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परत , प्रेम के नाम पर षडयंत्र के विरुद्ध शंखनाद है ।

परत , प्रेम के नाम पर षडयंत्र के विरुद्ध शंखनाद है ।
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जी हाँ ! पुस्तक समाप्त करने के पश्चात पहला भाव यही आया है मन में । लेखक की लेखन क्षमता के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है , किन्तु जो विषय चुना है उन्होंने वह अद्वितीय है । सर्वेश यदि पुस्तक के सम्बन्ध में सूचित करते समय कहते हैं कि इस विषय पर लिखी यह पहली किताब है तो मेरे ज्ञान के अनुसार गलत नहीं कहते । इसके लिए जिस हिम्मत की आवश्यकता होती है , वह कुछ ही लोगों में होती है और सर्वेश उनमें से एक हैं । इस उपन्यास में लेखक ने न तो कहीं अपनी भावनाओं के उफान को कम करने का प्रयास किया है और न ही कलम की धार को कुंद होने दिया है । विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से राजनीतिज्ञों और व्यवस्था को जिस तरह से धोया है लेखक ने उसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है , अद्भुत । पूरा उपन्यास आपको आपके ही समाज से परिचित कराता निर्बाध गति से आगे बढ़ता है और पुस्तक के अंत में आपको अपनी पूर्णता का बोध करा के दम लेता है । जबरदस्त रोचकता लिए यह उपन्यास अपनी प्रवाहपूर्ण प्रस्तुति के लिए भी जाना जाएगा , मैंने इसे एक दिन में खत्म किया है ।

उपन्यास में दो कथानक समानांतर रूप से चलते हैं । एक चुनावी राजनीति पर आधारित है तो दूसरा एक युवती के साथ हुए छल पर । दोनों कथानक ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं तथा लेखक दोनों के साथ पूर्णतः न्याय कर पाने में सफल हुए हैं ।

उपन्यास की भाषा शैली बेहद सधी , सहज और ग्राह्य है । पात्रों का गढ़न और उनके साथ न्याय करने में लेखक ने कोई चूक नहीं की है । ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित यह उपन्यास आपको रघुनाथपुर गांव में ले जाकर खड़ा कर देता है । फिर चाहे कमलेश मुसहर हो या आलोक पांडेय , मुसाफिर बैठा हो या अरविंद सिंह या फिर फातिमा , हर पात्र आपको अपने आस - पास का ही नजर आता है । शिल्पी और श्रद्धा की दोस्ती आपके मष्तिष्क में कॉलेज जाती दो सहेलियों की हँसी ठिठोली की छवि अंकित कर देती है । छोटे - छोटे पात्र भी उपन्यास में महत्त्वपूर्ण बन पड़े हैं । उपन्यास की नायिका शिल्पी का चरित्र गढ़ने में लेखक ने कमाल किया है । यह ऐसा चरित्र है जो प्रारम्भ में सामान्य स्कूली लड़कियों सी चुहलबाजी करती दिखती है , बीच में उससे नफरत होने लगती है और जैसे - जैसे पन्ने पलटते जाते हैं , उसके प्रति असीम सहानुभूति और दया का भाव जागृत हो उठता है । अंत में ?.....अंत में भी जो भाव आपके हृदय में उपजेंगे वो आपको कत्तई निराश नहीं करेंगे ।

उपन्यास व्यक्ति के सामान्य जीवन के विविध प्रसंगों का सटीक रेखांकन करता है । परमेश्वर शाह और उनकी पत्नी का झगड़ा और झगड़े के बाद सुलह की घटना आपको हंसाएगी भी और आपके मधुर भावों का पोषण भी करेगी । कबूतर मुसहर की मृत्यु का प्रसंग उन प्रसंगों में से है जो आपको पेट पकड़ कर हँसने को विवश कर देगा , बावजूद इसके यह प्रसंग स्वार्थ की राजनीति की परत भी उधेड़ता है । रामकेवल राम का हलवाई की दुकान पर बैठकर बिना पहचाने लोगों पर वोट के नाम पर खर्चा करना , और बाद में उन्हीं लोगों के द्वारा पिट जाना , चुनावों की जमीनी हकीकत से रूबरू करायेगा । लेखक ने विवाह पर भी बहुत ही अच्छा लिखा है , श्रद्धा और पार्थ के विवाह का प्रसंग पढियेगा , इस संस्कार के विषय में मुझे तो कई नई जानकारियां मिलीं । यह लेखक का कौशल ही है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के हर स्थिति और घटना का दृश्यांकन मष्तिष्क में अपने आप हुआ जाता है ।

ज्यादातर संवाद तीर की तरह कलेजे में लगते हैं । लगभग हर तीसरे पृष्ठ पर कोई न कोई लाइन आपको अवश्य ही मिल जाएगी जिसे आप अंडरलाइन करना चाहेंगे , याद रखना चाहेंगे । शिल्पी के पिता विनोद लाल का कचहरी में अपनी बेटी के लिए "मुर्गी हलाल हो गई " सुनना और आहत होकर जमीन पर बैठ जाने के बाद चिल्ला - चिल्ला कर रोते हुए कहना " वह मुर्गी नहीं है रे सुअर ! वह मेरी बेटी है "....आपकी आँखें नम कर देगा । ऐसे न जाने कितने संवाद हैं जो आपको भावुक करेंगे , हंसाएंगे , सोचने पर विवश करेंगे । लेखक की मानव मनोविज्ञान पर अच्छी पकड़ है , इसका उदाहरण वो अपनी कई कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत कर चुके हैं । शिल्पी के घर से भागने के बाद समाज के व्यवहार से आहत उसके छोटे भाई बहन की मनोस्थिति का वर्णन लेखक ने बेहद शानदार तरीके से किया है , इसके साथ - साथ गायत्री और विनोद लाल का भी। बाकी पुस्तक की कहानी पर कुछ लिखना इसको लेकर पाठकों की उत्सुकता को भंग करना होगा ।

पुस्तक की छपाई साफ और सुपाठ्य है । पन्ने उम्दा क्वालिटी के हैं । किताब हाथ में अच्छी लगती है । इसके लिए प्रकाशक बधाई के पात्र हैं ।

आज से पहले भी कुछ एक अच्छी किताबों पर अपनी प्रतिक्रिया दी है , परत के लिए विशेष आग्रह करूँगा कि आप इसे जरूर लाएं , पढ़ें , घर में बड़े हो रहे बच्चों को पढ़ाएं और संजो कर रखें ताकि आपकी आने वाली पीढ़ी भी एक कड़वी सच्चाई से रूबरू हो सके । वो जान सकें कि जिस माहौल में वो जी रहे हैं उसमें अज्ञानता , असुरक्षा का सबसे बड़ा कारण है । इस पुस्तक में वह सामर्थ्य है जो व्यक्ति को गुमराह करने वाले तमाम झूठ की परत को झाड़ कर रख देगी ।

परत मात्र एक पुस्तक नहीं , आज के समाज की सच्चाई है , इससे सबको रूबरू होना चाहिए ।

आशीष त्रिपाठी

गोरखपुर

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