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लव जिहाद: इसे प्रेम नही पटाना कहते हैं!

लव जिहाद: इसे प्रेम नही पटाना कहते हैं!
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कहाँ से लिखना प्रारंभ करूँ समझ में नही आ रहा है! कई बार मन भीतर भावों का समंदर हिलोरें मार रहा होता है और लेखनी मन भीतर उठ रहे भावों कर ज्वार भाटे में इस तरह उलझी होती है कि भाव कागज पर उतारने से मना कर देती है। सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी की किताब #परत" भी भावनाओं का ज्वारभाटा या कह लीजिए सुनामी है।

मेरे हिसाब से #परत मुझे सम्पूर्ण लगी जो कभी गुदगुदाती है तो कभी रुलाती भी है। भूमिका में सर्वेश जी ने लिखा है कि इस किताब को लिखते समय आप रोये हो, तो मुझे भी कहते हुए कोई संशय नहीं है कि इसे पढ़ते समय मेरी आंख कई बार भीगी हैं। परत में दोस्ती की वह गंध है जिससे कहानी की शुरुआत से अंत तक नहीं निकल पाते। 'परत' ग्रामीण राजनीति का सजीव प्रसारण है जो बताती है कि भले ही दो भिन्न विचारधारा के व्यक्ति में राजनैतिक बैर हो लेकिन सामाजिक और मानवीय मूल्यों के लिए यह बैर ताक पर धर दिया जाता है। तो दूसरी तरफ कटुसत्य उजागर करती है भारत में आज भी वोट की कीमत वही है आधा पव्वा देशी दारू और 150 से 500 रुपये नगद।

लव जिहाद एक ऐसा विषय है जिस पर और लिखा जाना चाहिए। सर्वेश भाई ने #परत' में लव जिहाद के शिकार परिवार की मनोदशा लिखी है। पिता की बेबसी मां की लाचारी भाई बहनों के अश्रु सब कुछ तो है #परत में। "भागने वाली लड़कियों नहीं समझती कि उनके सपने का मूल्य उनके भाई बहन अपने अश्रुओं से चुकाते हैं।" भागने वाली लड़कियां यह भी नहीं सम्मझती कि चाहे पर वह पीठ फेरकर चली जाएं लेकिन परिवार वाले पीठ नहीं फेरते।

#लवजिहाद की शिकार बेटी को कानूनन हारने के बाद भी पिता की दारुण पुकार कि "वह मुर्गी नही है, मेरी बेटी है। उसको कलेजे से लगाकर पाला है हमने। ले जा रहे हो तो कम से कम बहू की तरह सम्मान से जाओ...मेरी बेटी को मुर्गी तो न बनाओ।" भारत के प्रत्येक शहर में आज कोई न कोई पिता इस तरह की गुहार आये दिन लगाता हुआ मिल जायेगा।

जब तक समाज में 'शिल्पी' जैसी हिन्दू युवतियां सिनेमा के डायलॉग को असल जिंदगी में शामिल करने के लोभ से नहीं बच पाएंगी तब तक मदरसों से धनपोषित कोई न कोई सोनू चमचमाती मोटर सायकल, हाथ में कलावे और चिकनी चुपड़ी बातों के दानों का चारा बनाकर मुर्गी बनाता रहेगा जो हलाल होने को स्वयं तैयार रहती हैं।

#परत' केवल लव जिहाद की शिकार लड़की की दास्तां नहीं है बल्कि रघुनाथपुर के बहाने सम्पूर्ण ग्रामीण परिवेश की कहानी है। जहां एक ओर 'अरविंद सिंह' जैसे पक्के राजनीतिक हैं जो भैंस का दूध निकालने के लिए अपने माथे के गमछे से भैंस का पिछवाड़ा भी पोंछ सकते हैं तो वहीं 'आलोक पाण्डेय' जैसे नेता भी हैं जो 'मुसाफिर बैठा' जैसे वामपंथी के मुख से शिवरंजनी गवा दें।

रघुनाथपुर के सामाजिक सौहार्द को सर्वेश जी ने बख़ूबी रखा है। आपसी संवाद ठेठ देहाती भाषा में इस किताब को और सजीव कर देते हैं। गांव में पनपा आपसी मनमुटाव कब दूध के उबाल के समान ठंडा हो जाता है का बड़ी सुंदरता से चित्रण किया है।

अगर आप एक साथ कई कलेवर की किताब पढ़ना चाहते हैं तो अमेजॉन से अभी आर्डर देकर सर्वेश तिवारी 'श्रीमुख' की परत अवश्य मंगवाईये। क्योंकि यह किताब हंसने रुलाने के साथ हिन्दू समाज को संदेश देना चाहती है कि अपनी लड़कियों को मुर्गी की तरह हलाल होने से बचाना चाहते हो तो उनको उनके आस पास घूम रहे खतरों से आगाह कीजिये क्योंकि जानकारी ही बचाव है।

धन्यवाद

संजीव जोशी

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