Janta Ki Awaz
भोजपुरी कहानिया

यह चुनाव है डार्लिंग...

यह चुनाव है डार्लिंग...
X
गुजरात चुनाव अपने आनंददायक मोड़ पर है, चहुँओर आनंद चू रहा है। स्थापित शब्दों के अर्थ ब्यापक हो रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के नए अर्थ ने फिलहाल राजनीतिक गलियारों में धमाकेदार दस्तक दी है। अब यह सिद्ध हो चुका कि आप जातिवाद का जहर बोने के बाद भी धर्मनिरपेक्ष रह सकते हैं। सही भी है, निरपेक्ष तो धर्म से होना है, जाति से थोड़े। कांग्रेस ने भविष्य की राजनीति को नयी दिशा दी है। एक ही साथ चार चार घोर जातिवादी और परस्पर विरोधी नेताओं/विचारधाराओं को साथ रख कर उसने सिद्ध किया है कि लोकतंत्र की जनता मूर्ख बनाने के लिए ही बनी है। जिस हिसाब से कांग्रेस के समर्थक जातिवादी नेता आरक्षण मांग रहे हैं, उस हिसाब से दो ढाई सौ प्रतिशत आरक्षण तो देना ही पड़ेगा। अच्छा है, सत्यनारायण भगवान की कथा में प्रसाद और राजनीति में आरक्षण जितना ज्यादा बांट दिया जाय, उतना ज्यादा पूण्य मिलता है। कांग्रेस को कम से कम तीन सौ फीसदी आरक्षण देने की घोषणा कर देनी चाहिए।
किसी ने बताया कि हार्दिक की कोई फ़िल्म आयी है। मुझे पता नहीं था कि हार्दिक फिल्मों में अभिनय भी करते हैं। अच्छा है, आजकल के युवा अपने कैरियर को लेकर सजग हैं। एक कार्य मे सफलता नहीं मिले तो दूसरा विकल्प होना चाहिए व्यक्ति के पास। हालांकि ऐसी सम्भावना है तो नहीं, पर यदि हार्दिक राजनीति में फेल हुए तो फिल्मों का विकल्प रहेगा उनके पास।
कोई कह रहा था, कि हार्दिक ने अलग तरह की फ़िल्म बनाई है। ठीक भी है, फिल्में नए नए विषयों पर बननी चाहिए। फ़िल्म वाले तो हर बार कहते हैं कि मेरी फिल्म बिल्कुल डिफरेंट हैं, पर हर बार पका देते हैं। उम्मीद है कि हार्दिक ने सचमुच अलग किस्म की फ़िल्म बनाई होगी।
मैंने सुना कि हार्दिक की फ़िल्म मोबाइल पर रिलीज हुई है। यहाँ उनसे गलती हुई, उन्हें शायद ब्यवसाय करना नहीं आता। यदि वे अपनी फिल्म बड़े पर्दे पर रिलीज करते तो उसे बड़ी सफलता मिलती। भंसाली की "पद्मावती" के विरोध का लाभ उनकी फिल्म को मिलता, और दर्शक पद्मावती की जगह हार्दिक की फ़िल्म देखते। उम्मीद करता हूँ कि अगली बार हार्दिक ऐसी गलती नहीं करेंगे।
अभी आम जनता में एक विवाद फैला हुआ है कि हार्दिक की फ़िल्म का निर्माता कौन है। कोई कहता है कि भाजपा, तो कोई कहता है कांग्रेस। हालांकि यह अच्छा है कि किसी ने इसमें दुबई का पैसा लगे होने की बात नहीं की, फिर भी हार्दिक को चाहिए कि वे जनता को आधिकारिक रूप से जवाब दें कि उनकी फिल्म का निर्माता है कौन। क्या पता उनकी फिल्म में लगा कर कोई अपना काला धन सफेद कर रहा हो।
वैसे गुजरात चुनाव की गतिविधियों से मैं संतुष्ट हूँ। चुनावकाल में जनता को राजनीतिक दलों से जितनी अपेक्षाएं होती हैं, वे सारी पूरी हुई हैं। बड़े नेताओं का छुप छुप कर नए नेताओं से डेटिंग करना, बड़ी बड़ी रैलियां, हसुआ की रैली में खुरपी के नारे लगना, और अंत अंत तक फ़िल्म का रिलीज होना, मतलब जनता के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखा गया। पर इस चुनावकाल की सबसे बड़ी घटना रही राहुल गांधी का "लड़कियों को छेड़ने की जगह" पर बार बार जाना। राहुल जी जैसे चरित्रवान और ब्रम्हचारी व्यक्ति से बुढ़ापे में मुझे यह उम्मीद नहीं थी, फिर भी मुझे उम्मीद है कि वे लड़की छेड़ने की कोई सभ्य तकनीक ले कर आये होंगे। जब खुर्शीद अनवर जैसे अनेक वामपंथी विचारकों ने बलात्कार का सभ्य और प्रगतिशील तरीका खोज निकाला, तो राहुल जी से भी लड़की छेड़ने की सभ्य तकनीक की उम्मीद गलत नहीं है। वे हमारी उम्मीद नहीं तोड़ेंगे।
वैसे इस चुनाव ने भारतीय लोकतंत्र के पिछले पचास साल के रिकार्ड तोड़ दिया है। अब से पहले तक मन्दिर की बात सिर्फ भाजपाइयों के जिम्मे थी। मन्दिर का नाम वे अपने राजनै…
[19:23, 11/14/2017] Pankaj Pandey: त्योहारों पर बढ़ती हुई मिठाई की खपत के कारण मिलावट का बाज़ार,जोर पकड़ लिया। दूध से बनी मिठाईयों में सर्वाधिक मिलावट के चलते लोगों ने बेसन की ओर रूख किया...जिसमें सर्वाधिक लाभ मिला श्रीमान् लड्डू को ! आप तो जानते ही हैं कि पहले लड्डू को उपेक्षित मिष्ठान के श्रेणी में लगभग पिछले पायदान पर ढकेल दिया गया था। खाते समय लोग उसे वरीयता क्रम में सबसे आखिरी में उठाते थे इसलिए तो बहुत बार लड्डू को किक्रेट में निचले पायदान के बल्लेबाजों की तरह क्रीज पर उतरने का मौका ही नहीं लगता था। कभी ऐसा भी होता था कि कुछ लोग उसे पहले खाकर खत्म कर देते कि स्वाद में चढ़ान का आरोही क्रम बना रहे। शादी विवाह में सुबह की सफाई के दौरान सबसे अधिक लावारिस अवस्था में 'लड्डू' शिनाख्त किये जाते रहे हैं। खैर अब स्थितियां पहले से बहुत बेहतर हो चुकीं हैं। लड्डू के सामाजिक प्रतिष्ठा में एक बड़ा अन्तर देखा जा सकता है। मैं यह नहीं कहता कि लड्डू को कैबिनेट में जगह मिल गई लेकिन राज्य मंत्री का दर्जा तो हासिल कर ही लिया इन्होंने। बेसन की बहुत सी मिठाईयों नें मिठाई की दुकानों पर एक उभरती हुई पार्टी की तरह वैसे ही धाक जमाई जैसे कोई नयी राजैनतिक पार्टी, अपने लगभग तीस प्रतिशत विधायकों के साथ सदन में आवाज़ बुलंद करे।
वैसे जब हम बेसन की मिठाईयों की बात करते हैं तो हमें सोनपापड़ी पर अलग से गौर फरमाना पड़ता है दरअसल सोनपापड़ी एक ऐसी मिठाई के रूप में स्थापित हुई जो मिठाई की दुकानों के अलावा जनरल स्टोर तक में झण्डा गाड़ आई। सूखी एवं शुद्ध मिठाई की दौड़ में सोनपापड़ी ने अपना सिक्का जमा लिया। बड़े-बड़े बेकर्स ने इसे अन्तर्राष्ट्रीय पैकिंग और श्रृंगार के साथ देश-विदेश के बाज़ार से रूबरू कराया। लोगबाग अपने रिश्तेदारों के घर बड़ी आसानी से इसे उपहार स्वरूप भेंट करने लगे। दरअसल यह रखने और हफ़्ते भर खाने के लिहाज़ से मुफीद है। हर जगह सुलभ, स्वादिष्ट एवं सूखी होने के कारण लोगों ने इसे प्राथमिकता से स्थान दिया।

अब आती है बात सोनपापड़ी के सम्मान और प्रतिष्ठा की। यह सुनने में आश्चर्यजनक है कि जो वर्षों से लगातार जिह्वा को अपनी मीठी सेवाएं प्रदान करते चली आई हो इस वर्ष उन्हीं जिह्वा द्वारा वह उपहास और मजाक की पात्र बनी। इन्हीं लोगों ने इसे सिर पर बिठाया और अब खिल्ली भी उड़ा रहे हैं। बहुत जलील किया लोगों ने बेचारी सोनपापड़ी को.. अब तो इसको खरीदते वक्त इससे आँख चुराना पड़ता है कि कहीँ पूछ न ले कि तुम वही हो न कि जब मेरा मजाक बन रहा था तब चुप बैठे थे और आज मुंह उठाकर चले आये मुझे खाने, चबाने, चुभलाने

मैं मानता हूँ कि सोनपापड़ी का जो सबसे बड़ा ऐब है वह है उसकी भावुकता.. अपने स्वामी के स्पर्श मात्र से टूटकर बिखर जाना और यही वो वजह है जिससे की लोग उसका मजाक बनाते हैं। वास्तव में भावुकता एक कमजोरी है। अब आप रसगुल्ले को ही देख लिजिये। देखने और छूने में कितनी मुलायमियत रहती है लेकिन इत्ती जल्दी टुटता कहां? चम्मच को कटोरी के तली तक घुसाना पड़ता है और फिर चम्मच के धार से कटोरी के तली पर एक सीधी रेखा खींचनी पड़ती है जब जाके कब्जे में आते हैं बाबू। इतने सरल हैं नहीं जितना दिखते हैं रसगुल्ला बाबू ! उधर अपनी सोनपापड़ी को देख लिजिये....बेचारी महीने भर से किसी डिब्बे में बन्द, एक दम चौकोर, व्यवस्थित, सज-संवर कर तैयार मानों आपकी ही प्रतीक्षा कर रही हो। रेशा रेशा कसा एवं सजा हुआ लेकिन ज्यों ही हाथ लगाईये न जाने क्यूं इतना निरीह हो जाती है सोनपापड़ी.... उठाते वक्त ऐसा बिखरती है जैसे कोई आपके वर्षों बाद मिले और आपका कंधे पकड़ कर लटक जाये लेकिन कमर का नीचे का हिस्सा प्रेम के आंशिक लकवे से काम करना बंद कर दे मतलब जमीन पर घिसटता रहे। मैं समझ नहीं पाता जो महीनों से कसी पड़ी थी वह केवल छूने मात्र से इतना लाचार कैसे हो जाती है। जैसे कोई बच्चा अपने स्कूल गेट पर चुपचाप अपनी मां का इंतज़ार कर रहा हो और माँ को देखते ही भभक के रो पड़े। रेशा रेशा खोलकर अलग कर देती है सोनपापड़ी वैसे ही जैसे कोई दुल्हन पहली बार मायके उतरे और अपनी सबसे प्यारी और प्रतिस्पर्धी सहेली के सामने हार, श्रृंगार और जेवर का पुर्जा- पुर्जा खोलकर दिखाने लगे।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उत्श्रृंखल तो बिल्कुल भी नहीं। ऊपर से रूखी और सूखी सी भले दिखती हो लेकिन होती नहीं। अपना रस अपने भीतर कसकर दुबकी रहती है। जब तक मुंह में नहीं जाती तब तक अपना पत्ता नहीं खोलती और मुंह में उतरते ही उसका रेशा रेशा लार में अपना अस्तित्व गवांकर एक गाढ़ी चाशनी बनकर तैरने लगता है। बड़ी लाजवंती है ! जब मुंह में ढुकती है तभी जीभ, तालु, दांत सभी से अंतरंग होकर पूरे मुंह को गुलज़ार कर जाती है।
वैसे सोनपापड़ी का हाथ में आने के बाद भी पूरी तरह काबू में न आना , मचलना, छितरना, बिखरना इनकी यह सब अदाएं कुछ लोग पसंद नहीं करते,साबुत मुंह में जाने से गुरेज़ करती है। मुंह में जाते-जाते अपना थोड़ा अंश ओठ और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में छोड़कर ऐसा प्रवेश करती है जैसे कोई नाके से ओवरलोड ट्रक गुजर रही हो और दस-बीस का चढ़ावा जरूरी हो.. थोड़ा शरीर को बांध के रखना चाहिए रेशे-रेशे में इतनी बगावत से आम लोगों को अनावश्यक सजग रहना पड़ता है कि कहीं आधे पर से ही सरक या टपक न जायें। हाथ से फिसलना कोई ठीक बात तो नहीं है।

इन सबके बावजूद सोनपापड़ी का खुद को महीनों संजीदगी से पड़े रहना अपने एक एक कोशिकाओं को खोलकर रखने के बाद भी एक दूसरे को थामकर बैठना, मुह में चुभलाने से पहले ही घुलकर चाशनी हो जाना यह सब उसके विलक्षण गुण हैं जिससे कि उसे सर आँखों पर बिठाया जाये। घर लाया जाये और हफ्तों उसे मुंह में लेकर घुला घुला कर खाया जाये॥

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
Next Story
Share it