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उन्नीस बच्चों की मृत्यु पर विरोध जता के चुप हो चुके हम...

उन्नीस बच्चों की मृत्यु पर विरोध जता के चुप हो चुके हम...
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सूरत में उन्नीस बच्चों की मृत्यु पर विरोध जता के चुप हो चुके हम। लोकतंत्र में जनता का कर्तव्य वोट दे लेने तक और अधिकार किसी दुर्घटना/अपराध का विरोध कर लेने तक ही सीमित होता है। पिछले सत्तर वर्षों से हम यही करते आये हैं और आगे भी यही करते रहेंगे। हममें कोई परिवर्तन नहीं होगा।

बात तनिक कटु लगेगी, पर सत्य ही है। हम प्रश्न उठा रहे हैं कि प्रशासन की नाक के नीचे बिना सुरक्षा उपकरणों के उस भवन में कोचिंग सेंटर कैसे चल रहा था। प्रश्न सही भी है, प्रशासन दोषी है। पर क्या केवल प्रशासन दोषी है? क्या उस अभिभावक की कोई जिम्मेवारी नहीं थी कि वह एक बार जा कर उस जगह की व्यवस्था देख ले जहाँ उसका बच्चा पढ़ने जा रहा है? क्या अपने बच्चों के प्रति हमारा इतना भी कर्तव्य नहीं बनता कि हम उसकी सुरक्षा की चिंता सरकार के ऊपर न छोड़ कर स्वयं करें? क्या उन उन्नीस अभिभावकों में किसी ने भी यह सोचा था कि यहाँ सुरक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है, सो हमें अपने बच्चे को यहाँ नहीं भेजना चाहिए?

नहीं! यह कड़वी सच्चाई है कि हमें अपने बच्चों की कोई चिंता नहीं है। हमें उससे बस 98% नम्बर चाहिए, इसके लिए उन्हें यमराज के यहाँ भी भेजना पड़े तो भेज देंगे लोग। हम दुनिया को यह बताने के लिए कि 'मेरा बेटा जिला में टॉप किया है' अपने बेटे से कुछ भी करा सकते हैं, उसे कहीं भी भेज सकते हैं...

शिक्षा दिलाने के नाम पर लोग अपने बच्चों पर जितना अत्याचार कर रहे हैं न, उतना अत्याचार तो आतंकवादी या वामपंथी नक्सली भी लोगों पर नहीं करते।

टीवी पर आने वाला बच्चों का कोई डांस शो देख लीजिए। डांस के नाम पर उसकी माँ के सामने एक छह साल के बच्चे को फुटबॉल की तरह हवा में फेंका जाता है, और हरामखोर माँ-बाप देख कर खुश होते हैं। उन्हें इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं कि मेरे मासूम बच्चे पर कितना बड़ा अत्याचार हो रहा है, उन्हें इस बात का गर्व है कि हम टीवी पर आ रहे हैं। टीवी पर आने के लिए वे अपनी ही सन्तति का रक्त पी रहे हैं।

सूरत के उस कोचिंग सेंटर से अधिक कुव्यवस्था वाले लाखों कोचिंग सेंटर हैं देश मे। हर राज्य में, हर शहर में... पर किसी अभिभावक को कोई चिन्ता नहीं है। उसे बस रिजल्ट चाहिए, किसी भी तरह...

हमें आदत हो गयी हर बात के लिए सरकार को दोष देने की। कितना हास्यास्पद है न, कि जो लोग वहाँ खड़े हो कर लड़कों को जमीन पर गिरते देख रहे थे वे भी सरकार को दोष दे रहे हैं। उन हरामखोरों में से दस लोग भी आगे बढ़ कर उन बच्चों को रोकने के लिए हाथ फैला दिए होते, तो मृत्यु के आंकड़े कम होते। आप इसे मेरा घमंड कहिये या अतिआत्मविश्वास पर मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसी घटना किसी गाँव में हुई होती तो लोग बच्चों को मरने नहीं देते।

मेरी बात बहुत बुरी लगेगी, पर यह सच्चाई है कि शहरी जीवनशैली में लोग विपरीत परिस्थितियों से निपटने की कला भूल गए हैं। उन्हें यह पता ही नहीं कि यदि पड़ोसी के घर मे आग लगी हो तो हमें अपने घर से बाल्टी ले कर दौड़ना चाहिए। वे किसी भी दुर्घटना में मोबाइल ले कर दौड़ते हैं।

और सरकार? सरकारें किस आधार पर कार्य करती हैं जानते हैं? सरकारें बस इतना देखती हैं कि क्या करने पर जनता हमें वोट देगी। और स्वीकार कीजिये कि आपने अब तक कुव्यवस्था को चुनाव में मुद्दा बनाया ही नहीं है।

19 बच्चों की शवयात्रा में कोई नेता नहीं गया था, न पक्ष से न विपक्ष से। वे जानते हैं कि 15 दिन में हम सब भूल जाएंगे। अगले चुनाव में भी वे उन्नीस शव मुद्दा नहीं बनेंगे, न पक्ष की ओर से न विपक्ष की ओर से... यही सत्य है। सो सरकार में भी कोई सुधार नहीं होगा। सरकार को छोड़िये! आपको क्या लगता है, जनता में सुधार होगा? क्या उस घटना से सबक ले कर लोग अपने बच्चों के कोचिंग सेंटर की व्यवस्था देखने जाएंगे? नहीं जाएगा मित्र! कोई नहीं जाएगा। यही सत्य है...

छोड़िये।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा जी...

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