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हम न मरब मरिहैं संसारा...

हम न मरब मरिहैं संसारा...
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शाम हो चली है। डूबते सूर्य, छठ घाट, अर्घ देती मेरे गाँव की स्त्रियाँ और मैं...

कई हजार वर्ष पूर्व की बात है, जब मेरे ही किसी पुरनिया ने सरस्वती के जल में खड़े हो कर सूर्य देवता को अर्घ देते हुए यह ऋचा रची थी, "आपः प्रणीत भेषजम वरुथम तन्वे मम ज्योक् च सूर्यम दृशे..." अर्थात जल हमारे शरीर के लिए रोग निवारक औषधि की पूर्ति करे, ताकि हम सूर्य का दर्शन करते रहें...

युगों बीत गए। सरस्वती लुप्त हो गईं, और वह भूमि अब हमारी नहीं रही। पर मैं जानता हूँ, एक दिन आएगा जब उसी प्राचीन भूमि पर मेरी कोई पुत्रबधू छठ भूख कर गायेगी, "कांच ही बाँस के बहँगिया... बहँगी लचकत जाय..."

मैं यह भी जानता हूँ कि यह मेरे जीवन काल में सम्भव नहीं, पर कुछ सपने अपने लिए नहीं भविष्य के लिए देखे जाते हैं। राम मंदिर के लिए मुलायम से गोली खाते कोठारी बन्धुओं ने जो स्वप्न देखा था, वे उसे पूरा होते नहीं देख सके लेकिन हमलोग देखेंगे। अफगानिस्थान की अपनी डीह पर छठ करने का स्वप्न भी कोई न कोई पूरा करेगा ही। वह दिन हमारे सपनों का होगा...

मेरे गाँव के छठ घाट पर मेरे घर की छठ प्रतिमा में सट कर मुसहरों की छठ प्रतिमा बनी हुई है। वहाँ जब मुसहरों की स्त्रियाँ मेरी माँ के साथ सुर मिला कर छठ के गीत गाती हैं तो वह सम्मिलित सुर मेरे धर्म पर लगाये जाने वाले असँख्य आरोपों के मुँह पर एक जोरदार थप्पड़ लगा कर निरुत्तर कर देता है। उनके माथे पर चमकता भखड़ा सिन्दूर मेरी सभ्यता के विरुद्ध चल रहे वामपंथी षड्यंत्रों के मुँह पर थूकता हुआ कहता है, "हम न मरब, मरिहैं संसारा..." जी हुजूर! हम सनातन हैं। थे, हैं, और रहेंगे...

मेरे गाँव की वह मुसहरिन गाली देना भी खूब जानती है। अपने टोले की यूनिवर्सिटी से गलियों में पीएचडी है। उसके नाक तक फैले सिन्दूर पर तंज कसने वाली लेखांगनाएँ यदि मिल जाँय, तो इतनी गालियाँ देगी की उनके कान से खून बहने लगेगा। और विश्वास कीजिये, उसकी गलियों में उनके लेखों से अधिक रस होगा। गालियों का साहित्य बवालियों के साहित्य से अधिक सुन्दर और रसगर होता है।

कभी-कभी किसी घटना के बाद लगता है कि हमारे ग्रामीण मूल्य मर रहे हैं। हमें लगता है कि गाँव टूट जाएंगे। लेकिन छठ के दिन यूँ ही घाट की सीढ़ियां साफ करते, फ्री में सबकी छठ-प्रतिमा रंगते, सड़कों पर झाड़ू लगाते बीसों लड़के दिख जाते हैं, जिन्हें देख कर लगता है कि भविष्य के लिए आशा की जा सकती है। हमारे मूल्य मरे नहीं, बस तनिक रङ्ग बदल रहे हैं। इस बदलाव का नाम ही भारत है। वैदिक काल से अबतक जितना हम बदले उतना कोई नहीं बदला...

छठ के दिन माथे पर दउरा उठाये पुरुष मुझे धर्म की जिम्मेवारी उठाये योद्धाओं की तरह दिखते हैं, और हाथ में ऊँख ले कर चल रहे बच्चे धर्म-ध्वजवाहक! दो दिन से तपस्या में रत्त स्त्रियों में तो छठी मइया उतर ही आती हैं। छठ पर्व मेरे लिए सभ्यता का शक्ति प्रदर्शन भी है। मैं खुश हूँ कि हम हर वर्ष निखरते जा रहे हैं।

हम सदैव कहते रहे हैं, आज भी कहेंगे, "धर्म की जय हो... विश्व का कल्याण हो..."

छठी मइया सभकर कल्याण करस...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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