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धोनी के बाद जो धोनी आता है, वह अपने पूर्ववर्ती धोनी से अधिक नशीला होता है...

धोनी के बाद जो धोनी आता है, वह अपने पूर्ववर्ती धोनी से अधिक नशीला होता है...
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क्रिकेट के हर युग के पास अपना एक धोनी होता है। हर युग समझता है कि उसके धोनी से बेहतर कोई नहीं आएगा। पर हर युग अपने बाद के युग से पीछे छूट जाता है। धोनी के बाद जो धोनी आता है, वह अपने पूर्ववर्ती धोनी से अधिक नशीला होता है...

जब हम क्रिकेट देखा करते थे तब सौरभ दादा का जलवा हुआ करता था। हमें लगता था कि दादा से बड़ा खिलाड़ी न कोई आया, न आएगा... दादा सचमुच थे भी ऐसे ही। हालांकि उस समय भी बड़े भइया और चाचा लोग मुस्कुरा कर कहते थे, "तुमलोगों ने अभी कपिल का जलवा नहीं देखा! कपिल जब बैटिंग के लिए उतरते थे तो रेडियो कमेंटेटर कहता था कि तालियों की गड़गड़ाहट सुन कर आप समझ ही गए होंगे कि अब फील्ड में कपिल देव उतर रहे हैं।"

चाचा लोग हमारे हजार कहने के बाद भी स्वीकार नहीं किये कि सौरभ दादा कपिल के टक्कर के थे, उसी तरह हमारी पीढ़ी स्वीकार नहीं कर पाई कि दादा या सचिन से बेहतर कोई है। धोनी को जिन्होंने खेलते हुए देख कर क्रिकेट देखना सीखा है, महसूस किया है, वह नहीं मानेगा कि धोनी से बेहतर कोई हो सकता है, पर सच यह है कि धोनी के बाद कोई उससे भी अच्छा आया है/ आएगा।

फिर भी धोनी अपने युग के सबसे बड़े नायक रहे हैं। धोनी ने 2011 विश्व कप के फाइनल में मुझ जैसे क्रिकेट प्रेमी को खुशी के मारे रोने का मौका दिया था।

भारतीय क्रिकेट में दो जबरदस्त बल्लेबाज सचिन और काम्बली लगभग एक साथ आये थे। दोनों बचपन के मित्र भी थे। दोनों में एक और समानता है कि दोनों एक-एक बार फील्ड में फूट फूट कर रोये हैं। काम्बली तब रोये थे जब अजहर की कप्तानी में खेल रही टीम इंडिया 1996 के विश्वकप सेमीफाइनल का मैच हार गई थी। तब भी काम्बली के साथ-साथ दर्शक भी रो पड़े थे। दूसरे सचिन तब रोये थे जब धोनी की कप्तानी में भारत ने विश्वकप जीता था। काम्बली का रोना कोई याद करना नहीं चाहता, पर सचिन के आँसू सदियों तक याद किये जायेंगे। सचिन के उन उन खुशी के आँसुओं में धोनी का सबसे बड़ा योगदान था।

मुझे याद है पहले 20-20 विश्वकप के फाइनल में जब भारत-पाक का मैच था, तब हम बरसात में भीगते हुए सिनेमा हॉल गए थे। हमारे यहाँ तब सिनेमा हॉल वाले बड़े पर्दे पर क्रिकेट मैच भी दिखाने लगे थे। तब जीत के बाद पूरा हॉल घण्टे भर तक नाचा था। धोनी एंड टीम ने तब हमें नाचने का मौका दिया था।

पर इन सब के बाद धोनी एक जगह चूक गए। भारत में सीनियर्स के अपमान की परम्परा उन्हीं ने शुरू की। धोनी की कप्तानी में गांगुली, युवराज, सहवाग आदि को जिस तरह अपमानित होना पड़ा, वह सबने देखा। धोनी का तर्क यह था कि यदि चलोगे तो खेलोगे नहीं तो बाहर जाओगे। तब धोनी भूल गए बहु भी कभी सास होगी। आज धोनी अपनी उसी अभद्र परम्परा के शिकार हुए हैं, जिसकी शुरुआत उन्होंने खुद की थी।

धोनी के प्रशंसक उन्हें फिर खेलते हुए देखना चाहते हैं, पर अब यह कठिन ही लगता है। भारतीय टीम जिस तरह से लगातार कहर ढा रही है, उससे अब टीम में धोनी जैसे बुजुर्ग के लिए कोई जगह नहीं दिखती।

फिर भी! धोनी जैसे बड़े खिलाड़ी को एक मौका मिलना चाहिए ताकि वे फील्ड से सन्यास की घोषणा कर सकें। उनका सन्यास कपिल की तरह गुमनामी में नहीं होना चाहिए।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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