Janta Ki Awaz
लेख

भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि पर विशेष...भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर

भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि पर विशेष...भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर
X

महापंडित राहुल सांकृत्यान ने जिन्हें 'भोजपुरी का शेक्सपीयर' कहा....लोक कलावंत भिखारी ठाकुर की आज पुण्यतिथि है। वह भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार होने के साथ ही रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक भी रहे हैं। वह बहुआयामी प्रतिभा के लोक कलाकार थे। एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। राहुल सांकृत्यायन ने उनको 'अनगढ़ हीरा' कहा तो जगदीशचंद्र माथुर ने 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। उनको 'भोजपुरी का शेक्सपीयर' भी कहा जाता है।

तीस बारिस के भइल उमिरिया तब लागल जीव तरसे।

कहीं से गीत कवित्त कहीं से लागल अपने बरसे।

भिखारी ठाकुर लोक कलाकार ही नहीं थे, बल्कि जीवन भर सामाजिक कुरीतियों और बुराइयों के खिलाफ कई स्तरों पर जूझते रहे। उनके अभिनय एवं निर्देशन में बनी भोजपुरी फिल्म 'बिदेसिया' आज भी लाखों-करोड़ों दर्शकों के बीच पहले जितनी ही लोकप्रिय है। उनके निर्देशन में भोजपुरी के नाटक 'बेटी बेचवा', 'गबर घिचोर', 'बेटी वियोग' का आज भी भोजपुरी अंचल में मंचन होता रहता है। इन नाटकों और फिल्मों के माध्यम से भिखारी ठाकुर ने सामाजिक सुधार की दिशा में अदभुत पहलकदमी की। वह मूलतः छपरा (बिहार) के गांव कुतुबपुर के एक हज्जाम परिवार में जन्मे थे। फिल्म बिदेसिया की ये दो पंक्तियां तो भोजपुरी अंचल में मुहावरे की तरह आज भी गूंजती रहती हैं-

"हँसि हँसि पनवा खीऔले बेईमनवा कि अपना बसे रे परदेश।

कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गइले, मारी रे करेजवा में ठेस!"

भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व में कई आश्चर्यजनक विशेषताएं थी। मात्र अक्षर ज्ञान के बावजूद पूरा रामचरित मानस उन्हें कंठस्थ था। शुरुआती जीवन में वह रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोडकर खड़गपुर चले गए। कुछ वक्त तक वहां नौकरी की। तीस वर्षों तक पारंपरिक पेशे से जुड़े रहे। अपने गाँव लौटे तो लोक कलाकारों की एक नृत्य मंडली बनाई। रामलीला करने लगे। उनकी संगीत में भी गहरी अभिरुचि थी। सुरीला कंठ था। सो, वह कई स्तरों पर कला-साधना करने के साथ साथ भोजपुरी साहित्य की रचना में भी लगे रहे।

भिखारी ठाकुर ने कुल 29 पुस्तकें लिखीं। आगे चलकर वह भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के समर्थ प्रचारक और संवाहक बने। बिदेसिया फिल्म से उन्हें अपार प्रसिद्धि मिली।

आजादी के आंदोलन में भिखारी ठाकुर ने अपने कलात्मक सरोकारों के साथ शिरकत की। अंग्रेजी राज के खिलाफ नाटक मंडली के माध्यम से जनजागरण करते रहे। इसके साथ ही नशाखोरी, दहेज प्रथा, बेटी हत्या, बालविवाह आदि के खिलाफ अलख जगाते रहे। यद्यपि बाद में अंग्रेजों ने उन्हें रायबहादुर की उपाधि दी।

"उनकी भाषा में चुहल है, व्यंग्य है, पर वे अपनी भाषा की जादूगरी से ऐसी तमाम गांठों को खोलते हैं, जिन्हें खोलते हुए मनुष्य डरता है। भिखारी ठाकुर की रचनाओं का ऊपरी स्वरूप जितना सरल दिखाई देता है, भीतर से वह उतना ही जटिल है और हाहाकार से भरा हुआ है। इसमें प्रवेश पाना तो आसान है, पर एक बार प्रवेश पाने के बाद निकलना मुश्किल काम है। वे अपने पाठक और दर्शक पर जो प्रभाव डालते हैं, वह इतना गहरा होता है कि इससे पाठक और दर्शक का अंतरजगत उलट-पलट जाता है। यह उलट-पलट दैनंदिन जीवन में मनुष्य के साथ यात्रा पर निकल पड़ता है। इससे मुक्ति पाना कठिन है। उनकी रचनाओं के भीतर मनुष्य की चीख भरी हुई है। उनमें ऐसा दर्द है, जो आजीवन आपको बेचैन करता रहे। इसके साथ-साथ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गहन संकट के काल में वे आपको विश्वास देते हैं, अपने दुखों से, प्रपंचों से लड़ने की शक्ति देते हैं।अपने प्रसिद्ध नाटक 'बिदेसिया' में भिखारी ठाकुर ने स्त्री जीवन के ऐसे प्रसंगों को अभिव्यक्ति के लिए चुना, जिन प्रसंगों से उपजने वाली पीड़ा आज भी हमारे समाज में जीवित है।"

भिखारी ठाकुर के लिखे प्रमुख नाटक हैं- बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, कलियुग-प्रेम, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार, नक़ल भांड अ नेटुआ के, गबरघिचोर, गंगा स्नान (अस्नान), विधवा-विलाप, पुत्रवध, ननद-भौजाई आदि। इसके अलावा उन्होंने शिव विवाह, भजन कीर्तन: राम, रामलीला गान, भजन कीर्तन: कृष्ण, माता भक्ति, आरती, बुढशाला के बयाँ, चौवर्ण पदवी, नाइ बहार आदि की भी रचनाएं की।

Next Story
Share it