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धनतेरस पर इस बार प्रदोष काल में पूजन करने से मां लक्ष्मी की विशेष कृपा मिलेगी

धनतेरस पर इस बार प्रदोष काल में पूजन करने से मां लक्ष्मी की विशेष कृपा मिलेगी
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संवत २०७६ कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी 25 अक्टूबर 2019 शुक्रवार।

धन तेरस पूजा मुहूर्त:-प्रदोष काल:-सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट की अवधि को प्रदोषकाल के नाम से जाना जाता है. प्रदोषकाल में दीपदान व लक्ष्मी पूजन करना शुभ रहता है

बहराइच मे 25 अक्टूबर को सूर्यास्त समय सायं 17:43 पर है . इस समय अवधिमें स्थिर लग्न 18:39 से लेकर 20:36 के मध्य रहेगा. मुहुर्त समय में होने के कारण घर-परिवार में स्थायी लक्ष्मी की प्राप्त काल में शुभ महूर्त:-18:39 से 20:36 तक का समय धन तेरस की पूजा के लिये विशेष शुभ रहेगा।।

पं.अनन्त पाठक:-

ॐ नमामि धन्वन्तरिं आदिदेवं सुरासुरैर्वन्दितपादपद्मम् I

लोके जरा-रुक्-भय-मृत्यु-नाशं धातारं ईशं विविधौषधीनाम् II

ऋषि धन्वंतरि आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक व स्वास्थ्य के अधिष्ठाता देवता होने से विश्व वंद्य हैं, जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु ने जगत त्राण हेतु २४ अवतार धारण किए हैं जिनमें भगवान धन्वंतरि १२वें अंशावतार हैं अर्थात आप साक्षात् विष्णु अर्थात श्री हरि के रूप हैं।

इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में लिखा है कि देवों और असुरों में अनेक संग्राम हुए। उनमें १२ महासंग्राम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन १२ महायुद्धों में एक महायुद्ध का नाम समुद्रमन्थन (जलधिमन्थन) भी है। अत: समुद्रमन्थन के इस प्रसंग का व्यावहारिक अर्थ किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि इस युद्ध का मूल कारण अमृतमन्थन था। समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि जी को भगवान विष्णु ने यह वरदान दिया था कि अगले जन्म द्वापर युग में तुम काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार श्री धन्वंतरि का तीन रूपों में उल्लेख मिलता है -

१. समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि( प्रथम)

२. धन्व के पुत्र धन्वंतरि (द्वितीय)

३. काशिराज दिवोदास धन्वंतरि (तृतीय )(धन्वंतरि द्वितीय के प्रपौत्र)

(१-) धन्वंतरि प्रथम :- कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिताकश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।

पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः।

हेन्यामान्यास्ततो देवाः शतशोऽथसहस्त्रशः II

दुखी देवगण अपने राजा इंद्र के सम्मुख उपस्थित हुए और अपनी व्यथा कही। इंद्र प्रमुख देवताओं के साथ भगवान ब्रह्मा की शरण में पहुंचे और उनसे इस परेशानी को दूर करने का निवेदन किया। ब्रह्मा ने उन्हें भगवान विष्णु के पास जाने का परामर्श दिया। तब सभी इंद्रादि देवगण भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित हुए और अपना दुख उन्हें कह सुनाया। तब द्रवित होकर भगवान विष्णु ने असुरों के शमन और देवगणों के अमरत्व के लिए विचार-विमर्श किया। देवों और दानवों की सामयिक संधि कराकर समुद्र मंथन की योजना बनाई। एतदर्थ मंदराचल पर्वत को मंथन दंड, हरि रूप कूर्म को दंड आधार तथा वासुकि नागराज को रस्सी तथा समुद्र को नवनीत पात्र बनाया। देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे।

देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया जिसके फलस्वरूप निम्र १४ रत्न निकले- हलाहल विष, कामधेनु, उच्चै:श्रवा नामक अश्व (घोड़ा), ऐरावत गजराज (हाथी), कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, विष्णु का धनुष, वारुणी मदिरा, चंद्रमा, पांचजन्य शंख और अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। समुद्र मंथन से सर्वप्रथम हलाहल विष की प्राप्ति हुई। विष की प्रचंडता से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर शंकर भगवान ने उसको अपने कंठ में धारण किया। शिव ने कंठ के हलाहल के ताप के उपशमन के लिए चंद्रमा को सिर पर धारण कर लिया और चंद्रशेखर बने। उसके पश्चात कामधेनु प्राप्त हुई जिसे ऋषियों को अर्पण कर दिया गया। फिर उच्चैश्रवा अश्व मिला जिसे दैत्यराज बाली को सौंप दिया गया इसके बाद प्रसिद्ध गजराज ऐरावत प्राप्त हुआ जो इंद्र को दे दिया गया। कौस्तुभमणि विष्णु भगवान को और कल्पवृक्ष देवताओं को समर्पित किया गया। अप्सरा भी देवताओं को प्राप्त हुई। तत्पश्चात लक्ष्मी जी निकलीं जिन्हें प्रजा पालन परायण भगवान विष्णु का आश्रय प्राप्त हुआ, लक्ष्मी देवी ने श्रीवत्स कौस्तुभ मणियों की वैजयंतीमाला पहनाकर विष्णु से विवाह किया और विष्णु लक्ष्मीकांत बने। फिर वारुणी मदिरा निकली जिसे असुरों को सौंप दिया गया।

अमृत प्राप्ति का श्रेय भगवान धन्वन्तरि के भाग्य में था। अत: इस बार अमर अवतरित भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। आयुर्वेद शास्त्र, वनस्पति औषधि तथा अमृत हाथ में रखे हुए रत्न आभूषण व वनमाला धारण किए हुए भगवान धन्वंतरि का सुंदर रूप विश्व को लुभा रहा था। वे आयुर्वेद के प्रवर्तक, इंद्र के समान पराक्रमी व यज्ञांश भोजी थे। अमृत का कलश भगवान धन्वन्तरि के हाथों में देखते ही देव और दानव बड़े ही प्रसन्न हुए। चालाक राक्षसों ने सुधा कुंभ (अमृत कलश) को झपट कर ले लिया। तब भगवान ने विश्व मोहिनी-मोहिनी माया का स्वरूप धारण कर राक्षसों को मोहित करके मदिरा में ही आसक्त रखा और प्रजापालक देवताओं को अमृत का पान कराया जिससे वे अतुल शक्ति सम्पन्न व अमर होकर राक्षसों से सफल युद्ध कर विजयी बने।

(२-) धन्वंतरि द्वितीय :- समुद्र के निकलने के बाद धन्वंतरि जी ने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु जी ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें द्वितीय जन्म द्वापर युग में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।

इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्जदेव (ये धन्वंतरि ही थे) भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया।

(३-) धन्वंतरि तृतीय:- काशी के संस्थापक 'काश' के प्रपौत्र, काशिराज 'धन्व' के पुत्र, धन्वंतरि महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। धन्वंतरि जी ने अमृतमय औषधियों की खोज की। इनके प्रपौत्र दिवोदास नाम के राजा हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। काशी में दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। शंकर जी ने विषपान किया, धन्वंतरि जी ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।

गरुड़ पुराण में भगवान धन्वंतरि के व्रत की कथा का वर्णन आया है। तदनुसार ऋषियों के पूछने पर विष्णु जी ने कहा कि पृथ्वी एवं स्वर्ग में रोगों के कारण दुखी मानवों व देवों की दशा से आर्त होकर महायोगी नारद भगवान विष्णु के पास गए और अनेक व्याधियों से ग्रस्त प्राणियों के निरोग होने का उपाय पूछा। तब भगवान ने कहा कि मैं धन्वंतरि का अवतार ग्रहण कर तथा इंद्र से आयुर्वेद को प्राप्त करके सब लोकों को स्वस्थ बना दूंगा। साथ ही भगवान बोले कि मैं कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, वीरवार हस्त नक्षत्र के शुभ दिन बनारस में धन्वन्तरि के रूप में अवतार लेकर आयुर्वेद का उद्धार करूंगा। नारद जी ने भगवान धन्वंतरि की पूजा विधि, उसका फल, नियम व समय तथा पूर्व में किसने किया आदि प्रश्र पूछे।

तब भगवान ने कहा कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन मैं प्रकट हुआ हूं अत: यह दिन धन-तेरस के नाम से विख्यात होगा। विधिवत् पूजन अक्षय फलप्रद होता :

धनतेरस प्रथा :- शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक त्रयोदशी धनतेरस कोआदि प्रणेता, जीवों के जीवन की रक्षा, स्वास्थ्, स्वस्थ जीवन शैली के प्रदाता के रूप में प्रतिष्ठित तथा विष्णु के अवतार के रूप में पूज्य ऋषि धन्वन्तरी का अवतरणदिवस के रूप में मनाया जाता है और आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता भगवान धन्वंतरि की "ॐ धं धन्वंतरये नम:" आदि मन्त्रों से प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करें।

भारत में कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन धनतेरस का पर्व पूरी श्रद्धा व विश्वास से मनाया जाता है. देव धनवन्तरी के अलावा इस दिन, देवी लक्ष्मी जी और धन के देवता कुबेर के पूजन की परम्परा है. इस दिन कुबेर के अलावा यमदेव को भी दीपदान किया जाता है. इस दिन यमदेव की पूजा करने के विषय में एक मान्यता है कि इस दिन यमदेव की पूजा करने से घर में असमय मृत्यु का भय नहीं रहता है. धन त्रयोदशी के दिन यमदेव की पूजा करने के बाद घर के मुख्य द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर चार मुख वाला दीपक पूरी रात्रि जलाना चाहिए. इस दीपक में कुछ पैसा व कौडी भी डाली जाती है

ही इस दिन नये उपहार, सिक्का, बर्तन व गहनों की खरीदारी करना शुभ रहता है. शुभ मुहूर्त समय में पूजन करने के साथ सात धान्यों की पूजा की जाती है. सात धान्य गेंहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर है. सात धान्यों के साथ ही पूजन सामग्री में विशेष रुप से स्वर्णपुष्पा के पुष्प से भगवती का पूजन करना लाभकारी रहता है. इस दिन पूजा में भोग लगाने के लिये नैवेद्ध के रुप में श्वेत मिष्ठान्नका प्रयोग किया जाता है. साथ ही इस दिन स्थिर लक्ष्मी का पूजन करने का विशेष महत्व है

भगवान धन्वंतरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं-कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है। धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरिदें। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वंतरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है।

धनतेरस पौराणिक कथा :- (१)धनतेरस से जुड़ी पौराणिक कथा है कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन देवताओं के कार्य में बाधा डालने के कारण भगवान विष्णु ने असुरों के गुरु शुक्राचार्य की एक आंख फोड़ दी थी। कथा के अनुसार, देवताओं को राजा बलि के भय से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और राजा बलि के यज्ञ स्थल पर पहुंच गए। शुक्राचार्य नेवामन रूपमें भी भगवान विष्णु को पहचान लिया और राजा बलि से आग्रह किया कि वामन कुछ भी मांगे उन्हें इंकार कर देना। वामन साक्षात भगवान विष्णु हैं जो देवताओं की सहायता के लिए तुमसे सब कुछ छीनने आए हैं। बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं मानी। वामन भगवान द्वारा मांगी गई तीन पग भूमि, दान करने के लिए कमंडल से जल लेकर संकल्प लेने लगे। बलि को दान करने से रोकने के लिए शुक्राचार्य राजा बलि के कमंडल में लघु रूप धारण करके प्रवेश कर गए। इससे कमंडल से जल निकलने का मार्ग बंद हो गया।वामन भगवान शुक्रचार्य की चाल को समझ गए। भगवान वामन ने अपने हाथ में रखे हुए कुशा को कमण्डल में ऐसे रखा कि शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। शुक्राचार्य छटपटाकर कमण्डल से निकल आए। इसके बाद बलि ने तीन पग भूमि दान करने का संकल्प ले लिया। तब भगवान वामन ने अपने एक पैर से संपूर्ण पृथ्वी को नाप लिया और दूसरे पग से अंतरिक्ष को। तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं होने पर बलि ने अपना सिर वामन भगवान के चरणों में रख दिया। बलि दान में अपना सब कुछ गंवा बैठा। इस तरह बलि के भय से देवताओं को मुक्ति मिली और बलि ने जो धन-संपत्ति देवताओं से छीन ली थी उससे कई गुणा धन-संपत्ति देवताओं को मिल गई। इस उपलक्ष्य में भी धनतेरस का त्योहार मनायाजाता है।

(२)धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।

पं. अनन्त पाठक

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