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टैलेंट, मौलिकता और चेतना की ''इंटर्नल रैम''

टैलेंट, मौलिकता और चेतना की इंटर्नल रैम
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प्रतिभा या टैलेंट एक रोचक विषय है। संस्कृत के क्लासिकी आलोचना-शास्त्रों में प्रतिभा को ''काव्यकारण'' कहकर पुकारा गया है। वे लोग काव्यास्वाद को कार्य-कारण की कड़ी में देखते हैं। ''शब्दकल्पद्रुम'' में प्रतिभा को ''प्रत्युत्पन्नमति'' कहा गया है, यानी प्रतिक्रिया की एक ''स्पॉन्टेनीयस मेधा'', जिसे कि संगीत की भाषा में ''उपज'' कहा गया है। राजशेखर ने दो तरह की प्रतिभाएं मानी हैं : ''कारयित्री'' और ''भावयित्री'' : ''कारयित्री'' प्रतिभा रचनाकार की होती है, ''भावयित्री'' प्रतिभा आस्वादक की। यानी पोएट्री को ''एप्रिशिएट'' करने के लिए भी ''टैलेंट'' चाहिए।

प्रतिभा का सीधा संबंध मौलिकता से जोड़ा जाता रहा है। ''मौलिक-प्रतिभा'' करके एक पद बनाया जाता है, जबकि मज़े की बात है कि प्रतिभा का सीधा संबंध मौलिकता से उतना नहीं होता, जितना कि आपके ''प्रोसेसिंग सिस्टम'' से होता है। और कोई भी विलक्षण रचनाकार यही स्वीकारेगा कि मौलिकता जैसी कोई चीज़ अव्वल तो होती ही नहीं। मौलिकता एक मिथक है। और तमाम नए सृजन पहले से स्थ‍ित संयोगों के नए ''घात-प्रतिघातों'' का परिणाम होते हैं। जैसे आप 2 मेगा पिक्सेल के कैमरे से कोई तस्वीर खींचें, फिर वही तस्वीर 20 मेगा पिक्सेल के कैमरे से खींचें और फिर वही 200 मेगा पिक्सेल के कैमरे से खीचें। एक ही दृश्य अपनी ''प्रोसेसिंग'' की गुणवत्ता के कारण क्रमश: परिष्कृत रूप से उभरकर सामने आता है। मेरा मानना है कि किसी कैमरे का उम्दा ''लेंस'' उसकी ''प्रतिभा'' है, और अगर उसके पास वह है, तो फिर वह किसी भी ओरिजिनल दृश्य को कभी भी आविष्कृत कर लेगा, पुराने में से भी नया सृजित कर लेगा, बशर्ते ''अध्यवसाय'' उसके साथ हो। यानी ''हुनर'' तो हो ही, ''शऊर'' भी हो।

हर रचनाकार की चेतना का एक ''इडियोसिनक्रेटिक स्ट्रक्चर'' होता है, जिसमें चीज़ें आकार ग्रहण करती हैं, लेकिन ''कच्चा माल'' हमेशा पहले से मौजूद रहता है। यहां पर महत्व आपकी ''इंटर्नल रैम'', आपके लेंस के पिक्सेल्स वग़ैरा का है। सत्यजित राय ने बिभूतिभूषण से बांग्ला ग्राम आख्यान लिया, वित्तोरियो दे सीका से इतालवी नवयथार्थवाद लिया, उसको मिलाकर ''पथेर पांचाली'' बनाई तो वो तीसरी ही नई चीज़ बन गई, ''लिरिकल रियलिज़्म''। परंपरा से चली आ रही अपौरुषेय कृतियों पर भी आप मौलिक ''बढ़त'' ले सकते हैं : लिखा होगा नसिकेतोपाख्यान किसी अज्ञात ऋषि ने और रचा होगा कठोपनिषद, लेकिन कुंवर नारायण जब उस पर ''वाजश्रवा के बहाने'' लिखेंगे तो वे उस नए टेक्स्ट पर अपनी ऑनरशिप को नए सिरे से क्लेम करेंगे, क्योंकि वह ''एक्सक्लूसिव'' है और किसी अन्य चेतना में संभव नहीं हो सकता था। आपकी चेतना का यह ''इडियोसिनक्रेटिक प्रोसेसर'' ही आपका ''ओरिजिनल टैलेंट'' है, जिसके रेशों का निर्माण प्रतिभा, अध्यवसाय, स्मृति और जीवनानुभव से होता है।

गाने के बोल भले ही वही रहे हों, उसकी मेलडी भी वही परंपरागत रही हो, लेकिन उसकी कोर्ड लाइन में, बेस लाइन में, अरेंजमेंट में रद्दोबदल करने से उसमें ख़ास फ़र्क आ जाता है। बीटल्स के ''लॉन्ग एंड वाइंडिंग रोड'' से बेहतर उसका जॉर्ज माइकल वाला रेंडिशन माना जाता है। बॉब डिलन के ''ब्लोइन इन द विंड'' से बेहतर पीटर पॉल एंड मेरी का वर्शन माना जाता है। सचिन देव बर्मन ने अनेक मणिपुरी लोकगीतों से धुनें उठाकर फिल्मी गाने बनाए हैं, लेकिन अगर आप मूल सुनें तो पाएंगे कि दादा बर्मन ने उसमें अद्भुत परिष्कार कर दिया है। यह परिष्कार ही मौलिकता है। आप देख लीजिए, एआर रहमान कितनी सारी जगहों से धुनों का विन्यास लेकर आता है। रहमान के किसी गाने को ग़ौर से सुनना हैरान कर सकता है, उसमें अरबी, यूरोपी, पूर्वी, कर्नाटकी, हिंदुस्तानी, जैज़, रॉक इत्यादि परंपराओं से ध्वनियां आवाजाही करती रहती हैं। रहमान का दिमाग़ एक बहुत बड़े ''साउंड प्रोसेसर'' की तरह है और यही उसका टैलेंट है।

बोर्खेस कहता था, वह क़तई ओरिजिनल नहीं है। बॉब डिलन कहता है, वह रत्तीमात्र ओरिजिनल नहीं। काफ़्का एक परंपरा से आता है और एक परंपरा रचता है, उसका एक ''बायोलॉजिकल लीनिएज'' है, ''रिवर्स जेनेटिक्स'' है। जाने कितनी चीज़ें होती हैं, जो आर्टिस्ट की चेतना के कारख़ाने में काम करती रहती हैं और उसके यहां ''सबकॉन्श‍ियस'' में ''रजिस्टर'' होती रहती हैं। मौलिकता का मतलब ''घात-प्रतिघात'' और ''अंत:क्रिया'' का नया कोण है, जिसमें महत्व हमारी चेतना की ''रिसेप्ट‍िविटी'' का है। और इसके सिवा कुछ भी मौलिक नहीं है, सब गड़बड़झाला और गोरखधंधा है।


सुशोभित सिंह शक्तावत
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