ आठ हजार नगद गिनकर विजयी मुस्कान के साथ नन्दनी का पगहा थाम लिये। जाते वक्त पंडित जी ने सेठ को रोककर कहा सेठजी यदि आपको लगता है कि नन्दनी अब आपकी हो गई तो यह आपका केवल कुछ घंटों का भ्रम मात्र है। सेठ आप न पाल पायेंगें हमारी नन्दनी को। तभी बीच में समधी जी बात काटकर बोले पंडित जी आप निश्चिंत रहें आपकी नन्दनी बिल्कुल आपके घर ही जा रही है। सेठ जी बहुत अच्छे गौपालक हैं। नन्दनी के खाने-पीने और जतन में जरको कोताही हो तब आप कहियेगा।
खैर पंडित जी ने सजल नेत्रों से नन्दनी को विदा किया और गांव के सिवान तक छोड़ने भी गये। पंडित जी विदाई के वक्त रास्ते में बात ही बात में सेठजी को नन्दनी को लेकर आगाह भी किया। उन्होंने सेठ को बताया कि सेठ जी, हमरे नन्दनी की एक विशेषता यह है कि उन्हें दूहे कोई उन्हें इस पर आपत्ति नहीं रहती लेकिन दूहते वक्त उसके सामने गृहस्वामिनी अवश्य होनी चाहिए नहीं तो बहुत जंग लेतीं हैं नन्दनी... वैसी बहुत सीधी हैं हमरी नन्दनी।

सेठ, पंडित जी का हाथ दबाकर बोले आप जरको चिन्ता न करें महाराज। हमरे मलकिन बहुत सेवा जतन करती हैं गायों की। वह खुदे नाँद में चारा लेकर खड़ी रहेंगी....पंडित जी को आश्वस्त कराकर सेठजी गाते बजाते मुस्कुराते ढाई कोस का पैदल सफर तय करके अपने घर पंहुचे। घर में नन्दनी का टीका चन्नन हुआ.... नये घर और खूंटे में भी नन्दनी के हावभाव में ऐसा परिवर्तन न था कि सेठजी को तनिक भी लगे कि नन्दनी उनकी नहीं हैं...

शाम के बेला नये मेहमान के लिये चोकर खली भूसा और हरे चारे से नाँद सुसज्जित हुआ.. नन्दनी बड़े चाव से खाये जा रहीं थीं और गले की घंटी और घुंघरू झनझनाए जा रही थी। अब वक्त आया उनके दूहने का। सेठजी चमचमाती स्टील की बाल्टी लेकर थन की तरफ बैठे और सेठाइन नन्दनी के आगे नाँद के बगल खड़ी होकर नन्दनी का माथा सहलाने लगीं.. लेकिन यहीं मामला उलट गया और नन्दनी को न जाने क्या नागवार लगा कि वह बिदक कर एक तरफ बाल्टी और सेठ पर अपने पैर के खुरों से कैंची चला दीं और आगे से सेठाइन को हूरपेट कर पटक दीं.... गौशाले में चीख चिल्लाहट मच उठी.. दूध तो दूर जान के लाले पड़ गये। सेठाइन नन्दनी को लानत मलानत फेरते, गौशाले से लंगड़ाते, कंहरते, चिल्लाते भगीं.
सेठ समझ चुके थे कि नन्दनी केवल देखने में अपनी लगती हैं लेकिन वास्तव में हैं वह पण्डित जी की ही।
अगले दिन सेठ जी पगहा थामे पण्डित जी के दुआर पर नजर आये.. पण्डित जी हंसी दबाकर कुटिल मुस्कान से पूछे का हुआ सेठ चौबीस घंटे नहीं बांध पाये हमरी नन्दनी। सेठ जी शर्माते हुए बोले... अरे महाराज! आपने यह नहीं बताया कि नन्दनी केवल पण्डिताईन को ही चीन्हती जानती हैं आप तो कह रहे थे कि दूहते वक्त गृहस्वामिनी को नन्दनी के सामने खड़ा करना होता है।

पंडित जी मुस्कुरा कर बोले.. अरे सेठजी यही तो मैं आपको समझाने का प्रयास कर रहा था कि पैसा देने, खूंटा बदलने और नाँद सजाने से नन्दनी नहीं बदल जायेगीं। नन्दनी भले आपके दुआर पर पगुरी कर लें लेकिन दुहाते वक्त चीन्हेंगी केवल अपने पंडिताइन को ही हैं। क्या करें! आप ही मुगालते में आ गये थे सेठ कि आपने नन्दनी को पूरी तरह अपने पाले में कर लिया है... लेकिन हम नहीं पालते मुगालता । हम पूरी तरह निश्चिंत थे कि नन्दनी को जब पंडिताइन का चेहरा याद आयेगा तो लात चला कर सेठाइन को हूरपेट कर पटक देंगीं॥

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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