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करवा चौथ

करवा चौथ
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वामपंथी नारीवाद का एक बड़ा चर्चित प्रश्न है कि स्त्रियां ही पुरुषों के लिए व्रत क्यों रखती हैं! प्रश्न बुरा नहीं है, बुरी है प्रश्न पूछने के पीछे की मंशा। वस्तुतः प्रश्न पूछने के पीछे उनका उद्देश्य स्त्री विमर्श नहीं, बल्कि सनातन मूल्यों और सनातन व्यवस्था के प्रति घृणा है।

किन्तु प्रश्न तो प्रश्न है! उसका उत्तर होना चाहिए। मुझे लगता है स्त्रियां व्रत केवल पति के लिए नहीं रखतीं। स्त्रियां व्रत रखती हैं उस पवित्र व्यवस्था के लिए, जिसे घर कहा जाता है। स्त्रियां व्रत रखती हैं उस गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए, जिसका एक पहिया वे स्वयं है और दूसरा पहिया उनका पति! स्त्रीयाँ व्रत रखती हैं स्वयं के लिए, क्योंकि वे जानती हैं कि यदि रथ का दूसरा पहिया कमजोर हुआ, तो पहला पहिया मजबूत होने के बाद भी किसी काम का नहीं होगा...

असल में व्रत केवल ईश्वर की आराधना के लिए नहीं आते, बल्कि जीवन की असंख्य कठिनाइयों के बीच आनंद के कुछ पल लेकर आते हैं। गृहस्थ जीवन बहुत ही कठिन होता है। इंजॉय और आनंद के नाम पर बंधनों से मुक्त रहने की वकालत करने वाले आवारा लोग नहीं समझ पाएंगे कि गृहस्थ जीवन में कितनी तपस्या करनी पड़ती है। गृहस्थ होने के लिए राम की भाँति वनवास के दुख स्वीकार करने पड़ते हैं। गृहस्थ को जीवन भर जीवन से जूझना होता है।

पर्व, त्योहार उसी कठिन और जीवन पर्यंत की तपस्या के बीच मुक्ति के कुछ क्षण लेकर आते हैं। पर्व इसलिए आते हैं ताकि दुखों के भंवर में फँसी एक स्त्री एक दिन के लिए ही सही, अपने कष्टों को भूल कर मुस्कुरा सके। करवा चौथ इसलिए आता है, ताकि वर्ष भर धूल मिट्टी में लिपट कर बनिहारी करने वाली स्त्री भी एक दिन अपने होठों पर लिपिस्टिक लगा सके। पर्व इसलिए आते हैं ताकि लोग खुश हो सकें। एक दिन ही सही, जीवन की कठिनाइयों से मुक्त होकर ईश्वर के बारे में सोच सकें, स्वयं के बारे में सोच सकें...

जिनका मिट्टी से जुड़ाव नहीं है, वे नहीं जान पाएंगे कि एक गरीब परिवार की स्त्री के जीवन में करवा चौथ का पर्व क्या लेकर आता है। वे अंदाजा तक नहीं लगा सकते कि मात्र ढाई सौ की साड़ी में लिपटी वह अधेड़ महिला कैसे उस एक दिन के लिए महारानी बन जाती है। पारिवारिक बंधनों से मुक्त, छुट्टा पशुवत जीवन जीने की चाह रखने वाले नहीं समझ पाएंगे कि छननी की जाली से पति का चेहरा देखना पति-पत्नी दोनों के अंदर कितना रोमांटिक एहसास भर देता है। कुछ क्षण के लिए लगता है जैसे इस समूची सृष्टि में तीन ही लोग हैं। पति, पत्नी और चांद... और तब तीनों अपनी समस्त सुषमा, समस्त सौन्दर्य के साथ उगते हैं। पत्नी रानी की तरह अपने समस्त आभूषणों से सजी हुई, पति अपने मुखड़े पर खुशियों की बारात सजाए हुए, और पूर्ण चन्द्रमा अपना समूचा प्रकाश ले कर उतरा हुआ... साला रोमांस और क्या होता है?

उस समय मात्र यह तीन बिंदु ही मिलकर ही एक नवीन संसार रच देते हैं, प्रेम का संसार!

कारवा चौथ का अर्थ सिर्फ वही समझ पाते हैं जिनके अंदर प्रेम हो। सिनेमा वाला प्रेम नहीं, गृहस्थ वाला प्रेम। वह प्रेम, जिसमें डायलॉग नहीं बोले जाते बल्कि आँख मूंद कर विश्वास किया और निभाया जाता है। वह प्रेम जिसमें पार्टनरशिप नहीं समर्पण होता है। हाँ, याद दिलाता चलूँ कि पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति समर्पण भी वस्तुतः एक दूसरे के प्रति समर्पण नहीं, बल्कि गृहस्थी के प्रति समर्पण होता है।

स्त्री कितनी भी कर्कशा ही क्यों न हो, जब व्रत में होती है तो साक्षात लक्ष्मी होती है। उसका मजाक न उड़ाइये, उसके प्रति श्रद्धा रखिये। हमारा-आपका होना ऐसी ही श्रद्धाओं का प्रतिफल है।

करवा चौथ की समस्त व्रतियों को प्रणाम! और उनको ढेरों शुभकामनाएं। आपका घर बना रहे...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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