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शंकराचार्य जयन्ती पर विशेष:- (प्रेम शंकर मिश्र)

शंकराचार्य जयन्ती पर विशेष:-    (प्रेम शंकर मिश्र)
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अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रवर्तक, सनातन धर्म के पुनरुद्धारक, प्राचीन बृहत् (अखण्ड) भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकता के संस्थापक साक्षात भगवान शंकर के स्वरूप आदि शंकराचार्य के जन्मोत्सव की सभी सनातन धर्मानुरागी जनों को कोटि-कोटि बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

आदि शंकराचार्य का जन्म वर्तमान केरल राज्य के एर्नाकुलम के कलाडी (जिसका शाब्दिक अर्थ है पैरों में होना) गाँव में पिता शिवगुरु माता विशिष्ठा देवी के घर, ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी (कुछ विद्वान अक्षय तृतीया भी मानते हैं) भगवान चंद्र मौली शिव की आराधना के परिणाम स्वरुप हुआ। शंकराचार्य पीठों में उपलब्ध ताम्रपत्रों एव अन्य प्रमाणों की मान्यतानुसार ईसा पूर्व 508, युधिष्ठिर सम्वत् 2631 में भगवान शंकराचार्य का प्राकट्य हुआ। बालक का नाम भगवान शंकर के नाम पर ही रखा गया। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव से पिता शिवगुरु ने सर्वज्ञानी दीर्घायु पुत्र की कामना की थी। परंतु भगवान शंकर ने बताया कि सर्वज्ञानी पुत्र दीर्घायु नहीं होगा, दीर्घायु चाहिए तो पुत्र सर्वज्ञानी नहीं होगा। पिता की इच्छा अनुसार उन्हें सर्वज्ञानी किंतु अल्पायु पुत्र के रूप में शंकर की प्राप्ति हुई। 3 वर्ष की अल्पायु में उनके पिता ने पूछा "बद्धो हि को?"(बन्धन में कौन है?) उन्होंने बताया "विषयानुरागी"।

बालक शंकर अप्रतिम प्रतिभा से भूषित,अत्यंत अल्प काल में ही संपूर्ण वेदों, शास्त्रों पुराणों आदि में पारंगत हो, नौ वर्ष की आयु में गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण कर माॅ से सन्यास वृति का अनुमोदन प्राप्त किया।

सन्यास ग्रहण करने के पश्चात पैदल भ्रमण करते हुए माॅ नर्मदा के तट पर, ओंकारेश्वर के निकट, ओंकार पर्वत पहुच कर उन्होंने भगवतपाद गोविंद से दीक्षा ली। उनकी अनुमति से सनातन धर्म के प्रचार और "दिग्विजय" "धर्म विजय" के लिए निकल पड़े। उनके सन्यासी जीवन से जुड़ी अनेक कथाएं जनश्रुति के रूप में आज भी विद्वज्जन एवं लोक में प्रचलित हैं। जिनमें मंडन मिश्र से किया जाने वाला शास्त्रार्थ और फिर उनकी पत्नी उभय भारती से शास्त्रार्थ और परकाया प्रवेश आदि की अनेक कथाएं उनसे जुड़ी है, जो उनके प्रखर ज्ञान, विवेक, वैराग्य, समस्त चराचर से प्रेम और सभी भूतों में परमात्मा के दर्शन को पुष्टित करते हैं।

प्राचीन बृहत् अखण्ड भारत के धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक त्रिकोण (तक्षशिला, कामरूप वर्तमान असम और सुदूर दक्षिण ) के केंद्र में स्थित काशी आदि काल से सशक्त आध्यात्मिक केन्द्र रहा है। काशी के चाण्डाल भी तत्वज्ञान से इतने परिपूर्ण होते थे कि शंकराचार्य जैसे सिद्ध, ज्ञानी सन्यासी ने, एक अवसर पर चांडाल को अपना गुरु माना।मृत पति का शव रखकर विलाप कर रही काशी की एक साधारण महिला के शब्दों ने उन्हे गूढ़ दार्शनिक दृष्टि और दिशा दी।काशी ने उन्हे सिद्धि, प्रसिद्धि के साथ साथ उनके दार्शनिक सिद्धांतों को दृढ़ता भी दी। शायद इसीलिए "काशी सर्व प्रकाशिका" के रूप में जगत विख्यात है ।

भारत की सांस्कृतिक सीमा के चारों कोनों पर चार मठ की स्थापना, अनेक ग्रंथों, स्त्रोत्रो आदि का लेखन प्रस्थानत्रयी, ब्रह्मसूत्र विभिन्न उपनिषदों, तैतरीय ग्रंथों श्रीमद्भागवत गीता आदि के भाष्य लिखना, पूरे देश का पैदल भ्रमण करना, जगह जगह शास्त्रार्थ कर सनातन धर्म की ध्वजा को समुन्नत करना, आदि का पराक्रम किसी एक व्यक्ति के द्वारा असंभव लगता है। खासकर तब जबकि उनका देहावसान 32 वर्ष की अल्प आयु में ही हो गया था।मृत्यु को मित्र घोषित करने वाले आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ धाम में युधिष्ठिर सम्वत् 2663 में शरीर त्याग किया।

आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म को उस समय हो रहे चतुर्दिक आक्रमण से अपने प्रखर ज्ञान और तर्क से न केवल बचाया बल्कि पराभवोन्मुख सनातन वैदिक ज्ञान और परम्परा में नवोन्मेष और जागृति पैदा की।समकालीन 84 सम्प्रदायों के उद्भट विद्वानों को अपने ज्ञान और तर्क से न केवल शास्त्रार्थ में परास्त किया अपितु उन सभी को अपना शिष्य बनाकर धर्म प्रचार में नियोजित किया।

वर्तमान हिंदू धर्म का स्वरूप और उसकी मान्यताएं आदि शंकराचार्य के द्वारा ही प्रतिपादित की गई है। धर्म में आई अनेक विकृतियों एवं कर्मकांड संबंधी जड़ता का उन्होंने खंडन किया और ज्ञान मार्ग के द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दर्शाया। "ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या" ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है "जीवो ब्रम्हेवनापरा" जीव ही ब्रह्म है दूसरा नहीं का घोष कर उन्होंने अद्वैत वादी दर्शन का प्रतिपादन किया।वैचारिक और दार्शनिक धरातल पर उनके प्रतिपादन और प्रतिपाद्य में पूर्ण स्पष्टता,सरलता, तार्किकता, बोधगम्यता और सर्व स्वीकार्यता थी।इसीलिए लगभग 2500 वर्ष बाद भी भगवान शंकराचार्य की अद्भुत अलौकिक मेघा, प्रतिभा, क्षमता का पूरा विश्व नमन और वंदन करता है।

हिंदू धर्म में वर्तमान में आई जड़ता और अनेक कुप्रथाओं का कारण भी यही है कि धर्म के मान्य ध्वजा-वाहक संत उनके मार्ग से विमुख हो समाज के मार्ग दर्शन में अक्षम हो रहे हैं। जो जन जागृति उन्होंने उत्पन्न की थी, उसमें नवोन्मेष की सर्वाधिक आवश्यकता वर्तमान में ही है।विद्वानों की कमी न होने पर भी धर्म संरक्षण और संवर्धन की निष्ठा का नितान्त आभाव ही है।राज्य का धर्माचरण विमुख होना उतना हानि नहीं पहुंचा रहा है जितना धर्माचार्यों की उदासीनता और सुविधा-आसक्ति पहुंचा रही है।समाज और धर्म जागरण हेतु शंकराचार्य के पुनर्जन्म की आज सर्वाधिक आवश्यकता प्रतीत हो रही है।

"तत्वमसि" और "सोऽहम्" के उद्घोषक भगवान शंकराचार्य के प्राकट्य की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई ।

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित शंकराचार्य का चित्र ।

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