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वशिष्ठ नारायण सिंह जी चले गए। हमारी मिट्टी का वह सितारा जिसने कभी अपनी प्रतिभा का डंका पूरे विश्व में पीटा था

वशिष्ठ नारायण सिंह जी चले गए। हमारी मिट्टी का वह सितारा जिसने कभी अपनी प्रतिभा का डंका पूरे विश्व में पीटा था
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वशिष्ठ नारायण सिंह जी चले गए। हमारी मिट्टी का वह सितारा जिसने कभी अपनी प्रतिभा का डंका पूरे विश्व में पीटा था। वह गणितज्ञ, जो यदि बिहार की जगह अमेरिका में होता तो ऐसा होता कि होने की मिसाल होता...

खबरों के बीच की खबर यह है कि अस्पताल ने उनके शव को बाहर फेंक दिया। शायद पैसे कम पड़े हों, या पैरवी कम पड़ी हो। बिना पैसे और पैरवी वाले व्यक्ति के शव को फेंक देने का रिवाज है हमारे यहाँ...

इस देश में विद्वानों के साथ यही होता है। प्रेमचंद जी के पुत्र ने लिखा है कि उनकी मृत्यु के समय शवयात्रा में कुल बारह लोग थे। जब हरिश्चंद घाट पर उनका शव जलाया जा रहा था तो दूर किसी ने पूछा, "अरे कौन मर गया?"

दूसरे ने उत्तर दिया, "अरे कोई मास्टर था, यहीं पिछली गली में रहता था। आज मर गया..." यही मृत्यु के समय दुनिया के सबसे बड़े उपन्यासकार की अपने शहर में पहचान थी।

यहीं अपने गोंडा के थे अदम गोंडवी चचा! हिन्दी के जबरदस्त शायर... कलेजा वह था कि मेरठ में तात्कालिक विधायक के सामने पढ़े, "काजू भुनी प्लेट में, विस्की गिलास में! उतरा है राम राज्य विधायक निवास में!!" मरे तो तीन लाख रुपये कर्ज और सारी जमीन रेहन पर रख के मरे...

बैजू बावरा, आनंद मठ, चैतन्य महाप्रभु जैसी गोल्डन जुबली फिल्मों के अभिनेता भारत भूषण जब मरे तो उनके चॉल के लोगों ने चन्दा लगा कर.... भारत भूषण मुम्बई के पहले स्टार थे। बङ्गलों में रहने के शौकीन...

बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन शास्त्री, निराला... जाने कितने नाम हैं, जिन्होंने इस मिट्टी पर समय के तिरस्कार को झेला है।

यह देश प्रतिभाओं का सम्मान नहीं कर पाता। सत्ता तो बिल्कुल भी नहीं कर पाती... और मेरा बिहार, जहाँ के सिपाहियों की बन्दूकें पूर्व मुख्यमंत्री के राजकीय सम्मान में भी नहीं छूटतीं, वहाँ की तो बात ही निराली है।

यहीं यूपी बिहार के बॉर्डर पर के थे महाराजा फतेह बहादुर शाही, तमकुही राजघराने के। सन 1765 से लेकर 1801 तक अंग्रेजों से लड़े। और ऐसे लड़े कि गंडक से सरयू के बीच के बड़े क्षेत्र में अंग्रेजों की चुंगी नहीं वसूली गयी उनके जीते जी... राज्य गया तो जंगल में छापामार दस्ता बना कर लड़ते रहे। अंग्रेजों की हिम्मत नहीं हुई कि एक भी अधिकारी उनके क्षेत्र में प्रवेश तक करे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एकलौते ऐसे योद्धा, जिनकी पराजय नहीं हुई। आज एक सड़क तक नहीं उनके नाम पर... यही देश है हमारा।

जाइये बसीठ बाबू! यह देश, यह माटी ऐसी ही है... हाँ! इतिहास याद रखेगा कि इस माटी का कोई बेटा अल्बर्ट आइंस्टीन को भी चुनौती देता था। आशीर्वाद दीजियेगा, कि जैसा भी है अपना देश, अपना जवार बना रहे, जगमगाता रहे...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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