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लेख

"प्रेम..." ...सर्वेश तिवारी श्रीमुख

प्रेम...  ...सर्वेश तिवारी श्रीमुख
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अच्छा सुनो न! दिसम्बर जा रहा है... जाता हुआ दिसम्बर हर बार तुम्हारी याद बढ़ा के जाता है। तुम भी दिसम्बर की तरह ही चली गयी थी न एक दिन! तुम और दिसम्बर दोनों एक से ही हैं। मैं न तुमको रोक पाया था, न दिसम्बर को रोक पाता हूँ..

और रोकना भी क्यों? तुम जा कर भी मुझसे दूर हो सकी हो क्या? दिसम्बर भी जा कर कब दूर हो पाता है? हमारी आने वाली पीढियां भले हमारे गुजरे हुए दिसम्बर को स्मरण न रखें, हम अपने जीवन के हर दिसम्बर को याद रखते हैं। पहले से लेकर आखिरी तक... हर दिसम्बर यूँ ही थोड़े चले जाता है, बहुत कुछ ले कर और बहुत कुछ दे कर जाता है। फिर आदमी इस लेन-देन को कैसे भूल सकता है? ऐसा ही एक दिसम्बर तुमको ले गया था, फिर उसे कभी भूल सकता हूँ क्या?

तुमको बताऊँ! तुम जा कर भी मेरे साथ हो। हर साल जनवरी में जब मेरे खेत मे सरसो के फूल खिलखिलाते हैं न, तो अपने पीले हो चुके खेत को ही तुम्हारी हथेली मान लेता हूँ। सोचो तो, फिर मेरे खेत वाले तुम्हारे हाथों की वह सरसो वाली पीली मेहँदी मेरे नाम की हुई कि नहीं? अब बताओ, हो क्या मुझसे दूर?

अरे हँसो मत! मान लेने का नाम ही प्रेम है। मानो तो प्रेम, न मानो तो माया... मई-जून की गर्मी में मैं जब अपने बगीचे के आम की पत्तियों को तुम्हारा कंगन मान लेता हूँ तो हवा देर तक उन्हें बजाती रहती है, खन-खन, खन-खन... मेरा प्रेम केवल मैं जानता हूँ।

तुमको पता है, जिस दिन तुमको मुस्कुराते देख कर हृदय में पहली बार एक अनजानी सी हलचल हुई थी न, उसी दिन कसम खाई थी कि तुमको अपने प्रेम की भनक तक नहीं लगने दूँगा। और देखो, तुम्हें सचमुच भनक तक नहीं लगी। उस दिन जब तुम जा रही थी तो तुम्हारे सामने तुम्हारे लिए रोया था, और तुम्हें लगा कि मेरे पैर में कील गड़ गयी है इसलिए दर्द से रो रहा हूँ। मैंने तनिक भी भनक तक न लगने दी...

अजीब लग रहा है न? लगेगा। जो आसानी से समझ में आ जाय वह कवि का प्रेम नहीं हो सकता। दुनिया के अन्य पुरुष अपनी प्रेयसी को सात पर्दे में छुपा कर रखते हैं, पर कवि अपने प्रेम को ही हजार पर्दों में छुपा कर रखता है। हँसो मत, तुम्हारे सामने सौ बार अपना प्रेम पढ़ जाऊंगा और तुम समझ भी नहीं पाओगी कि मैंने सब तुम्हारे लिए पढ़ा है।

एक बार यूँ ही मन ने कहा था, "काश! कि तुम्हें बता दिया होता। शायद तब तुम्हारे जाने का दुःख नहीं मिला होता।"

पर मन के इस 'काश' का उत्तर मैंने स्वयं ही ढूंढ लिया। क्या करता तुम्हें रोक कर? जब तुम्हें देख कर पहली बार हृदय के भीतर कोई मुस्कराया था न, उस एक क्षण के आगे तुम्हारे साथ बीतने वाले हजार साल छोटे होते। वह एक क्षण आज भी मेरे जीवन का केंद्र है, उसे मैं किसी के लिए त्याग नहीं सकता, तुम्हारे लिए भी नहीं। बच्चन कह गए, "पा जाता तो हाय न इतनी प्यारी लगती मधुशाला..." तुम होतीं तो शायद उस क्षण का भाव गिरता जाता रोज...

सच कहूँ तो तुम्हारे जाने से मैं दुखी हूँ भी नहीं। हम जिससे प्रेम करते हैं न, उससे भी अधिक प्रिय होता है हमारा "प्रेम"। मुझे तुममें और प्रेम में एक को चुनना था, मैंने प्रेम को चुना। और तभी तो तुम्हारे जाने के युगों बाद भी मैं हवन-कुण्ड की तरह महकता हूँ, नहीं तो इतने दिनों में कितनों का प्रेम गंगोत्री से गंगासागर पहुँच जाता है।

अच्छा छोड़ो! दिसम्बर जा रहा है। इस बार भी ईश्वर से प्रार्थना करूँगा, तुम्हारे जीवन का हर दिसम्बर मेरा, और मेरे जीवन की हर जनवरी तुम्हारी। मैं दिसम्बर सा बूढ़ा दार्शनिक होता जाऊँ, तुम जनवरी सी नई... मिलना तो हमें यूँ भी नहीं।

चलो छोड़ो! जाने दो....

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