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'सर्वेश' नाम का बांका छोरा ....

सर्वेश नाम का बांका छोरा ....
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पचास के दशक में 'अज्ञेय' की कविता आयी -

साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ-

तब कैसे सीखा डँसना-

विष कहाँ पाया?

क्या पता किसी जहरीले साँप से संभवतः अज्ञेय की मुलाकात उन दिनों हुई होगी ! फिर मुलाकात भेंटवार्ता में तब्दील हो गई हो ! जो भी हो, कविता विवरण नहीं, कविता का एक सरोकार प्रश्न खड़े करना भी है । यह प्रश्न शहर और शहरीयत पर एक इल्ज़ाम के रूप में तब सामने आया था । समय के साथ शायद इस प्रश्न पर तंज की कई परतें और उभर आई हो !

बहरहाल, मैं कोई आलोचक हूँ नहीं । आलोचकों ने इस कविता की अर्थवत्ता पर पहले ही बहुत कुछ कहा है । फिलहाल मेरी गरज कुछ और है । और वो यह कि गाँव आज कितना गाँव है ? हममें से कितने हैं जो गाँव की सामाजिक-सांस्कृतिक सत्ता और विरासत के पहरुए हैं ? अपने अपने गांवों से पलायित शहरियों के लिए क्या मनी और बटाई जैसे सरोकारों तक ही सिमट कर रह गया है गांव ?

जवाब बनकर यहीं खड़ा होता है 'सर्वेश' नाम का बांका छोरा एक प्रहरी के रूप में । बदहाली, गुरबत, भूख, के साम्राज्य से पलायन किये बगैर, उसी मिट्टी के भीतर अपना पैर इतना धँसा चुका है कि कभी-कभार उसे अपने ही पैर तलाशने में मशक्कत करनी पड़ती है । अर्थशास्त्री जी पलायन कर गये, सर्वेश खड़ा रहा हिमालय की तरह । दुख की गर्मी में खुद को पिघलाता तो नदी की महत्ता बढ़ती । अपनी सुखों वाले पलछिन को दधीचि की तरह जीता हुआ सर्वेश बना रहा अपने गाँव में । गोपालगंज जिले के कुचायकोट ब्लॉक के करवतही गाँव में । एक ऐसा भूगोल जो अपने मिजाज में पूरा गाँव था तब ।

मुझे याद है अपनी किशोरावस्था में 'सर्वेश' टाटा बुलाये गए थे । आज भी याद है मुझे कम बोलने वाला सर्वेश, हां-हूं से काम चलानेवाला सर्वेश, जीवन के हलाहल को हंसकर पीने के बावजूद गर्दन पर मफलर या कोई साफा इस गरज से लपेटा हुआ सर्वेश कि गरलपान से कंठ पर उभर आया नीलापन कोई देख न ले । समय बलवान है और समय ही सूत्रधार भी । कुछ महीने बाद सर्वेश गोपालगंज लौट जाता है । शायद, शहरी प्रदूषण से उसका बालमन पहले से ही वाकिफ़ था । उसे साफ ऑक्सीजन की तलाश थी । अय्यास जीवनशैली से अलग अभाव को नजदीक से देखते जीते हुए अपने गाँव मे ही बड़े होने की ललक थी ।

तब न जाने क्यों उस छोटे से सर्वेश में मुझे एक हामिद दीखता था जिसे हर वक़्त एक साथ कई सारे चिमटे की तलाश थी ताकि किसी भी औरत की उंगली तवे पर रोटी पलटते हुए न जले । वो यूं ही वक़्त गुजारना नहीं चाहता था । और वो यह भी नहीं चाहता था कि जीवन कटी पतंग बनकर रह जाए । आजीविका के प्रश्न से जब सामना हुआ तो क्या खूब निर्णय लिया उसने । बिजनौर की नौकरी रास नहीं आई । अपनी चाहत को जुनून बनता हुआ देखने से पहले उसने शिक्षक के रूप में गांव के बच्चों की सेवा करना तय किया । शायद इतना ही नहीं अपने गाँव में एक धार्मिक-सांस्कृतिक अलख जगाने का बीड़ा सर्वेश ने तब उठाया जब बच्चे सही माहौल और उचित अभिभावकत्व के अभाव में ताड़ी महुआ पीना सीखते हैं ।

कितना लिखूँ इस श्रमिक पर । सर्वेश को मैं जितना जानता हूँ उस आधार पर इतना तो कह ही सकता हूँ कि उसकी संवेदनशीलता, इतिहास-संस्कृति की समझ, उसकी श्रमशीलता, उसकी सहृदयता, उसकी बोली की खनक, उसकी गतिविधियों क्रियाकलापों में एक जिंदादिल ठसक, इत्यादि गुणधर्मिता बिरले हैं । बस इतना जानिये कि भीतर एक मोम की तरलता समेटे हुए यह जवान बाहर न जाने कितनों के जीवन में मोमबत्तियां जला चुका है । एक पसरती हुई रोशनी का नाम है सर्वेश, एक सिमटती हुई धुंध का नाम है सर्वेश । एक वीर जिसकी व्रतधारिता अनूठी है । एक अफसानानिगार जो मजलूमों की सोचता है । अन्याय के विरूद्ध कलम को तलवार बना लेता है । एक धर्मनिष्ठ जो पाखंड की परतों को उघाड़ने में देर नहीं करता । एक कवि जो व्यवस्था के शीर्ष पर आसीन निकम्मों को हिजड़े कहकर संबोधित करने का साहस रखता है । एक अनुज जो टाटा आता है तो मुझसे मिले बगैर लौटने को अपना गुनाह नहीं मानता ।

कुदरत ने सर्वेश का निष्ठुर इम्तेहान भी लिया है । लेकिन, इम्तेहान में फेल होना उसकी फितरत नहीं । अनुज से मिले हुए बरस बीते । लेकिन, ख़बर मिलती रहती है ।

'पतरकी' आई त्रिपाठी जी की । फिर 'परत, आई सर्वेश बाबू की । मतलब यह बूझिये कि उत्तर भारतीय खासकर बिहार का गांव सिमट आया इन दो जादुई मज़मुओं में ।

'परत' आज ही आयी है । अब दरवाजे पर कोई दस्तक नहीं देता, कुंडी नहीं खटखटाता, ठक-ठक नहीं करता । कॉलबेल दबाता है या मिसकॉल करता है । सुबह डिलीवरी बॉय ने कॉलबेल बजाया । दरवाजा खोलते ही एक गाँव मेरे कमरे में दाख़िल हुआ । गाँव की एक सोंधी और भीनी खुशबू कमरे में फैली । तत्काल कुछ पन्नों और कई हर्फ़ों से गुजरा । लेकिन, यह जीवन है । यहां हर चंदर को पत्तल, कुल्हड़ गिनने से लेकर बैंड वाले को एडवांस देने के काम अकेले करने पड़ते हैं । रात में इत्मीनान से पढूंगा । फिर पाठकीय टिप्पणी यहीं टंकित होगी । शुक्रिया अमेजन ।

बाँके छोड़े की स्याही को नमन ।

--- संतोष सिंह ---

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